गोपाल राव येवतीकर जी का सम्पूर्ण जीवन रहा राष्ट्रकार्य को समर्पित

03 Dec 2022 15:48:32

gopal ji

उज्जैन. विगत दिवस बुधवार को वरिष्ठ प्रचारक गोपाल जी येवतीकर का देहावसान हो गया. प्रातः के समय उज्जैन के संघ कार्यालय आराधना में उन्होंने अन्तिम श्वास ली. उन्होंने अन्तिम श्वास ली. 4 अक्टूबर 1937 में इंदौर में जन्में स्वर्गीय गोपाल जी बचपन से ही स्वयंसेवक रहे. इंदौर में वह प्रचारक बने. संघ में प्रचारक के रूप में आप भोपाल, नर्मदापुरम में विभाग प्रचारक रहे. उन्होंने विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम और सिख संगत आदि संगठनों में कार्य किया. वह मध्यभारत प्रान्त के अनेक स्थानों पर जिला व विभाग प्रचारक के रूप में संघ कार्य संभाला.
 
जीवन के अन्तिम समय तक वे कल्याण आश्रम के माध्यम से जनजाति समाज के उत्थान व गौसेवा के कार्य एवं समर्थ रामदास के साहित्य के माध्यम से अध्यात्म के प्रचार में ही बीता. उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रकार्य को समर्पित रहा.
 
वर्ष 1984 के समय जब खालिस्तानी अलगाववाद का कठिन समय चल रहा था, उस समय संघ की योजना के अनुसार उन्हें पंजाब भेजा गया, जहां वह सिख संगत के संगठन मंत्री रहे. उन्होंने परिस्थितियों में सामाजिक सद्भाव बनाने के लिए वहाँ पर बहुत कार्य किया.
 
यह था किस्सा-आज जब संघ में कार्यकर्ताओं के दायित्व व क्षेत्र परिवर्तन की बात आती है तो उनसे वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा चर्चा की जाती है. किन्तु गोपाल जी के क्षेत्र व स्थान परिवर्तन का घटनाक्रम स्वर्गीय बाबा साहब नातु (तत्कालीन मध्यभारत प्रान्त प्रचारक) ने एक बार सहज चर्चा में बताया था. नब्बे के दशक में पंजाब प्रान्त में आतंकवाद चरम पर था. उसी समय हर प्रान्त से एक प्रचारक पंजाब भेजने का निश्चित हुआ. एक दिन बाबा साहब ने गोपाल जी को बुलाकर कहा कि "गोपाल राव ! रात को सपने में गुरु गोविन्दसिंह आये थे. वे तुम्हें पंजाब बुला रहे हैं".
 
बाबा साहब ने बताया कि गोपाल जी ने एक क्षण की देरी किये बिना कहा कि "कब जाना है बाबा साहब ! बताइये ". और गोपाल जी ने प्रान्त प्रचारक की इच्छा को आज्ञा मानकर पंजाब में एक दशक तक विपरीत परिस्थितियों में संघ कार्य किया.

सबके दुःख दर्द स्वयं तक लेने वाले थे गोपाल जी- संघ में एक गीत गाया जाता है " मन मस्त फकीरी धारी है, बस एक ही धुन जय-जय भारत". गोपाल जी गीत की इस पंक्ति के पर्याय थे. अपने देश और समाज को समर्पित एकदम फक्कड़ जीवन उनका रहा. सात-आठ वर्ष पूर्व सहज चर्चा में उन्होंने कहा था कि "लोग पूछते हैं कि आजकल आप क्या कर रहे हैं ? तो मैं कहता हूँ हिलते-डुलते बर्तन को हाथ लगाने का काम कर रहा हूँ". उन्होंने इसका आशय भी समझाया कि जो कार्यकर्ता किसी कारण से नाराज हो जाता है, मैं उससे मिलकर उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसके दुःख दर्द सुनता हूँ". अध्यात्म में ऐसा कहा जाता है कि अपने प्रियजनों के दुःख-दर्द भी कोई ग्रहण कर सकता है. ऐसे कितने ही कार्यकर्ताओं का दुःख-दर्द स्वयं लेने वाले गोपाल जी के शरीर में अब शायद ओर दर्द लेने का सामर्थ्य नहीं रहा। परमपिता परमेश्वर उन्हें अपने लोक में स्थान दें.

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