संस्मरण - श्री गोपालराव येवतीकर

श्री गोपालराव जी येवतीकर का देहावसान

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Nov-2022
Total Views |


gopal ji

 
संघ का प्रारंभिक गणवेश पूरा खाकी था। खाकी नेकर खाकी कमीज खाकी मोजे। किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के समय प्रथकता दिखाने के लिए काली नेकर, सफेद कमीज, सफेद जूते, नीले मोजे संघ का गणवेश बना। १९५३ में गोपाल राव जी का प्रथम वर्ष मल्हारगंज इंदौर से हुआ। स्थानाभाव के कारण आवास, बौद्धिक पंडाल, संघ स्थान सभी एक-एक दो-दो कि.मी. की दूरी पर थे। ग्वालियर से डा. केशव नेवासकर तथा शिवपुरी के सुशील बहादुर अष्ठाना ने भी इसी वर्ष संघ शिक्षा वर्ग किया था। उन दिनों राजा भाऊ पातुरकर प्रांत प्रचारक थे। गोपालराव की मिलिट्री में जाने की इच्छा थी ताकि रिश्वत न लेनी पड़े। पहले माता-पिता की सेवा, फिर देश सेवा, यही दुष्टि थी । इसलिए शाखा जाते रहने के बाद भी संघ के प्रति गंभीरता नही थी ।
 

साथियों के साथ सब्जी खरीदने जाते तो गोपालराव जी कदम मिलाकर चलने का अभ्यास करते। संघ स्थान पर मना किया जाता कि क्रिकेट देखने नही जाना, वह विदेशी खेल है । किन्तु मित्रों के साथ निवास स्थान राजबाड़े से ४ कि.मी. दूर यशवंत क्लब मैदान पर क्रिकेट देखने जाते किन्तु अधिकारी भी कहाँ मानने बाले थे। शाखा समय होने पर वहां भी पहुँच जाते और ढूंढकर पकड़कर शाखा लाते। ये लोग अलग-अलग बैठते, ताकि सब एक साथ पकड़ में ना आयें । ये कितना भी थकाते खिजाते पर वे नहीं मानते । किन्तु पातुरकर जी ने संघ अधिकारियों मुकुंदराव कुलकर्णी तथा प्रभाकर शंकर काले को कह रखा था कि इन पर नजर रखो, ये उपयोगी स्वयंसेवक साबित होंगे ।

 

किन्तु धीरे-धीरे गोपालराव की संघ के प्रति द्रष्टि बदली। गुरूजी के ५१ वें जन्म दिवस पर श्रद्धानिधि देने हेतु ट्यूशन कर धन संग्रह किया। १९५८ में द्वितीय वर्ष करना चाहते थे किन्तु बहिन की शादी के कारण संभव नही हुआ । १९५९ में जबलपुर से द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण हुआ। वहां गुरूजी का बौद्धिक सुना। उन्होंने कहा कि संघ शिक्षा वर्ग में कष्टपूर्ण जीवन की योजना, वस्तुतः स्वयंसेवक को उसकी क्षमताओं का ज्ञान कराने के लिए की जाती है । यहां जो अच्छी आदतें मिली हैं, जैसे जल्दी उठना, चिंतन, मनन आदि, उन्हें भविष्य में भी बनाए रखना । गुरूजी की कही बातों का गंभीर असर हुआ । संघ शिक्षा वर्ग से लौटकर जल्दी उठने की आदत को बनाए रखा । उसके लिए एक जिम्मेदारी स्वतः निर्धारित कर ली । सायं शाखा में आने बाले स्वयंसेवकों को प्रातः अध्ययन के लिए जगाना । उनके माता पिता उन्हें नहीं उठा पाते थे, किन्तु गोपालराव जी जगाने जाते तो वे उठकर पढाई करते । इससे परिवार के लोग भी खुश हुए ।

 

