अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने वाले वनवासी योद्धा की कहानी

मुंडा समाज को जल, जमीन, जंगल का हक दिलाने के लिए किया था संघर्ष

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    12-Nov-2022
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बिरसा मुंडा
धर्म-संस्कृति रक्षक- भगवान बिरसा मुंडा
15 नवम्बर यह जनजाति समाज धर्म संस्कृति के लिए और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले भगवान बिरसा मुंडा का जन्म दिवस। मुंडा समाज को जल, जमीन, जंगल का हक दिलाने के लिए संघर्ष करते-करते मात्र 25 वर्ष की आयु में लोगों ने उनको भगवान का स्थान दिया। ऐसा संघर्षशील जीवन जीने वाले बिरसा मुंडा आज भी जनजाति अस्मिता के महानायक कहलाते हैं। आज के झारखंड और पुराने छोटानागपुर क्षेत्र के उलीहातू गांव में 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा थे तो वैसे एक सामान्य बालक, लेकिन मात्र 25 वर्ष की आयु में अपनी धर्म-संस्कृति के लिए जो अद्भुत कार्य उन्होंने किया, इसके कारण वह सबके भगवान बन गए।
 
बचपन में बिरसा के माता-पिता ने ईसाई धर्म स्वीकार किया था I उसकी बुद्धिमत्ता को देखते हुए उसे चाईबासा के मिशन स्कूल में प्रवेश दिलाया, लेकिन बात जब गोमांस खाने की और चोटी काटने की आई तब इस बालक के मन में विद्रोह की चिंगारी धधक उठी। इस चिंगारी का ज्वाला में तब परिवर्तन हुआ, जब मिशन के एक पादरी ने मुंडा समाज के बारे में ठग, बेईमान और चोर जैसे शब्दों का प्रयोग किया। मुंडाओं पर जुल्म करने वाले और हमारी जमीन हड़पने वाले आप ही लोग चोर और बेईमान है। आप में और जुर्म करने वाले ब्रिटिश सरकार में कोई भी फर्क नहीं इन कठोर शब्दों में पादरी को खरी-खरी सुना कर बिरसा ने मिशन स्कूल छोड़ दिया।
 
'साहब-साहब एक टोपी' यानी अंग्रेज सरकार, ईसाई मिशनरी सब एक ही हैI आगे चलकर ये दोनों और इन दोनों को सहयोग देने वाले जमींदार बिरसा मुंडा के सबसे बड़े शत्रु बन गए। इसी बीच बिरसा का आनंद पांडा से संपर्क हुआI उन्होंने रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया। इन ग्रंथों का उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव निर्माण हुआ। धीरे धीरे एक आध्यात्मिक महापुरुष के रूप में उनका स्थान निर्माण होने लगा। बिरसाइयत नाम से उन्होंने एक अध्यात्मिक आंदोलन की शुरुआत की। मुंडा - उरांव और अन्य कई समाज के हजारों लोग इस आंदोलन में शामिल होने लगे। शराब मत पिओ, चोरी मत करो, गौ हत्या मत करो, पवित्र यज्ञोपवीत पहनो, तुलसी का पौधा लगाओ ऐसी छोटी-छोटी बातों से लोगों में एक आध्यात्मिक चेतना जागृत होने लगी।
 
बिरसा की इस बढ़ती ताकत का ब्रिटिश सरकार में एक डर पैदा हुआ।
 
उन्होंने छल कपट से बिरसा मुंडा को हजारिबाग की जेल में कैद कर लिया। लेकिन वह उसे ज्यादा दिन जेल में रख नहीं पाए। जेल से छूटने के बाद तो बिरसा ने मानो अंग्रेज सरकार को उखाड़ फेंकने का निश्चय ही किया। जल, जमीन और जंगल के अधिकारों के लिए उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ एक प्रखर आंदोलन शुरू किया। इसी संदर्भ में 9 जनवरी 1900 को डोंबारी पहाड़ी पर एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने स्ट्रीटफील्ड के नेतृत्व में आंदोलकों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई। जिसमें हजारों मुंडा बलिदान हो गए। कहा जाता है कि जालियनवाला बाग जैसा ही यह एक भयंकर एवं सुनियोजित हत्याकांड था।
 
अब अंग्रेजों ने बिरसा को पकड़ने के लिए इनाम घोषित कियाI कुछ दिनों के बाद अंग्रेज सरकार बिरसा मुंडा को पकड़ने में कामयाब हो गई। उनको रांची के जेल में रखा गया। लेकिन 9 जून 1900 को संदेहास्पद अवस्था में बिरसा की मृत्यु हो गई। हालांकि उनके मृत्यु का कारण हैजा दिया गया, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज शासन द्वारा विष प्रयोग कर उनकी हत्या कर दी गई।
 
भगवान बिरसा मुंडा की जीवन लीला तो समाप्त हो गई, लेकिन स्वधर्म, संस्कृति और स्वदेश की रक्षा की जो ज्योति उन्होंने प्रज्वलित की थी, उसी को सहारा बना कर सैकड़ों क्रांतिकारियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
 
बिरसा मुंडा जनजाति अस्मिता के ऐसे महानायक थे, जिनकी प्रेरणा आज भी हमें धर्म - संस्कृति के प्रति जागरूक रहने का संदेश देती है। आज हम भारत की स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं। लेकिन यह स्वर्ण क्षण दिखाने में भगवान बिरसा मुंडा जैसे हमारे हजारों जनजाति वीरों के बलिदान को हमें बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए। इन्हीं बलिदानी वीरों की याद में 15 नवंबर यह बिरसा मुंडा का जन्म दिवस जनजातिय गौरव दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले सभी क्रांतिकारियों को शत शत नमन।