संस्कृत को समर्पित आचार्य रामनाथ सुमन

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    20-Jul-2021
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विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री तथा भारत संस्कृत परिषद के संस्थापक महामंत्री आचार्य रामनाथ सुमन का जन्म 20 जुलाई, 1926 को ग्राम धौलाना (जिला हापुड़, उ.प्र.) में पंडित शिवदत्त शर्मा के घर में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर उन्होंने हापुड़ तथा गढ़मुक्तेश्वर में संस्कृत व्याकरण का उच्च अध्ययन किया।

युवावस्था में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम तथा स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ वे सनातन धर्म के प्रचार में सक्रिय रहे। धर्म संघ के तत्वावधान में भारत विभाजन तथा गोहत्या के विरोध में उन्होंने संस्कृत के छात्रों के साथ दिल्ली में गिरफ्तारी भी दी।

प्रख्यात संस्कृत विद्वान, कवि व लेखक सुमन जी राजपूत शिक्षा शिविर इंटर कॉलेज, धौलाना में अध्यापक तथा राणा शिक्षा शिविर डिग्री कॉलेज, पिलखुवा में संस्कृत विभागाध्यक्ष और फिर कार्यवाहक प्राचार्य रहे। प्राचार्य रहते हुए भी वे साइकिल से ही 10 कि.मी दूर स्थित विद्यालय आते थे। पहले वे खानपान में कई पूर्वाग्रह रखते थे; पर संघ में सक्रिय होने पर वे इनसे मुक्त हो गये।

उनकी विद्वता के कारण उन्हें उ.प्र. संस्कृत अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया। वे दिल्ली तथा राजस्थान की संस्कृत अकादमी के सदस्य भी रहे। बाणभट्ट के संस्कृत ग्रंथ कादम्बरीके शुकनाशोपदेशनाम अध्याय पर उनकी टीका की सर्वत्र सराहना हुई। यह टीका तथा संस्कृति सुधा, महाश्वेता वृत्तांत, कादम्बरी मुखामुखम आदि कई पुस्तकें अब मेरठ वि.वि. के पाठ्यक्रम में है।

उनकी संस्कृत सेवाओं के लिए वर्ष 2000 में राष्ट्रपति श्री नारायणन ने उन्हें 50,000 रु. देकर सम्मानित किया। इसके साथ ही उन्हें 50,000 रु. प्रतिवर्ष मिलने की व्यवस्था भी की। वर्ष 2001 में उन्हें उ.प्र. संस्कृत अकादमी का 51,000 रु. का पुरस्कार मिला। हिन्दी तथा संस्कृत में उनके धाराप्रवाह उद्बोधन से श्रोता सम्मोहित हो जाते थे। अमरीका, ब्रिटेन आदि के विश्व शांति सम्मेलनों में उन्होंने अनेक वरिष्ठ धर्माचार्यों के साथ हिन्दू दर्शन पर व्याख्यान दिये।

संघ में सक्रिय होने के कारण उन्हें आपातकाल में जेल जाना पड़ा; पर वहां का जेलर उनसे इतना प्रभावित था कि उसने रिहा होने पर उन्हें आग्रहपूर्वक अपने घर भोजन कराया। वे कई वर्ष तहसील व जिला संघचालक रहे। इसके अतिरिक्त हिन्दू जागरण मंच, विद्या भारती, अ.भा. साहित्य परिषद आदि में भी सक्रिय रहे।

एक बार अयोध्या आंदोलन से वापसी पर उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। अनेक लोगों की मृत्यु हुई, सुमन जी को भी भारी चोट लगी; पर वे अपने बजाय शेष यात्रियों की चिन्ता करते रहे। ठीक होने पर उन्होंने अपना जीवन विहिप को समर्पित कर दिया। अवकाश प्राप्त कर वे विहिप के केन्द्रीय कार्यालय, दिल्ली में रहकर संस्कृत के प्रचार-प्रसार में लग गये।

वे काफी समय तक परिषद के केन्द्रीय मार्गदर्शक मंडल के संयोजक रहे। उनकी विनम्रता तथा विद्वत्ता से अनेक संतों ने संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के बारे में अपनी धारणा बदली। वे एक कुशल मंच संचालक थे। कई संत तो अपने द्वारा बोले गये श्लोकों को उनसे शुद्ध कराते थे। वे व्याकरणाचार्य होने के बाद भी अहंकारी नहीं थे। अग्निधर्मी कवि होने के नाते उनका मत था कि जब देश संकट में है, तो कवि को वीरता की कविताएं ही लिखनी चाहिए।

उनका जीवन इतना सादा था कि उ.प्र. संस्कृत अकादमी का अध्यक्ष होने पर प्रवास के लिए मिली कार का उन्हांेने प्रयोग ही नहीं किया। वेद की विलुप्त शाखाओं को खोजने हेतु उन्होंने अथक प्रयत्न किये। दिल्ली व तीर्थराज प्रयाग में उन्होंने विश्व वेद सम्मेलन आयोजित कर कई वेद विद्यालयों की स्थापना की।

15 अप्रैल, 2009 की देर रात्रि में 82 वर्ष की आयु में अपने आवास पर पिलखुवा में ही उनका देहांत हुआ। अपने अंतिम दिनों में भी संस्कृत के प्रचार-प्रसार की ही चिन्ता करते रहते थे।