कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार की घटनाओं का सच ‘द कश्मीर फाइल्स’; 6 घटनाएं एवं तथ्य

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    01-Dec-2022
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विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने जिस बेबाकी, स्पष्टता व संवेदनशीलता से 1990 के दशक में कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार को प्रदर्शित किया, और जिस तरह फिल्म ने आम जनमानस के मन को उद्वेलित किया, जाहिर है इससे इस्लामिक आतंकियों व अलगाववादियों के प्रोपेगैंडा को हवा देने वाले वामपंथी, कथित लिबरल, एक्टिविस्ट गैंग बेहद आहत हैं. ये गैंग हर स्तर पर फिल्म की कहानियों के सच को नकारने और झूठा साबित करने की साजिश में जुटा है.
 
गोवा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मंच से एक बार फिर ऐसी ही कोशिश हुई, जब इस फेस्टिवल के ज्यूरी हेड, वामपंथी फिल्मकार ‘नेदेव लेपिड’ ने फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित ‘द कश्मीर फाइल्स’ को प्रोपेगैंडा करार दिया. इसके तुरंत बाद फिर जिस तरीके से देश के वामपंथी-लिबरल-एक्टिविस्ट गैंग ने इस बयान का सहारा लेकर सोशल मीडिया पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ को निशाना बनाया, वो निश्चित तौर पर एक ‘Well planned Toolkit’ स्क्रिप्ट का परिणाम दिखाई देता है.
 
सवाल यह कि क्या इस फिल्म में कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार का जो सींक्वेंस अथवा जो कहानी बुनी गयी है वो सच्ची घटनाओं पर आधारित है अथवा एक फिक्शन ड्रामा? तो जवाब है कि 1990 के दशक में कश्मीरी हिन्दुओं पर हमले, नरसंहार, व निष्कासन की सच्ची घटनाओं को बिना किसी लागलपेट अथवा बिना तोड़े-मरोड़े एक सूत्र में पिरोकर तैयार की गयी कहानी है.
 
कश्मीर हिन्दुओं के नरसंहार की 6 ऐसी दर्दनाक घटनाओं का सच व तथ्य आपको बताते हैं, जो सींक्वेंस इस फिल्म में मुख्यत: दिखाए गए हैं…. 
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टेलीकॉम इंजीनियर बी.के. गंजू
 
फिल्म में किरदार शारदा पंडित के पति और पुष्कर नाथ पंडित के बेटे के किरदार के जरिये टेलीकॉम इंजीनियर बी.के. गंजू की नृशंस हत्या को दर्शाया गया है.
 
1990 में 30 वर्षीय बी.के. गंजू श्रीनगर के छोटा बाजार में रहते थे. केंद्र सरकार का कर्मचारी होने के कारण आतंकियों की नजर लगातार बी.के. गंजू पर थी. 22 मार्च, 1990 को बी.के. गंजू जब छिपते-छिपाते ऑफिस से घर पहुंचे, तो आतंकी भी उनका पीछा करते हुए घर तक आ धमके. गंजू की पत्नी ने आतंकियों को भांप लिया और पति के घर में घुसते ही तुरंत दरवाजा बंद कर लिया. लेकिन आतंकी भी दरवाजा तोड़कर घर के अंदर आ घुसे, इससे पहले ही बी.के. गंजू घर के तीसरे फ्लोर पर रखी चावल की टंकी में छिप गये. आतंकियों ने गंजू को ढूंढने के लिए पूरे घर को तहस-नहस कर दिया, लेकिन वो नहीं मिले.
 
आतंकी जब निराश होकर निकल ही रहे थे, तो मुस्लिम पड़ोसी ने इशारा कर बता दिया कि बी.के. गंजू चावल की टंकी में छिपे हैं. इसके बाद आतंकियों ने गंजू को टंकी से ढूंढ निकाला और मारपीट के बाद अंधाधुंध गोली चलाकर नृशंस हत्या कर दी. इसके बाद भी इस्लामिक आतंकी यहीं पर नहीं रूके, उन्होंने बी.के. गंजू के खून में सने चावल को उनकी पत्नी को खाने को मजबूर किया.
 
