अपराजित योद्धा महाराणा प्रताप

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    09-May-2021
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    -  डॉ.रामकिशोर उपाध्याय   
 
 
 
अकबर के वेतनभोगी दरबारी इतिहासकार अबुल फजल से लेकर आज तक मुसलमान/कम्युनिस्ट इतिहासकार महाराणा प्रताप का झूठा और दुर्बल वर्णन लिखते आए हैं। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी हमारी सरकारों ने तुष्टिकरण के चलते महाराणा प्रताप के साथ न्याय नहीं किया। उनका सच्चा इतिहास,उनकी वीरता, उनकी नैतिकता, उनकी महानता, उनके त्याग और उनके उच्च आदर्शों को पाठ्यक्रमों में पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया।

उच्च आदर्श

क्या हमें कभी यह घटना पढ़ाई या सुनाई गई कि महाराणा प्रताप ने मुग़ल सेनापतियों की स्त्रियों की मर्यादा भंग नहीं होने दी। महाराणा प्रताप का स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव और हिंदू आदर्श इतना उच्च एवं अनुकरणीय था कि उनके शत्रु भी इस कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करते थे। अब्दुल रहीम खानखाना जब प्रताप से युद्ध करने के लिए मेवाड़ पहुंचा तब उसका परिवार शेरपुर गांव में ठहरा था। गोगुंदा में महाराणा प्रताप के जेष्ठ पुत्र कुंवर अमर सिंह को जब यह सूचना मिली तब उन्होंने मिर्जा के परिवार को बंदी बना लिया। किंतु जब यह समाचार महाराणा प्रताप को मिला तब उसने अमर सिंह इस स्त्रियों को बंदी बनाने पर डांट लगाई और आदेश दिया कि मिर्जा के परिवार की स्त्रियों को सम्मान पूर्वक वापस भेज दिया जाए।

हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकार प्रताप की इस महानता का वर्णन नहीं करना चाहते क्यों ? प्रश्न यह है यदि अकबर के हाथ प्रताप के परिवार की स्त्रियां और बच्चे लग जाते तब वह क्या करता ? कितने ही राजपूतों की स्त्रियों का शीलभंग करने वाला दुष्ट अकबर महाराणा प्रताप के समक्ष कितना तुच्छ था। प्रताप की महानता पर मिर्जा ने तत्काल एक कविता लिखी -

ध्रम रहसी रहसी धरा ,खिस जासे खुरासान।

अमर विसंभर उपरैं ,राखियो नहचो राण।|

कर्नल टॉड ने इन पंक्तियों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि खुरासान अर्थात राज्य वैभव सब छिन जाता है पर धर्म और धरा सदा रहते हैं। राणा ने भगवान पर निश्चय रखकर अपनी प्रतिष्ठा को अमर बनाया है। इस पद की व्याख्या श्रीराम शर्मा जी ने इस प्रकार की है इस संसार में सब कुछ नश्वर है भूमि और धन चले जाएंगे परंतु बड़े नाम की भलाई सदा रहती है प्रताप ने धन और पृथ्वी छोड़ दी है परंतु भारत के सारे राजाओं में से एक उसी ने सर नहीं झुकाया है, उसने अपनी मर्यादा का पालन किया है।

जबकि इसी खानखाना की छोटी सी भूल पर जहाँगीर ने उसके बेटे का सिर काटकर उसे भेंट किया था। प्रताप के ऊपर सैन्य आक्रमण करने वाले मिर्जा के परिवार को भी प्रताप ने अभय दिया। महाराणा प्रताप के इन चरित्रों का वर्णन पाठ्य क्रमों में पढ़ाया गया होता तो अकबर के स्थान पर महाराणा प्रताप ही महान कहे जाते।

महाराणा प्रताप ने नैतिक मूल्यों की स्थापना भी की जब उन्हें यह समाचार मिला की हल्दीघाटी के युद्ध से ठीक पहले मानसिंह केवल 1000 सैनिकों के साथ पास के गांव में शिकार खेलने आ गया है तब कुछ साथियों ने प्रताप से कहा कि यह उचित समय है मानसिंह को रात में ही घेर कर मार देते हैं किंतु प्रताप ने ऐसा नहीं किया उसने धोखे से मानसिंह को मारना अस्वीकार कर दिया यदि वह चाहता तो मान सिंह की जीवन लीला वहीं समाप्त कर सकता था।

