भगवा धवज को ही गुरू क्यों 3

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    12-Jul-2022
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गुरुपूर्णिमा के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में स्वयंसेवक उत्साह के साथ पहुँचते हैं। शाखा में पहुंचकर स्वयंसेवक ध्वज-पूजन करते हैं, संघ के स्वयंसेवक ध्वज को ही गुरु मानते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि संघ में भगवा को ही गुरु क्यों मना जाता है
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं। जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें; क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था। इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज (केसरिया झंडा) को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया।
 
हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत् पूजन करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरुपूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
 
अपनी स्थापना के तीन साल बाद संघ ने सन् 1928 में पहली बार गुरुपूजा का आयोजन किया था। तब से यह परंपरा अबाध रूप से जारी है और भगवा ध्वज का स्थान संघ में सर्वोच्च बना हुआ है। ध्वज की प्रतिष्ठा सरसंघचालक (संघ प्रमुख) से भी ऊपर है।
 
केसरिया झंडे को ही संघ ने सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है। भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है। भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं है। इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है। जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से विचार करने का विषय है। संघ के अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने इस रोचक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एच.वी. शेषाद्रि के अनुसार, “ भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने इस ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरु के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।''
 
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP), भारतीय मजदूर संघ (BMS), वनवासी कल्याण आश्रम (VKA), भारतीय किसान संघ (BKS) और विश्व हिंदू परिषद् (VHP) जैसे कई संगठनों ने इस भगवा ध्वज को अपना लिया। इस तरह देश भर में संघ की शाखाओं में तो विशिष्ट आकार के भगवा ध्वज प्रतिदिन फहराए जाते ही रहे हैं, संघ से प्रेरित-प्रवर्तित कई संगठन भी अपने सार्वजनिक समारोहों में केसरिया झंडे का प्रयोग विगत कई दशकों से करते आ रहे हैं। यह भगवा रंग राष्ट्रीय प्रतीक रूप में भारत के करोड़ों लोगों के मन में विशिष्ट स्थान बना चुका है।
 
शेषाद्रि इस बात की भी चर्चा करते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बाहर मजदूरों के बीच काम करते हुए केसरिया झंडे के नेतृत्व को आम स्वीकृति दिलाना कितना चुनौतीपूर्ण था; क्योंकि इस क्षेत्र में लंबे समय से दुनिया भर में सक्रिय साम्यवादी आंदोलन और उसके लाल झंडे का खासा प्रभाव था। भारतीय मजदूर संघ ने मजदूरों के बीच भी उस केसरिया झंडे को स्वीकृति दिलाई, जो विश्व-कल्याण का प्रतीक है। कई वर्षों के संघर्ष के बाद अब श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ अपने विभिन्न कार्यक्रमों में केसरिया झंडे को शान के साथ फहराने की स्थिति में आ गया है। मार्च 1981 में भारतीय मजदूर संघ ने अपने छठे राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब साम्यवादी प्रभाववाले महानगर कलकत्ता की सड़कों पर विशाल जुलूस निकाला था, तब लोग हजारों हाथों में परंपरागत लाल झंडे की जगह केसरिया झंडे देखकर आश्चर्यचकित रह गए थे। कलकत्ता के प्रमुख अखबारों ने उस समय मजदूरों के बीच उभरी इस नई केसरिया ताकत को महसूस किया था।
 
संघ के महाराष्ट्र प्रांत कार्यवाह एन.एच. पालकर ने भगवा ध्वज पर एक रोचक पुस्तक लिखी है। मूलत: मराठी में लिखी यह पुस्तक सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी। बाद में इसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ। 76 पृष्ठों की इस पुस्तक के अनुसार, सनातन धर्म में वैदिक काल से ही भगवा ध्वज फहराने की परंपरा मिलती हैं।
 
पालकर के अनुसार, "वैदिक साहित्य में 'अरुणकेतु' के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज को हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा प्राप्त रही। यह ध्वज हिंदुओं को हर काल में विदेशी आक्रमणों से लड़ने और विजयी होने की प्रेरणा देता रहा है। इसका सुविचारित उपयोग हिंदुओं में राष्ट्ररक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत् करने के लिए होता रहा है।”
 
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