जस्टिस नीलकंठ गंजू की कहानी कश्मीर में नृशंस नरसंहार को दर्शाने के लिए जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या को भी ‘द कश्मीर फाइल्स फिल्म’ में प्रदर्शित किया गया है.
 
14 सितंबर, 1989 को आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ता व कश्मीरी हिन्दुओं के सबसे बड़े नेता पंडित टीकालाल टपलू की हत्या के मात्र 7 सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी थी. जस्टिस नीलकंठ गंजू – जिन्होंने आतंकी संगठन ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ यानि JKLF के संस्थापक मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी, 1989 में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के जज बन चुके थे. 4 नवंबर, 1989 को जस्टिस गंजू दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही घात लगाये बैठे आतंकियों ने नजदीक से कई गोलियां मारकर जस्टिस गंजू के शरीर को छलनी कर दिया.
 
इसके बाद आतंकियों ने घोषणा की कि उन्होंने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया है, हिन्दुओं में दहशत भरने के लिए मस्जिदों से नारे लगाये गये कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में’.
 
स्पष्ट था कि अलगाववादियों के अंदर अब भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था. इसी घटना के बाद कश्मीर में हिन्दुओं के नरसंहार का वो अंतहीन दौर शुरु हुआ, जो 3 दशक बाद भी जारी है. कई वर्षों बाद जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के यासीन मलिक ने भी एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि उन्होंने ही जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की थी.
 
एयरफोर्स अधिकारियों की हत्या’ द कश्मीर फाइल्स में एक सीक्वेंस में दिखाया गया है कि आतंकी कैसे एक बस स्टैंड पर खड़े एयरफ़ोर्स अधिकारियों की अंधाधुंध गोलियां चलाकर नृशंस हत्या करते हैं. ये भी एक सत्य घटना का ही रूपातरंण है.
 
ये घटना 25 जनवरी, 1990 की है, जब बड़गाम में सुबह साढ़े 7 बजे बस-स्टॉप पर एयरफोर्स के 14 अधिकारी अपनी बस का इंतजार कर रहे थे. जिन्हें पास ही के बड़गाम एयर बेस पर जाना था. बस स्टॉप पर सिविलियन भी मौजूद थे, वो भी बस के इंतजार में थे. तभी एक जिप्सी और मोटरसाइकिल पर यासीन मलिक सहित आतंकी बस स्टॉप पर आकर रूके और एयरफोर्स अधिकारियों पर एके-47 और पिस्टल से अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं.
 
इस फायरिंग में एयरफोर्स के तमाम अधिकारी सड़क पर घायल होकर गिर पड़े. गोलीबारी कर आतंकी फरार हो गये. फायरिंग में 4 अधिकारी मौके पर ही बलिदान हो गये. जिसमें स्क्वड्रैन लीडर रवि खन्ना, कॉरपोरल डीबी सिंह, कॉरपोरल उदय शंकर और एयरमैन आजाद अहमद शामिल थे. बाकी अधिकारी घायल हो गये थे. फायरिंग में 2 अन्य महिलाएं भी मौके पर ही मारी गयीं, जो वहां बस का इंतजार कर रही थीं.
 
इस घटना में यासीन मलिक और उसके दूसरे साथी आतंकियों पर मामला दर्ज हुआ. लेकिन कभी ट्रायल कोर्ट से आगे नहीं बढ़ा. जिसके बाद इस मामले को दबा दिया गया. यासीन मलिक कश्मीर की गलियों में खुलेआम घूमता रहा. कांग्रेस सरकार के दौरान यासीन मलिक को विदेश जाने, पाकिस्तान जाकर शादी करने की भी छूट दी गयी. लेकिन पुलवामा हमले के बाद मोदी सरकार ने यासीन मलिक के संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट को बैन किया और यासीन मलिक को गिरफ्तार कर तिहाड़ में डाल दिया. जिसके बाद से ही यासीन मलिक पर इस केस में फिर से सुनवाई चल रही है.
 
