बाबा राम सिंह का जन्म पंजाब के गांव भैयानी अराइयां में 1816 ई. में बसंत पंचमी के दिन हुआ था. बचपन गांव में बीता. माता ने उन्हें ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ का पाठ करना सिखाया. उनके पिता बढ़ई का काम करते थे. अतः वे भी इसी व्यवसाय में लग गए. उनका विवाह बचपन में ही हो गया था. कुछ समय पश्चात वह काम की खोज में लुधियाना में आ गए. वहां उन्होंने ईसाई पादरियों को धर्मांतरण का कार्य करते देखा. उनके मन में प्रश्न उठा, ‘क्या मैं अपने धर्म का प्रचार नहीं कर सकता’. उत्तर मिला- ‘हाँ, मैं भी अपने धर्म का प्रचार कर सकता हूँ.’ उनके मन में धर्म प्रचार का संकल्प जागा.
कुछ समय बाद उन्होंने महाराणा रणजीत सिंह की सेना में नौकरी कर ली. उनको रावलपिंडी में नियुक्त किया गया. रावलपिंडी के नजदीक ही गांव हजरों में ‘बाबा बालक सिंह जी’ का डेरा था. बाबा जी अपने अनुयाइयों को सादा जीवन बिताने, प्रभुनाम स्मरण तथा अथक परिश्रम पूर्वक धन अर्जित करने का उपदेश देते थे. राम सिंह भी उस डेरे पर जाने लगे. उनके साथ उनके साथी सैनिक भी बड़ी संख्या में डेरे पर जाने लगे. इससे उनकी रेजिमेंट ‘भक्तांवाली रेजिमेंट’ के रूप में विख्यात हो गई. राम सिंह की गणना बाबाजी के प्रमुख शिष्यों में होने लगी.
1845 ई. में युवक भक्त राम सिंह ने सेना की नौकरी छोड़ दी तथा अपने गांव भैयानी अराइयां लौट आए. बाबा बालक सिंह आध्यात्मिक उन्नति, व्यक्तिगत जीवन में शुचिता तथा समाज में नैतिक जीवन मूल्यों की स्थापना के पक्षधर थे. वह प्रभु नाम सिमरन पर बल देते थे. दहेज प्रथा के विरोधी थे, कन्या वध एवं बाल विवाह का भी विरोध करते थे. वह स्त्री-पुरुष को समान मानते थे. बाबा बालक सिंह अपने शिष्यों को नाम अथवा गुरु मंत्र देते थे. अतः उनके शिष्य नामधारी कहलाते थे. वह लोग सत्संग में ऊँचे स्वर में गाते थे. उच्च स्वर में गाना कूकना कहलाता है. इसलिए उन्हें ‘कूका’ भी कहा जाता है. अपने गांव आकर भक्त राम सिंह ने अपने गुरु की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार करना आरंभ कर दिया. वह बाबा राम सिंह कहलाने लगे.
1862 ई. में बाबा बालक सिंह का देहावसान हो गया. उनके शिष्यों ने बाबा राम सिंह को बाबा बालक सिंह का उत्तराधिकारी चुन लिया. वह गुरु गद्दी पर विराजमान हो गए. उन्होंने शिष्यों को नाम देना आरंभ कर दिया और वह सतगुरु रामसिंह कहलाने लगे. वह स्वयं को दशम गुरु गोविंद सिंह का अनुयायी मानते थे. 12 अप्रैल, 1857 ई. में उन्होंने संत खालसा की स्थापना की और अपने शिष्यों को पांच ककारों को धारण करने का आदेश दिया. उस समय कृपाण धारण करना वर्जित था, अतः उन्होंने मजबूत मोटी लाठी रखने का निर्देश दिया. स्त्रियों को भी संत खालसा में प्रवेश दिया गया.
सतगुरु राम सिंह ने अपने शिष्यों को गतका, घुड़सवारी तथा शस्त्र चलाना सीखने का आह्वान किया. लोगों में भक्ति के साथ-साथ शक्ति जगाने का भी कार्य किया. उनका दृढ़ विश्वास था कि संत खालसा की स्थापना ईश्वरीय प्रेरणा से हुई है. प्रेम सुमार्ग नामक ग्रंथ में इस प्रकार के पंथ की स्थापना की भविष्यवाणी की गई थी.
