राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के क्रियान्वयन में अहम भूमिका का निर्वाह करने वाले पुष्पदीप कृष्णचंद्र की कहानी

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    26-Nov-2022
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पुष्पदीप कृष्णचंद्र
अप्रतिम शब्द का शाब्दिक विश्लेषण से संज्ञान होता है – जिसकी कोई बराबरी जल्दी नहीं कर सकता है, जो अद्वितीय हो, जो जबर्दस्त हो, बेजोड़ हो। सजीव हो अथवा निर्जीव अद्वितीय दोनों अवस्था में सिद्ध तब होता है, जब उसकी प्रतिमा लोगों के हृदय को स्पर्श कर ले।
 
वही प्रतिमा स्वयं अप्रतिम बन जाता है। अप्रतिम व्यक्तित्व सामाजिक जीवन में पुष्पदीप बन परिवर्तन की रेखाएँ खींच जाता है। फिर उनकी यादें रह जाती है, वे प्रेरक बन जाते है, उनकी प्रेरणा और उनके सामाजिक कर्म जीवन की शैली अनेकानेक कार्य और व्यक्तित्व को स्थापित करता है, आगे भी उस पथ पर स्वमेंव स्थापित होते रहता है।
 
राष्ट्रभक्तों के मन में एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था आलोड़ित हो रही थी, जिससे देश के नौनिहालों को भारतीय संस्कृति के अनुकुल शिक्षा एवं संस्कार प्राप्त हो सके। एक अप्रतिम संगठक पुष्पदीप कृष्णचंद्र ने राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था के क्रियान्वयन में अहम भूमिका का निर्वाह किया था।
 
गोरखपुर प्रथम सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय का परिवेश एक पवित्र मंदिर जैसा, शिशु-विद्यार्थी उस मंदिर के छोटे-छोटे देवता और आचार्य (शिक्षक) उस मंदिर के पुजारी होंगे; जो अपने आचरण से शिशु को शिक्षा एवं सनातन परंपरागत राष्ट्रीय संस्कार की शिक्षा का आदान-प्रदान करेंगे। देखते-देखते सम्पूर्ण देश में स्थान-स्थान पर सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना का विस्तार होता गया। समाज में शिक्षा का एक विकल्प सरस्वती शिशु मंदिर स्वीकृति प्राप्त करने लगा।
 
भारत के इतिहास में आपातकाल 1975 एक कलंक के नाम से अंकित है, सदियों तक अंकित रहेगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगा कर देश के प्रत्येक नागरिक की स्वतन्त्रता और अधिकार का हरण कर लिया था। सरस्वती शिशु मंदिर के आचार्यों को शिशु मंदिर से निकाल बाहर कर सरकार ने अपनी व्यवस्था में ले लिया था।
 
आचार्यों के पवित्र व्यवहार एवं परिश्रम से सिंचित सरस्वती शिशु मंदिर का पवित्र परिवेश धूमिल होने लगा। ऐसी विकट परिस्थिति में कृष्णचन्द्र गांधी के अथक प्रयास से अभिभावकों, विद्यार्थियों एवं शिक्षा प्रेमियों द्वारा शिशु मंदिर की सुरक्षा हेतु शांतिपूर्ण विरोध का वातावरण उत्पन्न होने लगा। सम्पूर्ण देश में आपातकाल का राजनैतिक विरोध भी भीषण आंदोलन का स्वरूप ले चुका था। आपातकाल की समाप्ति हुई।
 
शिशु मंदिर शिक्षा आंदोलन में कृष्ण चन्द्र गांधी की अहम भूमिका थी। नष्ट किए गए सरस्वती शिशु मंदिरों के परिवेश को फिर से सजाने-सवारने की बड़ी आवश्यकता थी। देशभक्तों की प्रति छाया में सम्पूर्ण देश में चलाये जा रहे सरस्वती शिशु मंदिर के 16000 विद्यार्थियों का शिशु संगम की योजना बनाने में कृष्ण चन्द्र गांधी 1978 में सफल हुए।
 
दिल्ली में कृष्णचन्द्र गांधी के नेतृत्व में आयोजित शिशु संगम सफल हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने शिशु संगम का उद्घाटन किया था। शिशु संगम के बाद भाऊराव देवरस के संरक्षण में विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान का गठन हुआ।
 
राष्ट्रीय शिक्षा के लिए समर्पित विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के पुष्पदीप थे – श्रद्धेय कृष्णचन्द्र गांधी। वे मथुरा के प्राचीन कंस किले के ऊपरी चारदीवारी पर चढ़ यमुना नदी में छलांग लगाया करते थे। वे बड़े ही साहसी थे।
 