‘सर्वानंद कौल ‘प्रेमी’ व विरेंद्र कौल की नृशंस हत्या’
 
द कश्मीर फाइल्स में शारदा पंडित व पुष्करनाथ पंडित के घाटी छोड़ने के सीक्वेंस से पहले दिखाया गया है कि कैसे आतंकी एक बुजुर्ग शिक्षाविद् सर्वानंद कौल व उनके बेटे को खींचकर ले जाते हैं और उनकी लाशें पेड़ पर टांग दी जाती हैं. ये कहानी अप्रैल 1990 में सर्वानंद कौल प्रेमी की सत्य घटना पर आधारित है.
 
सर्वानन्द कौल उनमें से थे, जिन्होंने सेकुलरिज्म को अपना धर्म समझा था. सर्वानन्द कौल पर माता रूप भवानी की कृपा थी, जिसने उन्हें कश्मीरी संतों की जीवनी लिखने को प्रेरित किया था. एक कवि, अनुवादक और लेखक के रूप में उनकी ख्याति ऐसी थी कि मशहूर कश्मीरी शायर महजूर ने उन्हें ‘प्रेमी’ उपनाम दिया था. सर्वानन्द ने टैगोर की गीतांजली और गीता का तीन भाषाओं में अनुवाद किया था: हिंदी, उर्दू और कश्मीरी.
 
हिंदी में एमए की डिग्री रखने वाले सर्वानन्द कौल कुल 6 भाषाओं के ज्ञाता थे – संस्कृत, फ़ारसी, हिंदी, अंग्रेजी, कश्मीरी और उर्दू तथा वे अपने पूजा घर में गीता के साथ क़ुरान की एक प्राचीन पाण्डुलिपि भी रखते थे. सर्वानंद कौल प्रेमी चार भाषाओं को पढ़ और लिख सकते थे, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और कश्मीरी है. फारसी और संस्कृत समझने में भी वे सक्षम थे. उनकी प्रकाशित पुस्तकें – कलमी प्रेमी, पयँमी प्रेमी, रूई जेरी, ओश त वुश, गीतांजलि (अनुवाद), रुस्सी पादशाह कथा, पंच छ्दर (काव्य संग्रह), बखती कुसूम, आखरी मुलाकात, माथुर देवी, मिर्जा काक (जीवन और काम), मिर्जा चाचा जी वखस, कश्मीर की बेटी, भगवद गीता (अनुवाद), ताज और रूपा भवानी.
 
29 अप्रैल, 1990 की शाम 3 आतंकी बंदूक लेकर सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’ के घर पहुँचे. उन्होंने कुछ बातचीत की और घर की महिलाओं से उनके गहने इत्यादि मूल्यवान वस्तुएं लाने को कहा. डरी सहमी महिलाओं ने सब कुछ निकाल कर दे दिया. सारे गहने जेवरात और कीमती सामान एक सूटकेस में भरा गया, फिर उन आतंकियों ने सर्वानन्द से उनके साथ चलने को कहा. सर्वानन्द ने सूटकेस उठाया तो वह भारी था. उनके सताईस वर्षीय पुत्र वीरेंदर ने हाथ बंटाना चाहा और सूटकेस उठा लिया. तीनों आतंकी पिता पुत्र को अपने साथ ले गये. सर्वानन्द को विश्वास था कि चूँकि वे अपने पूजा घर में कुरान रखते थे इसलिए अलगाववादी आतंकी उनके साथ कुछ नहीं करेंगे; घरवालों को भी उन्होंने यही भरोसा दिलाया था. लेकिन आतंकी तो मजहबी आग में झुलस रहे थे.
 
अगले दिन यानि 30 अप्रैल, 1990 को पुलिस को उनकी लाशें पेड़ से लटकती हुई मिलीं. सर्वानंद कौल अपने माथे पर भौहों के मध्य जिस स्थान पर तिलक लगाते थे, आतंकियों ने वहाँ कील ठोंक दी थी. पिता-पुत्र को गोलियों से छलनी तो किया ही गया था, इसके अतिरिक्त शरीर की हड्डियाँ तोड़ दी गयी थीं और जगह-जगह उन्हें सिगरेट से दागा गया था. 
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‘गिरिजा टिक्कू के अमानवीय अत्याचार व बेरहम हत्या की कहानी’
 
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में अंत से पहले किरदार शारदा पंडित की आरा मशीन के जरिये निर्मम हत्या को प्रदर्शित किया गया है. ये सीक्वेंस बारामूला जिले की गिरिजा टिक्कू की कहानी से प्रेरित है. असल में गिरिजा टिक्कू के साथ जो हुआ था, वो खौफनाक फिल्म के प्रदर्शित दृश्यों से भी ज्यादा खौफनाक था.
 
