रमेश शर्मा
भारत सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची से 387 नाम हटाये हैं । ये फर्जी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, इनमें से कुछ तो सीधे सीधे हत्यारे और बलात्कारी परिवारों से संबंधित थे । जो प्रमाण पत्र जुटाकर न केवल पेंशन ले रहे थे अपितु समाज में सम्मान भी पा रहे थे ।
जिन लोगों के नाम हटाये गये उनमें कुछ महाराष्ट्र के और कुछ केरल के हैं । यह निर्णय लंबी न्यालयीन प्रक्रिया और न्यायालय द्वारा नियुक्त पालकर आयोग की अनुशंसा के आधार पर लिया गया । इनमें दो प्रकार के लोग हैं । एक तो वे हैं जिनके पूर्वज अंग्रेजी सत्ता के अनुकूल थे और स्थानीय नागरिकों के दमन में परोक्ष या प्रत्यक्ष सहभागी रहे हैं । ये प्रकरण महाराष्ट्र प्रांत के हैं और दूसरे वे हैं जो मालावार के उन्मादी थे जो सामूहिक हत्याओं और बलात्कार के आरोपी रहे हैं । इस हिंसा को विद्रोह का नाम देकर अंग्रेजों के समर्थकों के विरुद्ध आक्रोश मानकर सूची बना ली गयी थी ।
ऐसे उदाहरण केवल महाराष्ट्र या मालाबार में नहीं हैं । देश भर में हैं । भारत के अनेक ऐसे स्थान हैं जहां घटने वाली घटनायें, या होने वाली हिंसा स्वतंत्रता संघर्ष की नहीं अपितु सामूहिक हत्याओं, लूट और बलात्कार के जघन्य अपराध रहे हैं । जिनपर परदा डाला गया । इसका कारण यह है कि इन घटनाओं में सम्मिलित या इन घटनाओं के लिये भीड़ को उकसाने वाले लोग उस समय दो प्रकार के चरित्र निभाते थे एक तो लोगों को भड़काते दूसरा अंग्रेजों या उस समय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले महाराष्ट्र पुरुषों के विश्वस्त बने रहते । इसलिये इन घोर अपराधियों के नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की सूचीमें आ गये थे । और इन्हें स्वतंत्रता संग्राम का अंग मान लिया गया था । अब दो सिलसिले आरंभ हुये हैं एक तो फर्जी लोगों की सफाई और दूसरा उचित स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सम्मान । सरकार इस अमृतोत्सव में यही काम कर रही है ।
मालावार के अतिरिक्त बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार प्रांतों में भी कुछ स्थानों पर ऐसी ही घटनायें घटीं थीं अब उनकी पड़ताल हो रही है । इन सभी घटनाओं का कालखंड लगभग आसपास है । इन्हें सौ साल होने आ गये । स्वतंत्रता संग्राम और उन्मादी आतंक की घटनाओं का घालमेल केवल इसलिये हो गया कि तब स्वतंत्रता संग्राम के लिये गाँधी जी द्वारा छेड़े गये असहयोग आन्दोलन में खिलाफत आँदोलन जुड़ गया था । गाँधी जी का आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध था, भारतीय स्वतंत्रता और भारतीयों को सम्मान दिलाने के लिये था । लेकिन तब इस आँदोलन में मुस्लिम लीग साथ नहीं थी । गाँधी जी सबको साथ लेकर चलने का प्रयत्न कर रहे थे । सभी भारतीयों में समभाव रहे इसीलिए गाँधी जी ने प्रार्थना तैयार की थी "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम" इसका लाभ लीग से जुड़े नेताओं ने उठाया उन्होंने गांधी जी को आँदोलन खलीफा व्यवस्था बनाये रखने का अभियान जोड़ने का प्रस्ताव दिया जो गाँधी जी ने मान लिया और असहयोग आंदोलन में खिलाफत आँदोलन भी जुड़ गया । असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन जुड़ने से कुछ मुस्लिम नेता साथ तो आये पर मुस्लिम लीग समर्थक समाज मन से न जुड़ सका । उनके मन में अलगाव बना रहा । इसका कारण अंग्रेजों की यह कूटनीति थी । अंग्रेजों बाँटो और राज्य करो की नीति पर खुलकर काम कर रहे थे । मुस्लिम समाज में यह प्रकार बहुत तेज किया गया कि अंग्रेजों ने भारत के अधिकांश हिस्सों की सत्ता मुसलमानों से ली है यदि अंग्रेज भारत से जाते हैं तो सत्ता मुसलमानों को मिलनी चाहिए । इसमें लीग के कुछ नेताओं ने यह बात भी जोड़ी कि हिन्दु और मुसलमान साथ नहीं रह सकते । इसलिये मुसलमानों के लिये अलग राष्ट्र होना चाहिए । यह बात सबसे पहले 1887 के आसपास सैय्यद अहमद ने कही
