सौरभ तामेश्वरी
यूँ तो देश की अनेक धरोहर और विरासतें हैं इनमें बावड़ियों का भी अपना ही स्थान है। इन्हें जल संरक्षण के लिए बेहतर माना जा सकता है। हजारों वर्षों पूर्व हमारे पूर्वजों द्वारा इन्हें बनाने की जानकारियां हैं। महलों में महारानियों एवं बाहर आमजन के लिए भी, विभिन्न स्थानों पर बावड़ी मौजूद थीं। जिनका आवश्यकता के अनुरूप सभी उपयोग किया करते थे। अब के समय में बावड़ियों कहीं खोती नजर आ रही हैं। यह चिंता का विषय है। इस ओर हमें ध्यान देने की आवश्यकता है।
विश्व भर जानता है कि भारत का इतिहास वैभवशाली रहा है, अनेक स्थानों पर इसके प्रमाण दर्ज हैं। प्राकृतिक संसाधनों को सहेजने के अनोखे प्रयास हमारे यहां किये गये जिनके सबूत आज भी हमारे सामने हैं।
हमें स्मरण है जल संरक्षण की दृष्टि से बावड़ी की भूमिका अहम है। देश भर में हजारों-लाखों बावड़ियाँ मौजूद हैं। ये सीढ़ीदार कुओं, तालाबों का एक रूप होता है। विदिशा जिले के उदयपुर ग्राम में अनेक बावड़ियाँ हैं।
उदयपुर के इतिहास में बावड़ियों का बड़ा महत्व है। बड़ी संख्या में यहां बावड़ियों के होने की बात बताई जाती है। अनेक बुजुर्गों की जुबानी है कि उन्होंने आंखों के सामने बीते वर्षों में बावड़ियाँ खोती हुई देखी हैं। हालांकि उदयपुर में अभी कुछ शेष बची हैं, वे बेहद खास हैं।
इन बावड़ियों में बहुत ही बेहतर सीढ़ियां मौजूद हैं, जो उनके अंदर तक ले जाती हैं। सीढ़ियों के साथ उनमें प्रवेश हेतु द्वार एवं देवी-देवताओं की प्रतिमाएं इनके वैभवशाली होने के सबूत हैं।
बावड़ियों के बारे में बताया जाता है कि "बावड़ी केवल जल के उपयोग की चीज़ नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केंद्र भी होती थी, यहाँ पूजा-अर्चना भी की जा सकती थी, ब्याह-शादी और गोठ-ज्योनार (आज जिसे पिकनिक कहते हैं) भी। दूर से आने वाले यात्री यहाँ बनी धर्मशालाओं में रुक सकते थे।"
हालांकि उदयपुर में स्तिथ बावड़ियाँ इतनी बड़ी नहीं हैं परंतु फिर भी यह हमारी विरासत को सहेजे हुए हैं। जिले में स्तिथ यह बावड़ियाँ महत्वपूर्ण हैं। हम सभी को नई पीढ़ी को बावड़ियों के महत्व के बारे में बताना और उनके संरक्षण हेतु पहल करना अपनी जिम्मेदारी समझना चाहिए। तब जाकर हम अपनी विरासतों को सहेज पाएंगे।