जून 1990; तक बड़ी संख्या में कश्मीरी हिन्दू घाटी छोड़कर जम्मू अथवा दिल्ली शिफ्ट हो चुके थे, जो हिन्दू बचे थे… उनको भी घाटी से बाहर निकालने की साजिश जारी थी. गिरिजा कुमारी टिक्कू बारामूला जिले के गांव अरिगाम (वर्तमान में बांदीपोरा जिले) की रहने वाली थी. गिरिजा एक स्कूल में लैब सहायिका के तौर पर कार्यरत थीं. 11 जून, 1990 की सुबह गिरजा टिक्कू अपने घर से अपनी सैलरी लेने स्कूल के लिए निकली. स्कूल पहुंचकर सैलरी लेने के बाद वापस घर लौटते वक्त वो पास में मौजूद अपनी एक मुस्लिम सहकर्मी के घर चली गईं.
 
गिरिजा इस बात से बेखबर थीं कि उनका पीछा किया जा रहा है. गिरिजा टिक्कू पर इस्लामिक जिहादियों की नजर लंबे वक्त से थी. गिरिजा अपने सहकर्मी से मिलने घर पहुंची, उसी वक्त आतंकियों ने गिरिजा को अपहृत कर लिया. गिरिजा टिक्कू का अपहरण गांव में रहने वाले लोगों की नजरों के सामने ही हुआ. पर खौफ का माहौल ऐसा था कि किसी ने भी अपनी आवाज नहीं उठाई.
 
आतंकियों ने गिरिजा टिक्कू को अपहरण करने के बाद गांव से दूर ले जाकर उनके साथ कई दिनों तक सामूहिक दुष्कर्म किया. सिर्फ इतना ही नहीं, उन्हें कई तरह की यातनाएं भी दीं. हैवानियत और बर्बरता की सारी हदों को पार करने के बाद भी जब इन जिहादियों का जी नहीं भरा तो उन्होंने गिरिजा को लकड़ी काटने वाली आरा मशीन के बीच लेटाकर गांव वालों के सामने ही दो अलग-अलग हिस्सों में काट दिया.
 
यह भयावह मंजर वहां खड़े लोग देखते रहे. 1990 के उस दौर में आतंकियों का कश्मीरी हिन्दुओं को सन्देश साफ़ था कि जम्मू कश्मीर में केवल “निज़ाम -ए- मुस्तफा” को मानने वाले लोग ही रह सकते हैं और गिरिजा टिक्कू जैसी एक सामान्य सी अध्यापिका को भी वो ”निजाम -ए- मुस्तफा” के लिए खतरा मानते थे.
 
‘नाड़ीमर्ग नरसंहार’ ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के क्लाइमेक्स सीन में आतंकी एक गांव में लोगों को लाइन में लगाते हैं और गोली मारकर बेकसूर हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार को अंजाम देते है. ये सीक्वेंस 2003 में नाड़ीमर्ग नरसंहार की सत्य घटना से प्रेरित है.
 
शोपियां जिले में नाड़ीमर्ग (अब पुलवामा में) एक हिन्दू बहुल गाँव था, जिसकी कुल आबादी मात्र 54 थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के पैतृक गाँव से 7 किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में 23 मार्च, 2003 की रात सब तबाह हो गया. जब पूरा देश भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की याद में बलिदान दिवस मना रहा था, तब नाड़ीमर्ग में हिन्दुओं का नरसंहार हो रहा था. उस दिन 7 आतंकवादी गाँव में घुसे और सभी हिन्दुओं को चिनार के पेड़ के नीचे इकठ्ठा करने लगे. रात के 10 बजकर 30 मिनट पर इन आतंकियों ने 24 हिन्दुओं की गोली मार कर हत्या कर दी. गौर करने वाली बात थी कि 23 मार्च को पाकिस्तान का राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है.
 