१९५७-५८ में शाखा कार्यवाह बने, किन्तु कठोर अनुशासन के स्वभाव के कारण प्रारम्भ में परेशानी हुई । एक स्वयंसेवक को अनुशासन हीनता करने के कारण चपत जमा दी । उसने शाखा आना बंद कर दिया । उसके साथ उसके मित्रों ने भी आना छोड़ दिया । स्थिति यह हो गई कि संघ स्थान पर अकेले खड़े रहना पडता किन्तु हिम्मत नही हारी । नियमित संघ स्थान पर पहुंचते, ध्वज स्थान की सफाई करते, मैदान में पानी का छिडकाव कर अंकन करते और फिर अकेले ही प्रार्थना कर शाखा विकिर कर लौट जाते । शेष स्वयंसेवक मैदान के बाहर खड़े होकर यह तमाशा देखते रहते । अंततः इस धैर्य का परिणाम निकला और शाखा पुनः व्यवस्थित प्रारम्भ हुई । पहले जहां औसत उपस्थिति १८ रहा करती थी, अब ४० रहने लगी ।

 

१९६० में तृतीय वर्ष का शिक्षण हुआ । दोनों बड़े भाई पहले ही तृतीय वर्ष कर चुके थे । अरविन्द जी मोघे घर की खराब स्थिति के बाद भी प्रचारक निकल चुके थे । उन्हें देखकर गोपालराव जी को प्रेरणा मिली कि जब ये इतनी विषम परिस्थिति में राष्ट्रसेवा के लिए घर छोड़ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं ? संघ शिक्षा वर्ग से ही घर पत्र लिखकर अपने प्रचारक निकलने की इच्छा बता दी । बड़े भाई मधुसूदन जी का जबाब आया कि “जिसको निकलना होता है बह ज्यादा विचार नहीं करता । हम विचार करते रहे तो नहीं निकल पाए” । भाई के इस उत्तर ने विचार को और भी द्रढता दी । संघ शिक्षा वर्ग के उपरांत सीहोर जिला प्रचारक की घोषणा हुई । उस समय दिगंबर राव तिजारे बहां विभाग प्रचारक थे ।

 

गोपालराव जी दो वर्ष सीहोर रहने के बाद पांच वर्ष होशंगाबाद जिला प्रचारक रहे । उसी दौरान वहां प्रांतीय विस्तारक वर्ग हुआ, जिसमें ६००-७०० विस्तारक सम्मिलित हुए । इस वर्ग में एकनाथ जी रानाडे के ३० बौद्धिक हुए, जिनमें उन्होंने दासबोध के माध्यम से सम्पूर्ण संगठन शास्त्र सिखाया । होशंगावाद में संघ कार्य अमरावती से आये विष्णूपन्त कर्वे के समय बढ़ा था । द्रोणकर, मोरेश्वर तपस्वी, रामभाऊ मिटावलकर बैतूल आदि क्षेत्रों में सक्रिय रहे ।

 

होशंगाबाद के बाद १९६६ में येवतीकर जी भोपाल के सह विभाग प्रचारक नियुक्त हुए तथा उसके बाद १९६९ से १९७७ तक भोपाल विभाग प्रचारक रहे। १९७७ से १९८२ तक महाकौशल में विश्व हिन्दू परिषद के संगठन मंत्री बने। उस समय छत्तीसगढ़ भी इस रचना में सम्मिलित था। उसके बाद एक बार फिर १९८६ तक भोपाल विभाग प्रचारक रहे । १९८६ से ८८ तक येवतीकर जी पंजाब में लुधियाना विभाग प्रचारक के रूप में कार्यरत रहे । उसके बाद १९९७ तक सिख संगत में कार्य किया। तदुपरांत वनवासी कल्याण आश्रम के क्षेत्रीय संपर्क प्रमुख रहे। पहले मुख्यालय भोपाल था जो बदलकर जबलपुर हो गया था। वे जीवन के अंतिम समय तक कल्‍याण आश्रम के माध्‍यम से जनजाति समाज के उत्‍थान में रत रहे।

(साभार- क्रांतिदूत)