अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भारतीय वैदिक दृष्टि से

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    08-Mar-2022
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वैदिक महिला
 
अचला शर्मा ऋषिश्वर-
 
वैदिक साहित्य विश्व का प्रथम उपलब्ध साहित्य है। वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान, ज्ञान का विषय या ज्ञान प्राप्त करने का साधन। यास्काचार्य के अनुसार प्राचीन काल में प्राचीन ऋषियों को वेदों से परिचित कराया गया था, अर्थात वे वेदों को देखकर उनके प्रति जागरूक हो गए थे। ऋषि मन्त्रों के द्रष्टा हैं, कर्ता नहीं। इसलिए निरुक्त में ऋषि शब्द का अर्थ 'ऋषिदर्शनत' होता है। ऐसे ऋषियों में स्त्री और साधु भी गिने जाते हैं।
 
वेदों के समय से महिलाओं द्वारा लिखे गए लेख यद्यपि कम मात्रा में उपलब्ध हैं किंतु विश्व के किसी अन्य देश में स्त्रैण बौद्धिकता का इतना प्राचीन उदाहरण नहीं है। बृहद्देवता पुस्तक में 27 महिला संतों का उल्लेख है, लेकिन निश्चित रूप से उनमें से सभी वास्तविक महिलाएं नहीं हैं । रात्रि उषा सूर्या , वाक नाड़ी, सरस्वती प्रकृति की महिलाएं हैं। अदिति, इंद्राणी, उर्वशी या यामी कुछ पौराणिक महिलाएं हैं, जबकि अपाला, घोषा, रोमशा, लोपामुद्रा, शास्वती ऋषि हैं।
 
जिस प्रकार वेदों में पुरुष मुनियों ने अपने श्लोकों के माध्यम से अपनी मानवीय इच्छाओं, आकांक्षाओं, व्यावहारिक अपेक्षाओं को व्यापक अर्थ में व्यक्त किया है, उसी प्रकार ऋषिकाओं ने भी अपनी अपेक्षाएं व्यक्त की हैं। उन्हें बस एक अच्छा जीवनसाथी, जो मानसिक,सामाजिक स्तर पर उन्हें अच्छा अनुभव कराए उसकी कामना की है।स्त्रियों के ये प्रथम लिखित काव्य/सूक्त भी उनके संवेदनशील बौद्धिक पक्ष की झलक देते हैं। साथ ही ऋषि-मुनियों की रचनाएँ उस समय के पारिवारिक जीवन को प्रतिबिम्बित करती प्रतीत होती हैं।
 
जैसे विश्ववारा यह विवाहित महिला वैवाहिक सुख और सुरक्षित जीवन के लिए अग्नि की प्रार्थना करती है। राजकुमारी घोषा कुष्ठ रोग से पीड़ित है और एक सुयोग्य वर के साथ गृहस्थाश्रम की सफलता के लिए आवश्यक स्वस्थ देह के लिए दिव्य उपचारक अश्विनीकुमार से प्रार्थना करती है। "अभूतम गोपामिथुन शुभस्पति प्रिया आर्यम्नो दुन्र्य आशिमही" वह मांगती है कि उस घर में उसकी प्रशंसा हो, उसके बेटे हों और उसके पास प्रचुर धन हो।
 
दूसरी ओर शाश्वती एक प्रतिष्ठित भारतीय महिला हैं। वह अपने पति को उसके द्वारा किए गए पापों से मुक्त करने का प्रयास करती है, और जब वह पाप से मुक्त हो जाता है और स्वस्थ शरीर प्राप्त करता है, तो वह प्रसन्नता से भर उठती है। ऐसा लगता है कि ऋषियों ने अपने बच्चों और पोते-पोतियों की कामना दोहराई कि वे पराक्रमी और समृद्ध हों।
 
रोमशा, लोपामुद्रा, इंद्राणी, उर्वशी, अपाला, शाश्वती जैसे संतों को उनके द्वारा रचित छंदों में गृहस्थ जीवन के सन्दर्भ में अत्यंत संवेदनापूर्वक बात करते देखा जाता है।धर्म,अर्थ के साथ काम भी जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग है और ये स्त्रियां इस विषय को भी लिखती हैं यही नहीं सम्मानपूर्वक इन सूक्तों को वेदों में रखा गया है ,यह सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है कि वैदिक समाज में स्त्रियों के विषय स्त्रियों द्वारा ही अत्यंत व्यापक,परिमार्जित व शालीनता के साथ रचे गए व मान्य किये गए।
 
