स्वतंत्रता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ:-1 -नरेन्द्र जैन

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    17-Aug-2021
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स्वतंत्रता संग्राम भारतीय उपमहाद्वीप की ऐसी परिघटना थी जिससे कोई अलग नहीं रह सकता था। इस यज्ञ में प्रत्येक देशभक्त नागरिक और संगठन ने अपनी आहुति डाली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में हुई तब तक स्वाधीनता आंदोलन चरम पर पहुंच चुका था और परिणति की तरफ जाने को भी तैयार था। सो संघ की स्थापना में ही संस्थापक डॉ.केशव बलिराम हेडगेवार ने देश की सर्वांग स्वतंत्रता के विचार को जोड़ा। उन्होंने एक भाषण में कहा था-अपने सिर पर तुलसीपत्र रखकर सर्वस्व त्याग करके रणांगन में उतरिये। संघ की इसी भूमिका के कारण तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उस पर शिकंजा कसना और उसे बदनाम करना शुरु किया। 


1857 की क्रांति के पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने मंत्र फूंका। इसके बाद वासुदेव फड़के ने क्रांति की असफलता का नैराश्य तोड़ा। पंजाब के कूकाओं ने स्वायत्तता के विचार को स्थापित किया तो स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को प्रेरित किया।


जब हम अपने देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष की ओर बढ़ रहे हैं तब यह विचार करना आवश्यक है कि हमने उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों और सपनों को आत्मसात किया या नहीं, जिनके बलिदान और संघर्ष से हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई। उन सबके लिए स्वतंत्रता से क्या तात्पर्य था ? जब हम स्वतंत्र देश के नाते अपनी यात्रा प्रारंभ करने जा रहे थे, उस समय हमारे नायकों ने जो मार्ग चुना था, सत्ता की सुविधा के लिये कहीं हम उस मार्ग से भटक तो नहीं गये? यह संकट तब और बढ़ जाता है जब हम स्वतंत्रता को सत्ता-परिवर्तन के सीमित अर्थ में समझने लगते हैं। क्या आज यह विचारणीय नहीं होना चाहिए हमने सत्ता के संचालन के लिये जिस लोकतांत्रिक पद्धति को स्वीकार किया, क्या वह हमारी आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है? कहीं वह हमारे अविरल सांस्कृतिक प्रवाह को बाधित तो नहीं कर रही है?

स्वतंत्रता संघर्ष की हमारी यात्रा कहाँ से प्रारंभ हुई और वह जिन मूल्यों को लेकर चली थी उन्हें भी इस समय स्मरण करना प्रासंगिक होगा। यद्यपि हमने यह स्वतंत्रता अंग्रेजों से प्राप्त की जिसका औपचारिक प्रारम्भ 1857 की क्रांति को मान सकते हैं। लेकिन इसे 1000 वर्ष की सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष की कड़ी के रूप में ही देखना चाहिये। 1857 का संघर्ष कुछ रियासतों के अधिकारों के छीने जाने के विरुद्ध मात्र अधिकारों को प्राप्त करने तक सीमित नहीं था। स्वतंत्रता के प्रथम समर में महर्षि दयानंद की उल्लेखनीय भूमिका रही थी। उनके लिये स्वतंत्र राष्ट्र का मतलब आध्यात्मिक, सांस्कृतिक उत्थान से था। दयानंदजी ने ही सम्भवत: सर्वप्रथम ‘आर्यावर्त आर्यों का है की घोषणा कर अंग्रेज़ी शासन को चुनौती दी थी।

1855 के कुम्भ मेला में दयानंद सरस्वती से नाना साहब पेशवा, अज़ीमुल्ला खां,बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुँवर सिंह ने भेंट कर लम्बी बातचीत हुई। यहीं प्रथम महासमर की विस्तृत योजना यहाँ बनाई गई थी। दयानंदजी ने साधुओं का गुप्त संगठन बनाया जिसका केन्द्र दिल्ली के निकट महरोली के योग़माया मंदिर को बनाया। इन हज़ारों साधुओं ने प्रथम क्रांति के इन दिनों में गाँव-गाँव में घूमकर समाज को क्रांति लिये तैयार किया। स्मरण रहे कि यही कार्य शिवाजी के मुस्लिम साम्राज्य से संघर्ष के समय समर्थ गुरु रामदास की शिष्य मंडली गाँव-गाँव में व्यायाम शाला के माध्यम से कर रही थी। प्रसिद्ध इतिहासकार सतीश मित्तल के अनुसार इस महासंघर्ष में 4 करोड़ लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया।

