खोए हुए शेर की तलाश मांगता है देश, एक बार फिर से सुभाष मांगता है देश

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    18-Aug-2022
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सुभास चन्द्र बोस
 
दीपक विश्वकर्मा-
 
इन तीनों में बड़ी ही समानताएं और समन्वय था। एक को गुमनामी मिली तो शेष 2 को बदनामी मिली। चूंकि तीनों का प्राथमिक लक्ष्य और उसको पाने के तरीके लगभग समान से ही थे। बल्कि जब आप करीब से देखेंगे तो संभव है कि आप महसूस करेंगे कि तीनों एक ही प्लान पर कार्यरत थे और सब अपनी अपनी भूमिका विभिन्न तरह से निभा रहे थे।
 
तीनों ने निर्बलता को त्यागकर संगठन भाव और समाज बल से स्वतंत्रता प्राप्ति की राह चुनी।
 
यहां समन्वय की बात कैसे आई तो पहला की लगभग तीनों समाज के सैन्यीकरण करके स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कार्यरत थे।
 
संघ जहां इसके लिए प्राथमिक मैदान तैयार कर रहा था। चूंकि संघ समाज के हर वर्ग से जुड़कर उसे अपनी शाखा के माध्यम से निर्बलता से संगठन और सबलता की ओर उन्मुख कर रहा था।
 
सरल शब्दों में कहें तो संघ तत्कालीन आम समाज का सैन्यीकरण करने की पहली सीढ़ी बना हुआ था। उसे लाठी, त्रिशूल, तलवार, फरसे इत्यादि का आत्मरक्षार्थ प्रशिक्षण देना आदि। तो वहीं सावरकर जी इसी योजना को और विस्तार देते हुए बहुसंख्यक समाज के युवाओं को और अच्छा आग्नेय शस्त्रों के प्रशिक्षण के लिए उसे ब्रिटिश भारतीय सेना में सम्मिलित करने के लिए प्रयत्नशील थे। क्योंकि संघ की शाखा से आम युवा लाठी, तलवार तो सीख आता था, जिससे उसकी मानसिक निर्बलता दूर हो जाती थी।
 
लेकिन तब तक समय बंदूकों और मशीनगनों का आ चुका था, और लाठी, तलवारों से अंग्रेजी बंदूकों का सामना नहीं किया जा सकता था, इसलिए सावरकर जी हिन्दू युवाओं को बंदूक, मशीनगन, बम इत्यादि के प्रशिक्षण के लिए उसे ब्रिटिश सेना में सम्मिलित होकर प्रक्षिक्षण प्राप्त करवाने के लिए प्रयत्नरत थे।
 
संभवतः इन 2 चरणों के बाद अगले चरण की जिम्मेदारी सुभाष बाबू की होती थी। ब्रिटिश सेना में प्रशिक्षण प्राप्त भारतीय सैनिकों का मन बदलना, उन्हें आत्म गौरव की पुनः अनुभूति कराना, और स्वतंत्रता के लिए विद्रोह कराने का कार्य सुभाष बाबू के हिस्से था।
 
सुभाष बाबू सावरकर जी से भी मिल चुके थे, जिसमें उनकी कुछ योजनाओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा भी हुई, उसी चर्चा में सावरकर जी ने उन्हें अपने द्वारा हिन्दू युवाओं को ब्रिटिश सेना के लिए प्रोत्साहित करने का कारण बताया था। इसी बात को लेकर वामपंथी अक्सर नमक मिर्च लगाकर उन्हें ब्रिटिश एजेंट तक घोषित करने का प्रयास करते हैं।
 
मेरा यह आंकलन कुछ घटित हुई घटनाओं पर आधारित है, जिसमें सबसे पहले संघ में सुनने में आता है कि सुभाष बाबू संघ संस्थापक पूज्य डॉक्टर साहब से भेंट करने नागपुर गए थे लेकिन उस रोज दुर्भाग्य से वह भेंट सम्पन्न न हो सकी। लेकिन सुभाष बाबू इसी मंतव्य से पहुंचे थे की संघ उन्हें स्वयंसेवको की सहायता करेगा। निःसंदेह डॉक्टर साहब से वह भेंट न हो सकी लेकिन द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने इस कार्य को आगे बढ़ाया।
 
इस बात की पुष्टि मैं उस पत्र के आधार पर करने का प्रयास करता हूँ. जो कुछ साल पहले केंद्र सरकार द्वारा सुभाष बाबू के जारी किए गए कुछ दस्तावेजों में शामिल है।
 
यह पत्र आज भी अयोध्या के एक म्यूजियम में है। लेकिन यहां एक पेंच यह भी है कि वह पत्र श्रीगुरुजी ने कथित गुमनामी बाबा को लिखा था।
 
वहीं गुमनामी बाबा जिनके विषय में कई शंकाएं व्यक्त की जाती हैं कि वह सुभाष बाबू ही थे। जो कि कई वैश्विक प्रतिकूल समीकरणों के चलते वहां अपनी पहचान बदलकर रहे।
 
इस पत्र में श्रीगुरुजी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए लिखा है कि पूज्यवर आपको प्रणाम...आपका आदेशित किया हुआ कार्य आशानुरूप जारी है।
 
यह सोचने वाला विषय है कि एक ऐसे संगठन का मुखिया जिसके पास लाखों लाख कार्यकर्ताओं की सेना हो वह किसी अज्ञात और गुमनाम व्यक्ति से भला क्यों कोई आदेश लेगा..???
 
और जब आप श्री गुरुजी की विराटता समझते हैं तो आपको उस अज्ञात व्यक्तित्व की विराटता का भी अनुमान लगाना चाहिए।
 
संभवतः संघ, सुभाष और सावरकर जी के इस त्रिकोणीय योजना में संघ जहां मैदानी कार्य कर रहा था, तो सावरकर जी ने उसके बौद्धिक मानस का जिम्मा उठाया वहीं सुभाष बाबू तो स्वयं सिद्द श्रेष्ठ सेनापति थे ही।
 
संभवतः इसीलिए इन तीनो को क्रमशः ठिकाने लगाने का कार्य किया गया. पहले सुभाष बाबू को गुमनामी के अंधेरे में धकेला गया, फिर बापू ही हत्या की आड़ लेकर संघ का दमन किया गया और फिर सावरकर जी को कथित माफीनामे को लेकर देशद्रोही तक घोषित करवाने का निकृष्ट प्रयत्न किया गया।
 
लेकिन सत्य का सूर्य कब किसी ग्रहण से रुका है, एक न एक दिन उसका उदय होना ही होता है। और आज यह तीनों सूर्य विश्व गगन में चमचमा रहे हैं।
 
बस एक ही कसक बाकी है कि केंद्र सरकार अबिलम्ब सुभाष बाबू के बाकी दस्तावेज सार्वजनिक करे।
 
खोए हुए शेर की तलाश मांगता है देश।
 एक बार फिर से सुभाष मांगता है देश।