कविताओं की युद्ध गर्जना

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    23-Sep-2021
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   रंजना चितले   
 
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति। उनकी कुरूक्षेत्र और उर्वशी कृतियां उनके दोनों भावों का चरम उत्कर्ष है।
23 सितंबर 1908 को समिरिया, मुंगेर बिहार में जन्में दिनकर जी की विपुल काव्य साधना और साहित्यिक गुणों ने उन्हें विशेष बनाया। दिनकरजी के व्यक्तित्व निर्माण का समय भारत के स्वाधीनता संग्राम का काल था। किशोरवय में ही वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गये। यहां तक की साइमन कमीशन के विरोध में रैली प्रदर्शन में भी शामिल हुए। उन्होंने पुलिस की निर्मम लाठियों के प्रहार को भी सहा है। इसी आंदोलन में लाठियों की गंभीर चोटों से श्री लाला लाजपतराय की मृत्यु हो गयी। इससे सारा देश जल रहा था।
दिनकरजी का कवि मन उद्वेलित हो गया उनके हृदय में क्रांति धारा बहने लगी। दिनकरजी के ही शब्दों में मेरी आज की भावनाओं का मूल पं. रामनरेश त्रिपाठी की पथिक तथा मैथिलीशरण गुप्तजी की भारत भारती और 1921 का असहयोग आंदोलन है। दिनकरजी की काव्य यात्रा का प्रारंभ गुजरात के किसानों के सत्याग्रह पर लिखे दस गीत विजय-संदेश माना जाता है। वीरबाला, मेघनाथवध, प्रणभंग आदि काव्यों की लंबी श्रृंखला है। स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में दिनकर जी ने छायावाद की निर्वेक्तिकता, सात्विकता, दार्शनिकता और निराशा से स्वयं को मुक्त कर सामाजिक चेतना को समाहित किया। रेणुका (1935) में जहां एक ओर अतीत का स्नेह ममता है तो दूसरी ओर त्रस्त मानसिकता का समावेश है।
पराधीन काल के दमन, शोषण और अत्याचार के उत्पीडऩ का दिनकरजी पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अंहिसा परम धर्म को सिद्धांत के स्तर पर ही स्वीकारा, उनका हृदय क्रांतिकारियों के साथ था। भारत के युवाओं की क्रांति की चिंगारी दिनकरजी के हिमालय में कुछ इस तरह प्रकट हुई-
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दो उनको स्वर्गधीर
पर, फिर हमें गांडीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर
दिनकर जी की राष्ट्रीय काव्यधारा हुंकार (1938) कुरूक्षेत्र (1946) और परशुराम की प्रतीक्षा (1963) में बहने लगी। राष्ट्रवादी कविताओं का आरंभ तो भारतेंदु युग में हो गया था लेकिन दिनकरजी की तरह उग्र रोषपूर्ण गर्जना और ललकार के तीखे तेवर इससे पूर्व प्रखर नहीं हुए थे।
 
उनके देशभक्ति राग की हुंकार है –
 
नहीं जीते जी सकता देख विश्व में झुका तुम्हारा भाल।
वेदना मुध का भी कर पान, आज उगलूंगा गरल कराल।
 
क्रांति के औज भाव से वे राष्ट्रकवि कहलाये दिनकर जी का व्यक्तित्व उनके प्रतीकों से उद्घटित होता है – चिंगारी, अंगार, मशाल, आग, अग्नि, अनल, ज्वाला, शिखा, पापक, यज्ञ, ज्योति, किरण, सूर्य, सविता आदि प्रतीक उनकी कविता में समाहित है। उनके क्रोध का प्रहार इन पंक्तियों में हैं –
 
गीता में जो त्रिपिटक निकाय पढ़ते हैं, तलवार गलाकर जो तकली गढ़ते हैं । शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का, शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का। उन्होंने तो व्याध्र बनने का तक आह्वान कर दिया-एक ही पंथ अब भी जग में जीने का, अभ्यास करो छागियो, रक्त पीने का।
 
उनकी कविताओं से लगता है वे क्रांति युद्ध के गीत गा रहे हैं। हुंकार में कवि की क्रांति का आह्वान है –
 
जा रहा बीतता हवन-लग्न/करवटें चुका ले शेष- प्याल, बल उठे किसी दिन वहिन राशि/ले देकर, मेरी चाह एक।
नील कुसुम मैं उन्होंने मुखरित किया है-
 
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है/जनता की रोके राह, समय से ताब कहां/ वह जिधर चाहती, काल उधार ही मुड़ता है। चक्रवाल (1956) की भूमिका में उन्होंने लिखा है – मैं समाज का पुत्र हूं और मेरा सबसे बड़ा कार्य यह है कि मैं अपने युग के क्रोध और आक्रोश को अधीरता और बेचैनियों को सरलता के साथ छंदों में बांधकर सबके सामने उपस्थित कर दूं। स्वतंत्रता के लिये जहां क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, वहीं क्रांति कवि दिनकरजी की हुंकार और गर्जना ने पूरी पीढ़ी में क्रांति चेतना निर्मित की। और वे क्रांति कवि बन गये। दिनकरजी की कविताओं का मुख्य स्वर था राष्ट्रीय क्रांति। कहना होगा कि वह कविता के माध्यम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे।