"आज भी प्रासांगिक है दीनदयाल जी का चिंतन"

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Sep-2021
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   सुयश त्यागी    
 
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसे राष्ट्रपुरुष हैं, जिनके अध्ययन के साथ उनके व्यक्तित्व की विराटता का परिचय होते चला जाता हैl उनके जीवन पर प्रकाश डालें तो विचारों में स्पष्टता और कार्यों में तत्वनिष्ठा, सम्पूर्ण चरित्र में रेखांकित होती है। दीनदयाल जी के उद्देश्य हमेशा ही स्पष्ट थे- राष्ट्रीय विचारों का जन-जन तक सम्प्रेषण करना और हिन्दू समाज में एक ऐसे भाव का निर्माण करना जो सम्पूर्ण समाज को एक सूत्र में बांध सके। साथ ही राष्ट्रवादी विचारों से प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित कर राष्ट्र की मुख्य धारा में जोड़कर राष्ट्र निर्माण में उसे सहभागी बनाना भी उनका एक महत्वपूर्ण उद्देश्य रहा।
दीनदयाल जी ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड नाम से प्रकाशन संस्था की स्थापना कर स्वदेश, पाञ्चजन्य और राष्ट्रधर्म का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उस दौर में राष्ट्रीय विचारों के लिए देश में अनुकूल माहौल नहीं था और देश की कमान एक परिवार विशेष तक सिमट कर रह गई थी, जिसे अपने बखान के अतिरिक्त ज्यादा कुछ सुनना व पढ़ना रुचिकर नहीं लगता था। प्रसार माध्यमों पर आयातित विचारधारा 'कम्युनिज्म' का एक तरह से कब्जा था। ऐसे वातावरण में राष्ट्रीय विचार से पोषित पत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता को दीनदयाल जी ने अनुभव किया। उन्होंने का केवल स्वदेश, राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य का प्रकाशन संभव किया बल्कि तो अपनी धारधार लेखनी से पत्रकारिता को राष्ट्रीय दिशा दी और समाज के बीच आत्मविश्वास पैदा किया। कम्युनिज्म प्रभाव के बीच भारतीय पत्रकारिता का राष्ट्रीय स्वर देना, दीनदयाल उपाध्याय की दृढ़ इच्छाशक्ति और मेधा का ही परिणाम था।
तत्कालीन सरकार और राष्ट्रीय विचार की विरोधी ताकतों ने समाज में आत्मगौरव के भाव की जागृति के लिए इन राष्ट्रीय प्रकाशनों को जवाबदेह माना। परिणामस्वरूप सरकार ने दीनदयाल जी द्वारा प्रारम्भ किये गए सभी प्रकाशनों पर एक-एक कर प्रतिबंध लगा दिया। परन्तु यह प्रतिबंध मात्र प्रकाशन पर था, पंडित की विराट सोच को प्रतिबंधित करना सरकार के लिए आखिर कहाँ संभव था ! उन्होंने राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत एक नयी पत्रिका 'हिमालय पत्रिका' का प्रकाशन शुरू कर दिया। कुछ समय बाद सरकार ने इसे भी प्रतिबंधित कर दिया तो दीनदयाल जी ने पुनः 'देशभक्त' नाम से एक नयी पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया। सरकार प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाती रही पर वे अपने ध्येय पथ से एक कदम भी डिगे नहीं। वे अपना कार्य निरंतर करते रहे।
मानवदर्शन के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणादायी कार्यपद्धति आज के इस आधुनिक डिजिटल एवं सोशल मीडिया के युग में भी उतनी ही प्रासांगिक हैं। प्लेटफॉर्म कितने भी क्यों ना आ जाये, राष्ट्रीय विचारों के सम्प्रेषण हर दिशा में अलग-अलग माध्यम से उसी गति में किया जाना चाहिए। प्रतिबंध या अवरुद्ध कितने ही क्यों ना उत्पन्न हो जाएं पर विचारों का निरंतर सम्प्रेषण होना कभी बाधित नहीं होना चाहिए।
दीनदयाल जी राष्ट्र चिंतक और अर्थशास्त्री होने के साथ एक कुशल लेखक भी थे। उनकी लेखनी का प्रत्येक शब्द राष्ट्र निर्माण की कल्पना को पूर्ण करने के लिए ही रूप लेता था। उन्होंने समय के अनुसार कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों का सृजन किया। हिन्दू समाज को उसके खोये हुए गौरव एवं पराक्रम का स्मरण कराने हेतु उन्होंने 'सम्राट चंद्रगुप्त' और भारत के अलौकिक सनातन धर्म और बहुआयामी महान संत के जीवन पर प्रकाश डालने हेतु 'जगद्गुरु शंकराचार्य' जैसी प्रेरणादायी पुस्तकें लिखीं।
दीनदयाल जी समय-समय पर समाज जागरण हेतु कई विषयों पर चिंतन कर अपने विचार प्रकट करते थे। उन्होंने हिन्दू समाज को जातिवाद से दूर रहने को आग्रह किया। उनका मानना था कि "जातिवाद मानव को मानव से दूर कर देता है"। उन्होंने भारतीय जीवनदर्शन को विद्वतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया और सबका ध्यान भारतीय संस्कृति के प्रति खींचा। उनका कहना था कि भारतीय विचारधारा में बौद्धिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक पक्ष को प्रधानता मिलती है। जबकि पश्चिम में संघर्ष को ही प्रधान माना गया है। वहीं, राजनीति के लिए उनका मानना था कि राजनीति राष्ट्र के लिए होनी चाहिए। राष्ट्र की अस्मिता, इतिहास और संस्कृति का त्याग अहितकर है और राष्ट्रीय विचार के बिना सभी शून्य है।
दीनदयाल जी को समय से पहले हमसे छीन लिया गया। उनके जाने से एक युग का अंत हुआ। उनके जाने से राजनीति में जो रिक्त बिंदु उत्पन्न हुआ, उसको भरना संभव नहीं है।
याद हो, दीनदयाल जी की स्मृति में भारत रत्न एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखा है- "नन्हा दीप बुझ गया, हमें अपने जीवन दीप जलाकर अंधकार से लड़ना होगा। सूर्य छिप गया, हमें तारों की छाया में अपना मार्ग ढूंढना होगा। हमें उनकी पावन स्मृति को हृदय में सजाकर अपने ध्येय पथ पर बढ़ना होगा"।