अदिति, विश्ववारा, इन्द्रानुषा ऐसी ही ऋषिकाएँ हैं,तो सिक्ता, घोषा आदि ब्रह्मवादिनी स हैं। ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएँ परमात्मा-जीवात्मा, मन-देह की चर्चा करते हैं। विश्वामित्र-नाड़ी, यम-यामी, सरमा-पाणि, पुरुरवा-उर्वशी भी कुछ ऐसे ही संवादों में पाए जाते हैं। इनमें से अधिकांश ऋषि-मुनियों की कविताओं से ऐसा लगता है कि वे एक सुरक्षित घर, एक अच्छे परिवार और आने वाली पीढ़ी की अपेक्षा कर रहे हैं। उनके विचार स्पष्ट हैं। उनका दृष्टिकोण निश्चित है। वेदों में यह प्राचीन स्त्री मातृत्व के वरदान के साथ पत्नी और मां के रूप में उसी रूप में प्रकट होती है।
 
अनंत आल्टेकर और राहुल सांकृत्यायन जैसे कुछ विद्वानों ने संदेह प्रकट किया है कि कई ऋषि काल्पनिक रहे होंगे। इनमें से कुछ ही साधु मानव स्त्रियां थीं। साथ ही कुछ विद्वानों का मत है कि अनेक ऋषियों के बारे में निश्चित रूप से कहना संभव नहीं है।
 
ऋग्वेद के बाद, वैदिक साहित्य के बाद के काल में, कुछ सदियों बाद, उपनिषद साहित्य में ब्रह्मवादिनी महिलाओं का उल्लेख है। धर्मशास्त्री गार्गी इसमें महत्वपूर्ण हैं। दिव्यता क्या है इसकी खोज करने वाली गार्गी वेदाभ्यास में पारंगत है। उनमें वास्तविक याज्ञवल्क्यर्षियों से प्रश्न पूछने का साहस है। वह गहन प्रश्न पूछती है जो ब्रह्मतत्व के सार में गहनता तक जाते हैं और सभी को चकित करते हैं। शास्त्रार्थ में भाग लेने की उनकी क्षमता,साहस जो आत्म-ज्ञान की खोज करती है, सराहनीय है।
 
याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी भी बुद्धिमान हैं। और जब इस प्रश्न का उत्तर नहीं है, तो वह महिमा का त्याग करती है और सीधे कहती है, मुझे बताओ कि अमृत क्या है और मुझे यह भी बताओ कि इसे कैसे प्राप्त किया जाए। महाभारत के शांतिपर्व में दार्शनिक चर्चा में जनक जैसे विद्वान राजा की सभा में, वह पंडितों के समक्ष उनके सभी प्रश्नों का उत्तर देती है और अंत में राजा को पराजित कर देती है।
 
उस तर्क में, वह राजा को विश्वास दिलाती है कि आत्मा का लिंग या वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक बुद्धिमान महिला के दर्शन को अपनाने की क्षमता ऐसी महिलाओं द्वारा रेखांकित की जाती है। शास्त्रीय साहित्य के काल में भी कुछ स्त्रियों द्वारा संस्कृत कविता की गौरवपूर्ण परम्परा को आगे बढ़ाया गया है।
 
स्त्रियों द्वारा रचित काव्य/सूक्त ऋग्वेद के समय से ही उपलब्ध हैं।प्राचीन काल से भारत में महिलाओं को शिक्षित किया जा रहा था क्योंकि गार्गी और इनके समान अनेकानेक असाधारण बुद्धि की ब्रह्मवादिनी,ऋषिकाओं के उदाहरण हमें प्राप्त है। सहज ही ध्यान में आता है कि विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में अर्थात भारतीय वैदिक समय से ही स्त्रियों को प्रत्येक क्षेत्र में सम्पूरक व महत्वपूर्ण मान्यता प्राप्त हुई है।
 
यद्यपि लेख केवल ऋषिकाओं /स्त्रियों की बौद्धिक क्षमताओं के सम्बंध में है परन्तु उसका वर्णन व स्त्रियों से की गई अपेक्षाओं में वह एक योद्धा, कृषक,सुघड़ गृहिणी व समस्त प्रकार से समाज को सुख के साथ सुरक्षा देने वाली भी है।
 
इन उदाहरणों के साथ तथाकथित पश्चिमप्रेरित आधुनिक महिला दिवस की तुलना करना अर्थात सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही है। कहां शास्त्रार्थ करके सुयोग्य वर का चयन करतीं भारतीय स्त्रियां और कहां मतदान के अधिकार को संघर्ष करतीं पश्चिम जगत की श्रमिक स्त्रियां?
 
विडम्बना भी यही है कि कराग्रे वसते लक्ष्मी के साथ प्रत्येक दिवस प्रारम्भ करके,त्रिकाल संध्या में गायत्री इत्यादि देवियों की स्तुति कर रात्रि में ऋषिका निशा के सूक्त के साथ शयन को जाने वाला भारतीय समाज आधुनिकता के अंधानुकरण में वर्ष का एक दिवस स्त्री को समर्पित करना चाहता है । स्त्री से देवी की यात्रा की अवधारणा विश्व को देने वाला भारतीय समाज देवी से स्त्री की ओर यात्रा को उद्यत है।