औरंगजेब को पराजित कर अपनी शर्तों पर समझौता कराने वाले वीर दुर्गादास की कहानी

21 Nov 2022 18:16:36
veer durgadas
 
रमेश शर्मा-
 
नि:संदेह भारत में परतंत्रता का अंधकार सबसे लंबा रहा। असाधारण दमन और अत्याचार हुये पर भारतीय मेधा ने दासत्व को कभी स्वीकार नहीं किया। भारतीय मिट्टी में ऐसे वीर प्रत्येक कालखंड में जन्में जिन्होंने आक्रांताओं और अनाचारियों को न केवल चुनौती दी अपितु उन्हें झुकने पर भी विवश किया। ऐसे ही वीर यौद्धा हैं दुर्गादास राठौर। जिन्होने अपने रणकौशल से न केवल औरंगजेब को पराजित किया अपितु उसे झुका कर अपनी शर्तों पर ही समझौता किया।
 
वीर ठाकुर दुर्गा दास का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था । उनके पिता आसकरण राठौर ग्राम जुनेजा के जागीरदार थे। माता नेतकंवर धार्मिक, सांस्कृतिक और परंपराओ के प्रति समर्पित विचारों की थीं। पति यद्यपि महाराजा जसवंत सिंह की सेवा में थे। लेकिन महाराजा जसवंतसिंह मुगलों के सैन्य अभियान में सदैव सम्मिलित रहते थे। उनके साथ आसकरण राठौर भी साथ युद्ध में जाया करते थे। यह बात नेतकंवर को पसंद न थीं।
 
उन्हें अपना पुत्र दुर्गा माता की आराधना के बाद मिला था। इसलिए उन्होंने नाम दुर्गा दास रखा था। वे नहीं चाहती थीं कि उनका बेटा बड़ा होकर मुगलों के लिये युद्ध करे। इसलिये वे अपने बेटे को लेकर लुनावा गाँव आ गयीं। दुर्गा दास का पालन पोषण वहीं गाँव में हुआ। समूचे वन और पर्वतीय क्षेत्र के निवासी उन्हें अपना समझते और उनका एक बड़ा समूह बन गया था। हथियार चलाना, सुरक्षा करना, मल्ल युद्ध आदि में वे प्रवीण हो गये थे।
 
इसी बीच 1678 में महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया।
 
उन दिनों वे मुगलों की ओर से अफगानिस्तान के अभियान में थे। कहा जाता है कि औरंगजेब ने षडयंत्र पूर्वक महाराजा को अफगानिस्तान के अभियान में भेजकर उनके वीर पुत्र पृथ्वी सिंह को आगरा बुलवाया, पहले सिंह से युद्ध कराया फिर विष देकर मरवा दिया । महाराजा को यह समाचार अफगानिस्तान में मिला और वहीं उनका निधन हो गया। उनका जब निधन हुआ तब उनकी दो रानियां गर्भवती थीं। औरंगजेब ने मौके का लाभ उठाया और उसने जोधपुर पर कब्जा कर लिया। मंदिर ध्वस्त किये जाने लगे और जजिया कर लगा दिया गया।
 
पृथ्वी सिंह के साथ हुये वर्ताव की प्रतिक्रिया पूरे राजपूताने में हुई। वीरों ने कमर कसी। दुर्गादास भी जोधपुर आये। उन्होंने गर्भवती रानियों को सती होने से रोका और सुरक्षित वन में ले गये। महाराजा के निधन के तीन माह पश्चात् दोनों रानियों ने एक एक पुत्र को जन्म दिया।
 
आगे योजना बनी कि बालक अजीतसिंह को आगे करके मारवाड़ का शासन दोवारा प्राप्त किया जाय। तब मारवाड़ के अंतर्गत आज के जोधपुर, वाड़मेर, पाली आदि जिले आते थे लेकिन औरंगजेब ने इंकार कर दिया। तब युद्ध का निर्णय हुआ और राजपूतों ने इसकी कमान वीर दुर्गादास को सौंपी।
 
वीर दुर्गादास ने दक्षिण भारत की यात्रा की और छत्रपति शिवाजी महाराज से भेंट की और लौटकर 1679 से छापामार युद्ध आरंभ किया। 1680 में औरंगजेब ने एक बड़ी फौज मारवाड़ भेजी। जिसे महाराजा जसवंतसिंह की रानियों, अजीत सिंह और दुर्गादास को पकड़कर लाने का काम सौंपा। लेकिन वीर दुर्गादास राठौर की रणनीति से उनकी रसद का मार्ग रोक दिया गया और फौज को अरावली के वन पर्वत क्षेत्र में भटककर वापस लौटना पड़ा।
 
इसी बीच कुशल रणनीतिकार दुर्गादास राठौर ने एक और काम किया। उन्होंने औरंगजेब के एक विद्रोही शहजादे अकबर को अपनी ओर मिला लिया। शहजादा अकवर अपने परिवार सहित 1781 में मारवाड़ आ गया । वीर दुर्गादास ने कुछ चुने हुये वीर राजपूतों की टोली से इस परिवार को संरक्षण प्रदान किया।
 
औरंगजेब इस बार भी आग बबूला हुआ और उसने पुनः फौज भेजी। लेकिन इस बार भी असफलता साथ लगी। इधर शाहजादे अकबर की बेटी का अच्छा मेलजोल राजकुमार अजीतसिंह से हो गया। औरंगजेब के पास यह खबर पहुँची। अपनी युक्ति से वीर दुर्गादास ने औरंगजेब के पास यह खबर भी भेजी कि शीघ्र ही मुगल शहजादी का विवाह अजीतसिंह से होने जा रहा है इससे औरंगजेब बिचलित हो गया।
 
उसने वीर दुर्गादास के पास समझौते की खबर भेजी पहले औरंगजेब ने अजीतसिंह को मुगलों के अधीन राजा की मान्यता और दुर्गादास को तीन हजार के मनसब और बदले में परिवार सहित शाहजादे अकबर को लौटाने का प्रस्ताव दिया जिसे दुर्गा दास ने इंकार कर दिय । अंत में समझौता हुआ जिसमें जोधपुर राज्य की स्वतंत्रता, जिसमें मुगलों का कोई कानून न चलने, रियासत को अपना स्वतंत्र कानून बनाने, अपना सिक्का चलाने और अपना स्वतंत्र ध्वज फहराने की बात तय हुई।
 
समझौते की पहली बातचीत 1687 में हुई और अजीत सिंह का राज्याभिषेक जोधपुर में हो गया। लेकिन वीर दुर्गादास औरंगजेब के धोखे को जानते थे इसलिये उन्होंने शहजादे अकबर के परिवार को न लौटाया। औरंगजेब को खबर भेजी कि शहजादे हज को चले गये हैं।
 
अंत में पूरी तरह आश्वस्त होकर वीर दुर्गादास ने अनेक लिखित सहमति पत्र लेकर 1698 में शहजादे के परिवार को भेज दिया। मंदिरों के जीर्णोद्धार और अन्य निर्माण कार्य 1702 तक चला। जोधपुर रियासत ने अपनी फौज भरती की, अपना सिक्का चलाया। अपना काम पूरा कर वीर दुर्गादास 1708 में महाकाल की सेवा में उज्जैन आ गये उन्होनें यहीं 22 नवम्बर 1718 को अपनी देह त्यागी। शत शत नमन् महावीर को।
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