संत खालसा की स्थापना के पश्चात उन्होंने गुरु मत के प्रचार के लिए यात्राएं कीं, रागी जत्थे बनाए. आदि ग्रंथों की प्रतियाँ छपवाई गई.
धर्म प्रचार के साथ-साथ समाज सुधार का कार्य भी जारी रहा. विवाह की सरल विधि ‘आनंद कारज’ आरंभ की. दहेज रहित विवाह होने लगे. कन्या वध का विरोध हुआ. सचमुच यह बेटी बचाओ अभियान ही था. उन्होंने सरकारी अदालतों का बहिष्कार किया. शुभ्र-श्वेत अपने देश में बने वस्त्र अपनाकर स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात किया.
बाबा राम सिंह ने कश्मीर व नेपाल की सेनाओं में कूकाओं की रेजिमेंट बनवाई. अनेक सैनिक व सरकारी कर्मचारी अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर सतगुरु की सेवा में आ गए. उनका दल मस्ताना बनाया गया. सदगुरु महाराज ने अकाल के समय अखंड लंगर चलाए. इससे प्रभावित होकर अंग्रेज कलेक्टर ने उनको 2500 मरब्बे कृषि उपहार में देनी चाही. किंतु सतगुरु महाराज ने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, “अंग्रेजों से 2500 मरब्बे भूमि उपहार में लेकर क्या हम मान लें कि देश की भूमि के स्वामी हैं.” उनकी उत्कट देशभक्ति का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है.
कूका अर्थात नामधारी गाय को माता मानते थे. अतः गाय के वध को वे स्वीकार नहीं करते थे. उन्होंने कई स्थानों पर बूचड़ खानों पर हमले किए व गायों को मुक्त करवाया. सतगुरु महाराज सत्य के पालक थे. कुछ नामधारियों ने अमृतसर के बूचड़ खाने पर आक्रमण कर चार कसाइयों का वध कर दिया और भाग निकले. पुलिस ने निर्दोष लोगों को पकड़ लिया. सतगुरु महाराज ने आदेश दिया कि हत्यारे आत्म समर्पण करें. निर्दोष लोगों को दंडित नहीं होना पड़े. उन लोगों ने आत्मसमर्पण किया. नैतिकता के इतने उच्च स्तर के नामधारी के बढ़ते प्रभाव को देखकर गोरों की सरकार चिंतित हो उठी, इस संगठन की गतिविधि पर नजर रखने के लिए उनका गुप्तचर विभाग सक्रिय हो गया. प्रतिदिन वे अपनी रिपोर्ट सरकार के पास भेजते रहते थे.
फरवरी 1859 में थराजवाला गांव के पास कूकाओं का पुलिस के साथ टकराव हो गया. पुलिसवाले घायल हो गए. इससे अंग्रेजों को बहाना मिल गया. उन्होंने क्रूरता पूर्वक कूकाओं (नामधारियों) का दमन किया.
जनवरी 1872 में कूकाओं ने मलेरकोटला पर आक्रमण कर दिया. मलेरकोटला एक मुस्लिम रियासत थी. वहां गोवध खुलेआम होता था. कूकाओं को यह सहन नहीं था. किंतु इस लड़ाई में कूका हार गए, 65 लोगों ने आत्मसमर्पण किया. इनमें से दो महिलाएं और एक बच्चा था. बच्चे का वध कर दिया गया, दोनों महिलाओं को छोड़ दिया गया. अन्य लोगों को 17 जनवरी 1872 ई. को मलेरकोटला में तोप से उड़ा दिया गया.
18 जनवरी, 1872 को अंग्रेजों ने धावा बोलकर सतगुरु महाराज को कैद कर लिया. उन्हें बर्मा (म्यांमार) में जेल में डाल दिया गया. किंतु जेल से भी वह नियमित रूप से पत्र लिखते रहते थे. पत्र कौन लाता है, सरकार को पता ही नहीं चल पाया. 29 मई, 1905 को मेर गुई नामक स्थान पर म्यांमार जेल में उनका निधन हो गया.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कूका आंदोलन को इसके प्रथम पृष्ठ के रूप में देखा जा सकता है. यह आंदोलन स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले देशभक्तों की प्रेरणा थी. गांधी जी ने भी स्वदेशी और बहिष्कार आदि की प्रेरणा नामधारी अथवा कूका आंदोलन से ही प्राप्त की.