विवेक कुमार पाठक-
बिना प्रचार और विज्ञापन पर बड़ा बजट खर्च करके भी कश्मीर फाइल्स देखने के लिए पूरा देश उमड़ रहा है। विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म को देखने के लिए देश भर से लोग मनोरंजन नहीं संवेदनाओं और सहानुभूति के साथ सिनेमाघरों में जा रहे हैं। फिल्म देखकर आने वाले सिर्फ एक बात कह रहे हैं कि पहली पर इतनी हिम्मत के साथ छिपाया गया कड़वा सच दिखाया गया है। फिल्म में उस सच को अब तक छिपाने वाले कथित प्रगतिशील सेकुलर और देश भर में समय समय पर मनमाफिक नेरेटिव चलाने वालों पर भी प्रहार किया गया है। मित्रों आखिर कश्मीर फाइल्स के लिए इस तरह उमड़ते देश का क्या मतलब समझा जाए।
सबसे पहले तो एक बात कि दुनिया के इतिहास में यह विरले उदाहरण होगा जहां बहुसंख्यकों पर उनके ही देश में इस तरह बर्बर और पाशविक व्यवहार किया गया हो। धर्मनिरपेक्ष भारत में जहां अल्लाह हू अकबर के नारे हिंसक नरसंहार के लिए बुलंद होते रहे मगर 400 से अधिक सीट पाने वाले विशाल बहुमत की राजीव गांधी सरकार उस आग को सुलगते देखते रही।
कैसे सत्ता के खेल में कश्मीरी हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए समय रहते इंतजाम नहीं किए गए। कैसे इस्लामिक चरमपंथियों की दहशत को समय रहते सेना की ताकत से कुचला नहीं गया।
कश्मीर फाइल्स फिल्म के लिए चौतरफा जनसमर्थन के बाबजूद कुछ तथाकथित सेकुलर लोग इसे एक एजेंडा फिल्म बता रहे हैं। इनमें से अधिकांश का ये तर्क है कि 19 जनवरी 1990 को तब केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार थी जिसे 85 सीट वाली भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दे रखा था। चूंकि सेना केन्द्र सरकार के हाथ में थी। भाजपा के समर्थन से ही उस समय में कश्मीरी मुस्लिम देश के गृह मंत्री थे इसलिए अपनी जिम्मेदारी से भाजपा भी बच नहीं सकती। आखिर बिगड़ते हालातों के बीच केन्द्र से भेजे राज्यपाल जगमोहन ने क्या किया। इन सारे सवालों में से सबसे अंत के सवाल का तो सीधा जवाब यही है कि जगमोहन के आने के बाद ही शेष कश्मीरी हिन्दुओं को जान बचाने का मौका मिल सका।
जिस कश्मीर में हिन्दुओं को आरी से चीरकर अलग किया जा रहा हो, जहां महिलाओं के साथ वीभत्स बलात्कार कर उनकी हत्याएं की जा रही हो, जहां मासूम बच्चों को गोली मारी जा रही हो, जहां इस्लाम के नाम पर खून की होली खेली जा रही हो, जहां राज्य सरकार ने कानून और व्यवस्था के नाम पर आंख बंद कर रखी हो, जहां इस्लामी चरमपंथियों को पुलिस में भर्ती करके कानून और व्यवस्था की जासूसी आतंकवादियों को कराई जा रही हो, जहां सीआरपीएफ की रणनीतियों को राज्य पुलिस के मुस्लिम कर्मचारी ध्वस्त कर रहे हों वहां एक दिन में जगमोहन कितने कश्मीरी पंडितो के घरों पर पुलिस का पहरा लगवा पाते। कितने कश्मीरी हिन्दुओं को पड़ोसी आतंकवाद समर्थकों से बचा पाते।
नि:संदेह कानून व्यवस्था की इमारत न एक दिन में ध्वस्त होती है और न एक दिन में खड़ी की जा सकती है। तब कश्मीरी हिन्दुओं की जान बचाना ही जगमोहन का पहला कर्तव्य था जो उन्होंने 20 जनवरी के बाद तात्कालिक रुप से किया। उन्होंने बर्बरता के कारण आत्मा तक हिल चुके कश्मीरी हिन्दुओं को जम्मू के अस्थायी शिविरों तक सुरक्षित पहुंचाने का इंतजाम कराया और कानून एवं व्यवस्था के लिए वे समानांतर रुप से उस सेकुलरवाद के दौर में जो कर सकते थे करते रहे।
सवाल उठता है कि एजेंडावादी सेकुलर अपने विरोध में एक बात क्यों छिपा रहे हैं कि वी पी सिंह की सरकार को उन कम्युनिस्टों को खास समर्थन था जो जेएनयू में बैठकर कश्मीर के भारत पर हक के खिलाफ दुनिया भर के विरोधियों की तरह बोलते हैं, जिन्हें कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है जैसा वाक्य किसी गाली की तरह लगता है, जो कश्मीर में सेना के सर्च ऑपरेशन को मानवता पर हमले की तरह पेश करते हैं।
जिन्होंने कश्मीर में मस्जिदों से अल्लाह हू के नारों के साथ निकले हिंसक जुलूसों को लेकर हमेशा अपनी आंख और कान बंद रखे हों। देश इस बात का गवाह है कि उस दौर में सत्ता के मद में कांग्रेस ने कश्मीर, पंजाब से लेकर तमिलानाडु तक कभी भी हिंसक संघर्ष और आतंकवाद का समय रहते हल नहीं किया। शेख अब्दुल्ला के साथ दोस्ती निभाते निभाते फारुक अब्दुला के दौर तक देश ने नेहरु की विरासत का परिणाम खूब देख लिया है। धारा 370 का दंश 1990 में खून से लाल हुए कश्मीर ने भोगा। कश्मीर फाइल्स ने उसी लाल सच को सामने लाकर समूचे देश की आंखें खोलने का काम किया है।