संघ के सौ साल होने वाले हैं तुम लोग बहुत भाग्यवान हो- गोपालजी येवतीकर

स्मृति शेष- गोपालजी येवतीकर का देहावसान

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    30-Nov-2022
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देहावसान
 
हेमंत मुक्तिबोध
 
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्रद्धेय गोपालजी येवतीकर नहीं रहे। कैंसर की व्याधि के कारण आज उज्जैन में उनका स्वर्गवास हो गया। 1975 में आपातकाल लगा था, लगभग तभी से वे हमारे घर आते रहते थे। मेरे पिताजी माताजी के साथ उनके आत्मीय संबंध रहे। रक्षाबंधन पर यदि वे भोपाल में रहते थे तो माताजी से राखी बंधवाने अवश्य ही आया करते थे। आपातकाल में वे भूमिगत रहे और नाम तथा वेश बदलकर स्वयंसेवकों से मिल कर उनका मनोबल बढ़ाते रहते थे।
 
उन दिनों उनका हमारे घर अक्सर आना होता रहता था और ये सिलसिला फिर कभी बंद नहीं हुआ। गोपाल जी ने अक्षरशः सैकड़ों घरों को "संघ का घर" बना दिया था। जिन स्वयंसेवकों के घर की नई पीढ़ियां किन्ही कारणों से प्रत्यक्ष संघ शाखा से जुड़ी नहीं रह सकीं, गोपालजी उनमें भी संघ भाव जागृत बनाए रखते थे।
 
स्वयंसेवकों के माता-पिता, बेटे-बेटी यहां तक कि उनके बहू दामाद भी गोपाल जी के कारण ही संघ को समझते और उससे जुड़ते रहे। जब गोपालजी को राष्ट्रीय सिख संगत का दायित्व दिया गया तो उस कार्य के लिए पच्चीस रुपए महीना देने वाले ऐसे ही परिवारों के लोग थे।
 
सौ साल पूरे करने जा रही संघ की विकास यात्रा लाखों स्वयंसेवकों के पुरुषार्थ, परिश्रम और निज जीवन की इच्छाओं को होम कर देने की उत्कट भावना के कारण सफलता से आगे बढ़ी है। स्वयंसेवक भी मनुष्य ही होता है और इस कारण कभी कभार मानव सुलभ न्यूनताओं के कारण उसकी सक्रियता, मनोबल और मनोभावों में उतार चढ़ाव आना स्वाभाविक बात है।
 
मैंने गोपाल जी से पूछा था कि आप इतना घूमते हैं तो क्या करते हैं? उन्होंने कहा था कि मैं तुम्हारे जैसे कार्यकर्ताओं का काम कुछ आसान करनें की कोशिश करता हूं। व्यस्तता के कारण तुम जिन घरों में जा नहीं पाते हो, या जिनके मन में कुछ असमंजस या असंतोष चल रहा होता है, मैं ऐसे स्वयंसेवकों के घर जाकर "बजते हुए बर्तनों" को हाथ लगाकर शांत करने का काम करता हूं। ये बहुत मार्मिक बात है। बजते हुए बर्तनों को स्नेह भरा स्पर्श देकर शांत और सहयोगी बनाए रखने वाला हाथ आज चला गया है।
 
पिछले कई महीनों से वे बीमार थे। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी थी। उनके कष्टों की कल्पना भी कठिन है। फिर भी अभी हाल तक वे प्रवास करते रहे । कुछ समय मंडलेश्वर ओंकारेश्वर, फिर इलाज हेतु इंदौर भी रहे। आषाढ़ी एकादशी के दिन भोपाल के दत्त मंदिर में उनसे भेंट हुई तो बोले कि पीलिया हो गया है, लेकिन वास्तविकता तो मुझे पता ही थी। उस हाल में भी परिवार और कार्यकर्ताओं की कुशलक्षेम पूछते रहे।
 
इंदौर में अस्पताल में अभी 26 नवंबर को एक नया स्टेंट डालने के बाद डॉक्टरों की सलाह के विपरीत वे ज़िद करके उज्जैन कार्यालय आ गए। एक बैठक के सिलसिले में मैं भी वही था। उनसे मिलने गया। विनीत जी और ग्राम विकास प्रमुख श्रीमान गिरीश जोशी जी भी वहीं बैठे थे।
 
कहने लगे कि "अच्छा हुआ तुम लोग आ गए। मैं सत्याग्रह करके उज्जैन आ गया हूं। आने के बाद सोचता हूं कि ये मैने ठीक किया या गलत? एक प्रचारक को ये करना चाहिए था या नहीं ?" अब हम क्या जवाब देते ? उनकी तबियत ठीक नहीं थी। तंद्रा लग जाती थी।
 
फिर अचानक बोल उठे "संघ के सौ साल होने वाले हैं। तुम लोग बहुत भाग्यवान हो जो इस समय दायित्व के साथ काम कर रहे हो।" मैंने कहा कि गोपालजी, हमें यहां तक तो आप ही लेकर आए हैं। तो केवल मुस्कुरा कर रह गए। फिर बोले कि भगवान सबसे काम कराते हैं।
 
भगवद गीता का उल्लेख करते हुए कहने लगे की कुछ पापयोगी पुण्यात्मा होते हैं और कुछ पुण्ययोगी पापात्मा। इस संदर्भ में और कुछ बोलते बोलते ही फिर तंद्रा में चले गए । मन में सवाल उठा कि पूछूं कि इसमें मैं अपने आपको क्या समझूं? लेकिन वे तंद्रा में थे और मुझमें उत्तर को सुनने का साहस नहीं था।
 
आज मन बहुत उदास है। तपस्वी मनस्वी साधक प्रचारकों का जाना एक अपूरणीय क्षति है। गोपालजी ऐसे ही थे। उनमें एक मां बसती थी। संघ और स्वयंसेवकों से आत्मीय स्नेह का झरना ही मानो आज सूख गया। वे हम जैसों के लिए एक मां जैसे ही थे। विनोबा जी ने गांधी जी पर अपने एक लेख को शीर्षक दिया था "गांधी मेरी मां"। संत ज्ञानेश्वर भी "माऊली" ही कहलाए । गोपाल जी भी मां ही थे । वे अपनी यात्रा पूर्ण कर गए। मन का एक कोना आज हमेशा के लिए खाली हो गया। साकार प्रेरणापुंज आज निराकार हो गया । उस निराकारत्व को सादर नमन। 
 
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