बचपन की परवरिश और पाश्चात्य लिव इन के हिंसक परिणाम

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    21-Nov-2022
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विवेक पाठक-
 
हमारे समाज में तरक्की और आत्मनिर्भरता के लिए बेटियों का बेटों की तरह घर से बाहर आना जाना बढ़ा मगर बड़े शहरों के बड़े खतरे कैसे होते हैं ये हमने श्रद्धा वॉल्कर के बर्बर कत्ल और उसके वहशी लिव इन पार्टनर की खूनी कहानी सुनकर कुछ न कुछ जरुर महसूस किया होगा।
 
नि:संदेह लिव इन की तरह बहुत सी बातों को कानूनन तौर से भले ही रोकटोक न हो मगर फिर भी हमारे समाज का नैतिक बोध सदियों से समाज को दिशा और मार्गदर्शन देता रहा है। विवाह समाज को आगे बढ़ाने वाली एक जिम्मेदारी भरी व्यवस्था है।
 
विवाह के बाद व्यक्ति गृहस्थ धर्म में जाता है जिसके लिए भारतीय संस्कृति अनेक दायित्वों की बात करती है। सनातन व्यवस्था में मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए वाली भावना का असल पालन एक गृहस्थ अपने परिवार के साथ करता आया है।
 
नई दिल्ली के छतरपुर में जिस श्रद्धा का बर्बर कत्ल उसके लिव इन पार्टनर ने किया था वह लिव इन की झूठी चकाचौंध के बाद विवाह की जिम्मेदारी को समझ रही थी लेकिन कबीर ने ऐसे ही नहीं कहा है कि बोए पेड़ बबूल का, आम कहां से होए। मां बाप कितने भी क्रूर हो जाएं, कोई पिता कितना भी संतान को कष्ट देता हो, भाई कितना भी बहन को नापसंद करता हो मगर इनमें से कोई भी इतना क्रूर कदापि नहीं हो सकता कि उस पर गुस्सा हो जाए तो उसका कत्ल कर दें और कत्ल के बाद शव से भी क्रूरता की हदें पार करते करते उसके टुकड़े टुकड़े कर दें।
 
नई दिल्ली के छतरपुर में बर्बर हत्यारे आफताब ने बेटी से नाराज बूढ़े पिता की आशाओं के टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं। ये उस बचपन और पालने के टुकड़े भी हुए हैं जो कभी श्रद्धा के माता-पिता ने उसके साथ जिए थे। इस बर्बरता से पहले देह त्याग चुकी मां की आत्मा भी कहीं न कहीं रोई होगी जिसने अपने कलेजे से चिपकाकर उस बेटी को अपना दूध पिलाया था और अपने कतरे करते खून से नन्ही श्रद्धा को जीवन दिया था।
 
आत्मा कांप उठती है कि जिस पिता ने पल पल प्यार और पुचकारते हुए पाला था उसे जब पता लगा होगा कि उसकी फूल सी बेटी को साग भाजी की तरह काटकर फ्रिज में पन्नियांं में रखा गया था।
 
नालियों में उसका कतरा कतरा रक्त बहा दिया गया और वो हत्यारा ये सब करते हुए बराबर से शाम को जोमेटो से खाना मंगाकर खाता रहा। पाशविक क्रूरता को भी शर्मिन्दा कर देने वाली ये बर्बरता भारत की एक बेटी के साथ हुई तो इसके लिए किसे जिम्मेदार माना और समझा जाए।
 
नि:संदेह ये परिवार व्यवस्था को भंग करने के रक्तिम परिणाम हैं।
 
परिवार मां की समझाइश और पिता के अनुशासन और मार्गदर्शन में चलता है। महंगी जमीनों और छोटे मकानों में अब दादा दादी, चाचा, ताऊ बुआ के साथ रहने वाले परिवार गिनतियों में सिमटकर कम होते जा रहे हैं। बहुमंजिला भवनों के फ्लैटों में आसपास कहां क्या गलत हो रहा है, कहां क्या संदिग्ध है ये देखने के लिए न कोई घर पर हर समय रहता है और न ही आधुनिक पीढ़ी इसे सही मानती है। नतीजा सामने है। एक चहल-पहल भरी इमारत के दो कमरों में इंसानी शरीर को कसाई की तरह काटकर कई दिनों तक ठिकाने लगाया जाता रहा और किसी को कुछ पता न चल सका। 
 
ये उस नयी पीढ़ी के गाल पर भी करारा और क्रूर तमाचा है जो किसी अनजान की पिछली परवरिश, पारिवारिक जीवनशैली व जीवन मूल्यों को दरकिनार कर किसी के साथ भी मां बाप को भूलकर चल निकलती है। जिन मां बाप ने पाला पोसा और पढ़ाया उनको छोड़कर किसी के साथ भी चकाचौंध की दुनिया में चले जाना कितना घातक हो सकता है आज देश देख रहा है। विवाह की उम्र हो जाने मात्र से मां की ममता और पिता का अधिकार त्यज्य नहीं हो जाता।
 
बचपन से आज तक किसने आनंदमय तीज त्यौहारों पर कौन-कौन से प्रेरक सबके कल्याण के उच्च संकल्प लिए हैं, क्या क्या और कैसे कितने उज्जवल पुण्य कार्य किए हैं, अथवा अपने कुटुम्ब के आनंद में अन्य कैसे कार्य किए हैं उसी से संस्कार, आचार विचार और जीवनधारा का निर्धारण होता है, क्यांकि तब से जिसे जो सिखाया जाएगा वो आजीवन उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का हिस्सा रहेगा।
 
एक बेटी पर इस बर्बरता से निश्चित ही देश की बेटियां अपना भविष्य चुनते समय बचपन से सिखाए आचार, विचार, संस्कार और जीवनमूल्योंक को जानेंगी परखेंगी तो निश्चित ही ऐसे रुह कंपा देने वाले हत्यारे कसाई भारत की बेटियों का दमन और कत्ल करने में कभी कामयाब न हो सकेंगे।