मरने वालों में 70 साल की बुजुर्ग महिला के साथ 2 साल का मासूम बच्चा भी शामिल था. क्रूरता की हद्द पार करते हुए एक दिव्यांग सहित 11 महिलाओं, 11 पुरुषों और 2 बच्चों पर बेहद नजदीक से गोलियां चलाई गई. कुछ रिपोर्ट्स का दावा है कि पॉइंट ब्लेंक रेंज से हिन्दुओं के सिर में गोलियां मारी गयी थी. आतंकी यहीं नहीं रुके उन्होंने घरों को लूटा और महिलाओं के गहने उतरवा लिए. न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार ने इस घटना का जिम्मेदार ‘मुस्लिम आतंकवादियों’ को बताया. अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट ने भी इसे धर्म आधारित नरसंहार माना था.
 
आतंकियों को मदद पड़ोस के मुस्लिम बहुलता वाले गाँवों से मिली थी. उस दौरान जम्मू-कश्मीर पुलिस के इंटेलिजेंस विंग को संभाल रहे कुलदीप खोड़ा भी मानते हैं कि बिना स्थानीय सहायता के नाड़ीमर्ग नरसंहार को अंजाम ही नहीं दिया जा सकता था. नरसंहार के चश्मदीद बताते हैं कि आतंकियों ने हिन्दुओं को उनके नाम से पुकारकर घरों से बाहर निकाला था. यानि वे पहले से ही इस योजना पर काम कर रहे थे. आतंकियों ने गाँव का दौरा किया हो, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता. इस प्रकरण में राज्य सरकार की भूमिका भी संदेह वाली बनी रही. उस इलाके की सुरक्षा में लगी पुलिस को हटा लिया गया था.
 
घटना से पहले वहां 30 सुरक्षाकर्मी तैनात थे, जिनकी संख्या उस रात को घटाकर 5 कर दी गई. अगले ही महीने इस नरसंहार में शामिल एक आतंकी जिया मुस्तफा को गिरफ्तार कर लिया गया.
 
पाकिस्तान के रावलकोट का रहने वाला यह आतंकी लश्कर-ए-तोइबा का एरिया कमांडर था. उसने जांच के दौरान बताया कि लश्कर के अबू उमैर ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था. मुस्तफा के मुताबिक वह उन बैठकों का हिस्सा रहा जहाँ देश भर के हिन्दू मंदिरों पर आतंकी हमले की योजना बनायी गई थी.
 
ये मुख्यत: 6 सत्य-घटनाएं हैं, जिनको फिल्म में पुष्करनाथ पंडित व शारदा पंडित के संघर्ष के सींक्वेस के साथ फिल्म में पिरोया गया है. इन घटनाओं के अलावा फिल्म में 19 जनवरी, 1990 को कश्मीरी हिन्दुओं के निष्कासन, हिन्दुओं को घाटी छोड़ने की धमकी भरे पोस्टर जारी करने, दिल्ली की यूनिवर्सिटी प्रोफेसर व आतंकी-अलगाववाद के गठजोड़ को भी फिल्म में सटीक प्रदर्शित किया गया है. जिनके तथ्य आपको गूगल सर्च करने पर आसानी से उपलब्ध हो जाएंगे.
 
हां, इन घटनाओं के घटित होने के समय अथवा क्रोनोलॉजी पर निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने क्रिएटिव लिबर्टी ली है. जो छूट प्रत्येक सत्य पर आधारित फिल्म को बनाते समय दुनिया का हरेक निर्देशक लेता है. इसके अलावा फिल्म निर्माण में सिनेमैटोग्राफी, एक्टिंग, प्रॉडक्शन क्वालिटी इत्यादि रचनात्मक पहलुओं पर चर्चा या समीक्षा की जा सकती है. इसकी कहानी को प्रोपेगैंडा बताना, सच को नकारना कश्मीरी हिन्दुओं के बलिदान का निर्लज्ज अपमान है.