4 लाख भारतीयों का बलिदान हुआ और सम्पूर्ण देश का एक लाख वर्ग मील क्षेत्र प्रभावित हुआ। इस महासमर का सीधा प्रभाव सम्पूर्ण भारत (अफगानिस्तान, भूटान, बलूचिस्तान) में हुआ।इस महासमर से भारत की कोई भी जाति,मज़हब,सम्प्रदाय,क्षेत्र,और भाषा-भाषी अछूते नहीं रहे।इसे केवल सैनिक विद्रोह नहीं अपितु पूरी जनता का संघर्ष था जिसका माध्यम रोटी, कमल को बनाया गया था। जिसकी चिंगारी गाय की चर्बी से बने कारतूस के कारण पैदा हुई थी। महर्षि दयानंद 1857 की क्रांति की विफलता से तनिक भी विचलित नहीं थे। उनका मानना था कि स्वतंत्रता क्षणिक प्रयत्न से नहीं वरन दीर्घ साधना और संघर्ष से आती है। मार्च 1873 में लॉर्ड गवर्नर नॉर्थ ब्रुक से भेंट के समय जब उसने भारत में अंग्रेज़ी शासन के बने रखने के लिये ईश्वर से प्रार्थना करने का अनुरोध किया तब गवर्नर को उन्होंने दो टूक उत्तर देते हुए कहा, आर्यावर्त को सम्माननीय स्थान प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वतंत्रता मिले।

उन्होंने गवर्नर को कहा में सर्वसमर्थ परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना यही करता हूँ कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों। फड़के ने तोड़ा नैराश्य, कूका बलिदान व विवेकानंद का आह्वान 1857 की विफलता के फलस्वरूप अंग्रेजों के दमन और अत्याचार से उपजी निराशा को वासुदेव बलवंत फड़के के विद्रोह ने एक झटके में उतार फेंका। वासुदेव फड़के ने युवाओं,मज़दूर एवं किसानों को साथ लेकर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने को मजबूर कर दिया तो उधर 1871-72 में पंजाब में रामदास कूका ने 7 लाख नामधारी सिख युवकों के साथ सशस्त्र फ़ौज तैयार की। इन युवकों की प्रेरणा राम, कृष्ण,गुरुनानक तथा गुरु गोविंद सिंह के बलिदानी जीवन रहे। इन्होंने 22 जि़लों में समानांतर स्थापित की।

इन युवाओं के एक दल ने जब कुछ ईसाइयों द्वारा भेणी साहब नामक स्थान पर खुले आम अनेक गऊओं को कटते देखा तो अंग्रेज अधिकारी सहित गोहत्यारों को मौत के घाट उतार दिया। इस संघर्ष में 10 वीर लड़ते बलिदान हुए तो 65 कूका वीरों को खुले मैदान में तोप के मुँह में बांधकर उड़ा दिया गया। और जब एक 12 वर्षीय कूका एक अंग्रेज की दाढ़ी से लटक गया तो तलवार सेउसकी गर्दन काट दी गई। 4 को काले पानी भेज दिया गया । यह कूका- बलिदान के नाम से प्रसिद्ध है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक शक्ति से दीक्षित स्वामी विवेकानंदजी के लिये देश की स्वतंत्रता का कितना ऊँचा स्थान था, यह उनकी उस क्रांतिकारी घोषणा से समझ सकते हैं जिसमें वे देशवासियों को आगामी 50 वर्षों तक सभी देवी- देवताओं की पूजा छोड़कर केवल अपनी भारत माता की पूजा करने का आह्वान करते हैं।

 स्वामीजी के लिये स्वतंत्रता मात्र सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं थी बल्कि स्वतंत्रता को शाश्वत बनाने के लिये उन्होंने धर्म निष्ठ, राष्ट्रभक्त समाजभक्त युवाओं के संगठन का काम हाथ में लिया। वे शारीरिक, मानसिक रूप से सुदृढ़ समाज को देश की रीढ़ मानते थे। स्वामीजी के विचारों से राम प्रसाद विस्मिल,सरदार भगत सिंह, सावरकर, सुभाष बाबू,अश्फ़ाक उल्ला खां,चाफ़ेकर बंधु चंद्रशेखर जैसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी प्रेरित थे। स्वामी विवेकानंद के युवकों को किए गए आह्वान और दयानंद सरस्वती के सांस्कृतिक अभियान के प्रभाव के कारण ही बाल गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,विपिनचंद्र पाल,अरविंद घोष, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ एवं भगिनी निवेदिता, एनीबेसेंट जैसी संस्कृतिरक्षक विदुषियों की सक्रियता का ही परिणाम था कि ओ ए ह्यूम द्वारा स्थापित कांग्रेस अंग्रेजों की हितरक्षक की भूमिका से मुक्त होकर देश की पूर्ण स्वतंत्रता के स्वर को बुलंद करने लगी। रामराज्य, गीता, वन्देमातरम, शिवाजी राज्याभिषेक, गणेशोत्सव, विजयादशमी और स्वदेशी जैसी गतिविधियाँ स्वतंत्रता संघर्ष में प्रमुख हिस्सा बने ।

नरेन्द्र जैन, प्रचार प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, मध्यक्षेत्र