उनका मानना था कि शैशव काल से ही स्वयं साहसी बनने और दूसरों को भी बनने के लिए प्रेरणा की शिक्षा भारत के नौनिहालों को मिलना चाहिए। नैनीताल में एक नैनी झील था, आज भी है।वह एक किलोमीटर लंबी है। उस झील का पानी बर्फ के समान शीतल रहता है। कृष्णचन्द्र गांधी युवावस्था में एक बार ही नहीं दो-दो बार हँसते-हँसते एक समय में ही तैरते हुए झील को पार कर अपने साहस का परिचय दे चुके थे।
 
कृष्णचन्द्र गांधी उड़ीसा, बिहार, झारखंड, बंगाल, अंदमान, असम, नागालैंड, मिजोराम, मणिपुर, सिक्किम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के संगठन मंत्री बने। जनजाति समाज के सुप्त स्वाभिमान जागरण हेतु जनजाति क्षेत्र की शिक्षा के पुरोधा बने। सम्पूर्ण भारत के उत्तर-पूर्व के सम्पूर्ण राज्यों में राष्ट्रीय शिक्षा, सेवा एवं संस्कार का विद्या भारती शैक्षिक संस्था के माध्यम से कृष्णचन्द्र गांधी ने विद्यालयों का बीजारोपण किया था।
 
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में विद्या भारती विद्यालयों के जनक है – स्वर्गीय कृष्णचंद्र गांधी। पहली बार 1978 में असम आयें थे। 21 अप्रैल 1979 को शिशु शिक्षा समिति असम की स्थापना हुई। गुवाहाटी के अंबिका नगर में 4 सितंबर 1979 को प्रथम शंकरदेव शिशु निकेतन की स्थापना हुई।
 
भारतीय शिक्षा शोध संस्थान के निदेशक डॉ: सीताराम जयसवाल की उपस्थिति में 11 सितंबर 1979 को गुवाहाटी में भारतीय शिक्षा दर्शन पर प्रथम गोष्ठी हुई। इम्फाल में 29 सितंबर 1979 को बाल विद्या मंदिर नाम से दूसरे विद्यालय की स्थापना हुई। असम सरकार के मंत्री सोनाराम थाउसेन द्वारा हाफलोंग नगर में 1 मई 1982 को सरस्वती शिशु मंदिर का श्रीगणेश कराया गया।
 
विद्या भारती के प्रथम संगठन मंत्री लज्जाराम तोमर की उपस्थिति पांच दिवसीय आचार्य प्रशिक्षण गुवाहाटी के बाल भवन में 1982 में संपन्न हुआ। विद्या भारती के तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आचार्य कपिलदेव नारायण सिंह का अति प्रेरक भाषण 13 सितंबर 1982 को रवीन्द्र भवन, गुवाहाटी में विद्यालयों के वार्षिकोत्सव में हुआ।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन क्षेत्र प्रचारक एवं अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख श्रद्धेय सुदर्शन जी ने बड़ा हाफलोंग ग्राम में विद्या भारती का प्रथम राष्ट्रीय जनजाति शिक्षा, सेवा एवं संस्कार प्रकल्प भूमि का भूमि पूजन मूसलाधार वर्षा में 24 नवंबर 1982 को किया गया।
 
त्रिपुरा राज्य के धर्मनगर में भी 1982 में विद्या भारती विद्यालय की स्थापना हो गयी थी। 18 फरवरी 1983 को सरस्वती पूजा के दिन असम के बड़ा हाफलंग सरस्वती विद्या मंदिर की स्थापना हुई। धीरे-धीरे सम्पूर्ण पूर्वोत्तर ही नहीं तो उड़ीसा, बंगाल, बिहार, अंडमान में विद्या भारती के विद्यालयों की स्थापना होती जा रही थी। इन सभी कार्यों के पीछे जिनका श्रम, प्रेरणा और संबल था, वे थे अप्रतिम संगठक स्वर्गीय श्रद्धेय कृष्णचन्द्र गांधी।
 
राष्ट्रीय शिक्षा, सेवा एवं संस्कार के कार्यों से जुड़े समस्त कार्यकर्ताओं को श्रद्धेय कृष्णचन्द्र गांधी का व्यक्तित्व, उनकी कार्य प्रणाली और भारत माता के प्रति समर्पण के स्वरूप को समझना और अनुभूति करना अति आवश्यक है। उनकी कार्य प्रणाली, व्यक्तित्व एवं राष्ट्रहित समर्पण का स्वरूप एक दर्शन है। वह दर्शन है राष्ट्रीय शिक्षा, सेवा एवं संस्कार की समुचित व्यवस्था का दर्शन।