ये वही सैय्यद अहमद हैं जिन्हे अंग्रेजों ने "सर" की उपाधि से सम्मानित किया और इन्हीं ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की । इनके भाषणों के अंश आज भी पुस्तकों में मौजूद हैं । बाद में यही बात 1906 को ढाका में आयोजित मुस्लिम लीग के संस्थापना सम्मेलन में भी खुलकर सामने आई और अंग्रेजों ने आश्वस्त किया कि वे मुसलमानों को उनका राष्ट्र अवश्य देंगे । लीग की इस मुहिम और उनकीं पीठ पर अंग्रेजों का हाथ होने से लीग का अभियान तेज चल पड़ा और भारत में अलगाव की नींव मजबूत होने लगी । अंग्रेजों की कूटनीति और मुस्लिम लीग के नेताओं की मानसिकता के चलते मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस से अंतर बनाकर चलने लगा । इस अंतर को पाटने के लिये गांधी जी और उस समय के जागरुक नेताओं ने बहुत प्रयत्न किये पर बात न बन सकी स्वतंत्रता आंदोलन में खिलाफत आँदोलन जोड़ने के बाद भी वे अलगावादियों को मन को न जोड़ सके ।खलीफा व्यवस्था के समर्थकों की भारत की स्वतंत्रता या गाँधी जी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी । वे कांग्रेस और गाँधी जी का केवल उपयोग कर रहे थे । यह उनकी चालाकी थी दिखने में भले उनकी भूमिका कैसी रही हो, लेकिन अंदरूनी तौर पर वे सब एक थे और मुस्लिम राष्ट्र भाव मजबूत कर रहे थे ।
इसके लिये धार्मिक नेताओं की सभाओं का सिलसिला तेज चल रहा था जिसमें केवल अपने धर्म और समाज को संगठित करने की बात होती थी । इसीलिये 1921 और 1922 में साम्प्रदायिक दंगों के आकड़े अधिक मिलते हैं । 1921 में बंगाल, महाराष्ट्र और केरल के अनेक स्थानों पर ऐसी भयानक हिंसा हुई । अगस्त 1921 का मोपला काँड भी इसी का अंग था, लेकिन उसका प्रचार हुआ कि वह अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह था । लोगों को उन जमींदारों और साहूकारों पर गुस्सा था जो अंग्रेजों के इशारे पर शोषण कर रहे थे, अत्याचार कर रहे थे । इसलिये तब इस हिंसा के विरुद्ध वैसी आवाज वैसी न उठ सकी जैसी चौरी चौरा कांड के बाद उठी थी । मालावार काँड में एक और घटना घटी । हिंसा के हफ्तों बाद शासन सक्रिय हुआ और कुछ लोगों को गिरफ्तार किया । उन्हे रेल के द्वारा कहीं ले जाया जा रहा था , पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि एक डब्बे में सवार लोगों की मौत हो गयी । इस काँड की संख्या और कारण पर अलग-अलग बातें आईं ।
यह प्रचार किया गया कि ये पुलिस की प्रताड़ना से मारे गये । इसलिये तत्कालीन अधिकांश नेताओं के ब्यानों में इन मृतकों के प्रति समर्थन और सहानुभूति थी । इनमें गाँधी जी भी थे पर कांग्रेस में एक समूह ऐसा था जिसे इस तर्क पर विश्वास न हूआ उन्होंने मौके पर जाकर घटनाओं का सत्यापन करने का निर्णय लिया । । इनमें सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम बालकृष्ण शिवराम मुंजे एक प्रमुख नाम था । वे मालावार गये और उन्होंने स्वयं घटनाओं का मुआयना किया । उन्होंने जो देखा उससे उनका हृदय कांप गया । मालावार के कस्बों में भारी चीत्कार था । बलात्कार से पीड़ित महिलाओं का क्रदंन, मार मार कर मुसलमान बनाये गये लोगों की वेदना और उन शवों की सडांध से वल्लुवानद और एरनद कस्बों की गलियाँ पटी हुईं थीं । कोई शवों को ठिकाने लगाने वाला तक न था । उनकी पहल पर ही प्रशासन में कुछ हलचल हुई और कुछ लोग पकड़े गये । बाद में उन्होंने यह घटना गाँधी जी को भी बताई और सावरकर जी को भी । लेकिन उस समय घटनाक्रम इतना तेज चल रहा था कि गांधी जी और आन्य सभी वरिष्ठ जन अपने उन ब्यानों से पीछे न हटे जो उन्होंने दे दिये थे । इसका प्रभाव आगे आने वाली घटनाओं पर अवश्य पड़ा । इसलिये चौरी चौरा कांड के बाद गांधी जी की प्रतिक्रिया बहुत तीब्र ही नहीं थी बल्कि उन्होंने आँदोलन वापस लेने की भी घोषणा कर दी थी ।
स्वाभाविक रूप से जो लोग मालावार की क्रूरतम हिंसा के आरोपी रहे, या खिलाफत आँदोलन के नाम पर दंगा करने के आरोपी रहे वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कैसे हो सकते हैं । स्वतंत्रता के बाद से ही यह प्रश्न उठता रहा है । स्थानीय स्तर पर अनेक घटनाओं की स्थानीय प्रशासन को जानकारी भी दी गई थी लेकिन मह्राराष्ट्र और मालाबार का अभियान अदालत तक पहुँचा । जाँच कमेटी भी बनी और अंततः स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सूची संशोधित हुई । 387 नाम हटाये गये ।