स्व की विजय और मित्र धर्म: महारथी - महाकवि गोस्वामी तुलसीदास

हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार तुलसी अब क्या होंयेंगे, नर के मनसबदार

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    04-Aug-2022
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tulsidas ji
 
डॉ. आनंद सिंह राणा- 
 
विश्व के सर्वश्रेष्ठ स्वाभिमानी और स्वतंत्रप्रिय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है। धूर्त अकबर ने तुलसीदास जी को नवरत्न में शामिल करने के लिए कई बार कोशिश की परंतु महाकवि ने ये कहकर पेशकश ठुकरा दी कि "हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार.. तुलसी अब क्या होंयेंगे, नर के मनसबदार"।
 
अकबर ने षड्यंत्रपूर्वक अपने दरबार में गोस्वामी तुलसीदास को लाने के लिए टोडरमल, बीरबल और रहीम को भेजा, परंतु असफल रहा। इसलिए अकबर ने गोस्वामी को गिरफ्तार कराया तथा उनसे अपनी गाथा रामचरितमानस जैंसा लिखवाने का दवाब बनाया परंतु असफल हुआ। धूर्त अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास जी को बंदी बना लिया,जहाँ उन्होंने हनुमान चालीसा की रचना की।
 
गोस्वामी तुलसीदास के समकालिक लिखते हैं कि हनुमान चालीसा के पाठ करते हुए हनुमान जी का स्मरण किया। फलस्वरूप वानरों के समूह का आक्रमण हुआ और जनविद्रोह की स्थिति निर्मित हो गई। अतः अकबर को गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ना पड़ा। इस स्व की विजय हुई और गोस्वामी तुलसीदास की कालजयी रचना रामचरितमानस स्व के विजय की प्रतीक बनी।
 
टोडरमल,गोस्वामी तुलसीदास जी के परम मित्र एवं अनुयायी भी थे, इसलिए अकबर ने पुनः प्रयास किया, तब गोस्वामी तुलसीदास ने टोडरमल को मित्र धर्म की परिभाषा इस प्रकार समझाते हुए जाने से मना कर दिया। गोस्वामी तुलसीदास ने किष्किन्धाकांड से उद्धृत करते हुए टोडरमल से कहा, सच्चे और कुटिल मित्र की पहचान होना अतिआवश्यक है। भगवान श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव को सन्मित्र के गुण-धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि :-
 
" जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी।
 तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुःख गिरी सम रज करी जाना।मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥"
 
भावार्थ : जो लोग मित्र के दुःख से दु:खी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है | अपने पर्वत के समान विकराल दुःख को धूल के कण के समान छोटा और मित्र के धूल के कण के समान तुच्छ दुःख को भी सुमेरु पर्वत के समान बड़ा मानता है वास्तव में वही सच्चा मित्र होता है।
 
"जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारी सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥"
 
भावार्थ : जो लोग स्वभाव से ही मन्दबुद्धि और मूर्ख होते हैं, ऐसे लोगों को आगे बढ़कर कभी किसी से मित्रता नहीं करनी चाहिए। एक अच्छा मित्र होने के लिए एक बुद्धिमान और विवेकशील मनुष्य होना भी आवश्यक है । इसका तात्पर्य यह है कि एक सच्चे मित्र का धर्म है कि वह अपने मित्र को अनुचित और अनैतिक कार्य करने से रोके, साथ ही उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। उसके सद्गुण प्रगट करे और अवगुणों को छिपाये।
 
"देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुण नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥"
 
भावार्थ : किसी मनुष्य के पास अपरिमित धन-संपदा हो परन्तु, यदि वह आवश्यकता के समय अपने मित्र के काम ना आए तो सब व्यर्थ है। इसलिए अपनी क्षमतानुसार बुरे समय में अपने मित्र की सहायता करनी चाहिए। एक अच्छे और सच्चे मित्र की यही पहचान है कि वह दुःख और विपत्ति के समय अपने मित्र की समुचित सहायता के लिए सदैव तत्पर रहे। वेदों और शास्त्रों में कहा भी गया है कि विपत्ति के समय और अधिक स्नेह करने वाला ही सच्चा मित्र होता है।
 
"आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटलाई॥
जा कर चित अहि गति सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई॥"
 
भावार्थ : वो मित्र जो प्रत्यक्ष में तो बनावटी मधुर वचन कहता है और परोक्ष में बुराई करता है, जिसका मन साँप की चाल के समान बक्री हो अर्थात् जो आपके प्रति मन में कुटिल विचार और दुर्भावना रखता हो, हे भाई ! ऐसे कुमित्र का परित्याग करना ही श्रेयस्कर कर है।
 
ईश्वर से प्रार्थना है कि हमारी मित्रता अक्षुण्ण बनी रहे।
 
टोडरमल शरणागत होकर गोस्वामी तुलसीदास के पैरों गिरकर क्षमा मांगी। टोडरमल की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति के विवाद को गोस्वामी तुलसीदास ने निपटाया था। विन्सेंट स्मिथ लिखता है कि अकबर के काल में अकबर से भी महान् एक व्यक्ति हुआ है वह गोस्वामी तुलसीदास है, क्योंकि अकबर ने युद्धों के कारण विजय प्राप्त की परंतु उस से ज्यादा विजय गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचनाओं से विजय प्राप्त की। (मूल स्रोत - भक्तमाल - श्रीयुत नाभादास, गौतम चंद्रिका- श्रीयुत कृष्ण दत्त, मूल गोसाईं चरित - श्रीयुत वेणी माधव और मानस के हंस - श्रीयुत अमृत लाल नागर) - अंत में "सो सब प्रताप रघुराई, नाथ न कछू मोरि प्रभुताई। "सियाराम मय सब जग जानी.. करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी"