जनजातीय गौरव दिवस
समूचा भारत इस वर्ष भारत की के 75 वें वर्ष के उपलक्ष्य में स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। यह आयोजन जनजातीय समुदाय के उन असंख्य लोगों के योगदान को याद किए और उन्हें सम्मान दिए बिना पूरा नहीं होगा, जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से बहुत पहले, जनजातीय समुदाय के लोगों और उनके नेताओं ने अपनी मातृभूमि और स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा के लिए औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ विद्रोह किया। चुआर और हलबा समुदाय के लोग 1770 में ही उठ खड़े हुए थे।
वास्तव में स्वतंत्रता हासिल करने तक देश भर के जनजातीय समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से अंग्रेजी से लड़ते रहे। चाहे वे पूर्वी क्षेत्र में संथाल, कोल, हो, पहाड़िया, मुंडा, उरांव चेरो, लेपचा भूटिया, भुइयां जनजाति के लोग हो या पूवरेत्तर क्षेत्र में खासी, नागा, अहोम, मेंमारिया, अबोर न्याशी, जयंतिया, गारो, मिजो, सिंघपों, कुकी और लुशाई आदि जनजाति के लोग हो या दक्षिण में पद्मगार कुरिच्या, बेड़ा, गोड और महान अंडमानी जनजाति के लोग हों या मध्य भारत में हलबा, कोल, मुरिया जनजाति के लोग हो या फिर पश्चिम में डांग भील, मैर, नाइका, कोली, मीना दुबला जनजाति के लोग हो इन सबने अपनी निर्भीक लड़ाइयों के माध्यम से ब्रिटिश राज को असमंजस में डाले रखा।
हमारी आदिवासी माताओं-बहनों ने भी साहस भरे आंदोलनों का नेतृत्व किया। रानी गैडिनल्यू, फूलों एवं झानो मुमरू, हेलना लेप्चा एवं पुतली माया तमांग के योगदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेंगे।
बिरसा मुंडा सही अर्थों में एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ बहादुरी से संघर्ष किया। उन्होंने जनजातियों के बीच ‘उलगुलान' (विद्रोह) का आवाहन करते हुए आदिवासी आंदोलन को संचालित किया।
युवा बिरसा जनजातीय समाज में सुधार भी करना चाहते थे और उन्होंने उनसे नशा, अंधविश्वास और जादू-टोना में विश्वास न करने का आग्रह किया और प्रार्थना के महत्व भगवान में विश्वास रखने एवं आचार संहिता का पालन करने पर जोर दिया। उन्होंने जनजातीय समुदाय के लोगों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों को जानने और एकता का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया।
जनजातीय समुदाय उन्हें भगवान कहकर बुलाते थे। उनके द्वारा जलाई गई सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति की लौ देश के जनजातीय समुदायों के जीवन में मौलिक परिवर्तन लाई।
स्वतन्त्रता का अर्थ हमारे लिए आज भी बिरसा का उलगुलान ही है। हमारी जल, जंगल और जमीन पर हमारा राज हो, यही आदिवासी समाज के लिए आजादी का मतलब है। मगर अब वर्षों के बाद हमें ऐसा लगता है कि अब बिरसा के उलगुलान की जरूरत पूरे देश को है। बिरसा का उलगुलान देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने के लिए था।
मगर अब इसकी जरूरत देश के व्यापार और राजनीति को दूसरे देशों के प्रभाव से बचाने के लिए है। उलगुलान वही है, केवल उसका रूप राज्य और समय के अनुसार बदल गया है। हम चीनी सामानों के बहिष्कार की बात करते हैं। जंगल में रहने वाले आदिवासी तो उसका इस्तेमाल कम से कम या न के बराबर करते हैं। फिर शहर के लोग उसका उत्पादन करने के लिए क्यों नहीं सोचते। अब उलगुलान का अर्थ आत्मनिर्भरता है।
बिरसा ने जल जंगल जमीन पर अपना अधिकार समाज को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाने के लिए भी तो मांगा था। बिरसा की सीख की वजह से ही आज हमारे समाज में ऊंच-नीच, छुआछूत, लिग भेद आदि नहीं है। बिरसा के आजादी का मतलब हमारे लिए आज इन गलत प्रथाओं से भी मुक्ति है। ऐसी प्रथा समाज को खोखला कर रही है।
हमें पता भी नहीं चल रहा और अनजाने में हम गलती करते जा रहे हैं। ऐसे में समाज को बिरसा के उलगुलान को समझने और जानने की जरूरत है। उनकी बातें जल, जंगल और जमीन तक सीमित नहीं है। ये प्रथा, सभ्यता, और समाज की संरचना का भी विषय है। आजादी का अर्थ समझकर हर किसी को अपने उत्तरदायित्व का पालन करने की जरूरत है। फिर सही मायने में हम आजादी का जश्न मना सकेंगे।
ऐसे में कवि भुजंग में श्राम की पंक्तियां याद आती हैं :-
‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते.’