हिन्दू एकता स्थापित करने का प्रयास

अकबर के विरूद्ध हिन्दू राजाओं को एकत्र करने के लिए प्रताप जीवन पर्यंत प्रयास करते रहे। उन्होंने सिरोही के देवरों को,राठौड़ों को, ईदर के शासकों को, डूंगरपुर के राजाओं को, बूंदी के हाड़ाओं और रणथंबोर के चौहानों को एकत्रित करने का अभियान चलाया। जब प्रताप का बनाया एक संघ टूटता तो वह दूसरा बना लेते इस प्रकार प्रताप ने जीवन पर्यंत मुगलों को चैन से राज्य नहीं करने दिया। जोधपुर के राव मालदेव और राणा उदय सिंह आपस में एक दूसरे के शत्रु रह चुके थे किंतु मालदेव के पुत्र राव चंद्रसेन जब प्रताप के राज्याभिषेक के अवसर पर बधाई देने कुंभलगढ़ पहुंचे तब महाराणा ने पिछली कटुता को भुलाकर उन्हें गले लगा लिया और जीवन पर्यंत एक दूसरे के सहायक बने रहे।

नवीन युद्ध नीति का आविष्कार

छापामार युद्ध के आविष्कारक के रूप में भी महाराणा प्रताप को याद किया जाना चाहिए। इसी पद्धति को आगे चलकर मराठों ने आत्मसात किया और मुगलों को जोरदार टक्कर दी। राजपूतों की अब तक की नीति थी की प्रत्यक्ष युद्ध में प्राण दे देना ही वीरता है, को भी महाराणा प्रताप ने धोखेबाज मुगलों के लिए परिवर्तित कर दिया। उनकी नई नीति थी , लड़कर युद्ध क्षेत्र में प्राण दे देना जैसा वीरता पूर्ण कार्य है वैसा ही युद्ध क्षेत्र में लड़ते-लड़ते घिर जाने पर मोर्चा बदल देना और छिपकर शत्रु पर प्रहार करना भी वीरता है। यदि महाराणा प्रताप की इस नीति का भारत के सभी राजाओं ने अनुसरण किया होता और मुगलों के साथ छापामार युद्ध देशभर में आरंभ हुए होते तो मुगल शासन अधिक दिनों तक न चल पाता ।

अपराजित योद्धा

महाराणा प्रताप एक ऐसे अपराजित योद्धा थे जो अकबर के साथ 1576 से 1590 तक सतत युद्ध लड़ते रहे। क्या प्रथ्वी पर ऐसा दूसरा कोई भी राजा हुआ है जिसने अकबर जैसे शक्तिशाली तुर्क के समक्ष इतने वर्षों तक युद्ध लड़ा हो। हल्दीघाटी का युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य पहला युद्ध था अंतिम नहीं। इस पहले युद्ध में दोनों सेनाओं की बराबर क्षति हुई। इस युद्ध के बाद अकबर ने महाराणा प्रताप को पराजित करने के लिए स्वयं अभियान का संचालन किया और वह कई दिनों तक दीपालपुर में अपनी सेना लेकर पड़ा रहा। 11 मार्च 1577 में दीपालपुर में ही अकबर ने अपने शासन के 22 वर्ष पूर्ण होने का उत्सव मनाया। उसने अपनी सैनिक टुकड़ियों को प्रताप को पराजित करने के लिए चारों ओर दौड़ाया। उसे विश्वास था कि प्रताप शीघ्र ही समर्पण कर देगा किंतु अकबर को निराश होकर वापस लौटना पड़ा।

15 दिसंबर 1578 को शहबाज खां आदि मुसलमानों का शक्तिशाली सैन्यदल महाराणा प्रताप से युद्ध करने भेजा गया। यदि महाराणा प्रताप हल्दीघाटी में पराजित हो चुके थे तो फिर अकबर स्वयं सेना लेकर लड़ने क्यों गया ? उसके पश्चात् शाहबाज खान को प्रताप से युद्ध करने क्यों भेजा गया ? शाहबाज खान ने मेवाड़ में भयंकर लूट मचाई पर विजय प्राप्त न कर सका।

6 दिसंबर 1584 को अकबर ने भारमल के पुत्र राजा जगन्नाथ के नेतृत्व में बड़ी सैनिक टुकड़ी प्रताप से लड़ने भेजी जगन्नाथ 1587 तक डेरा डाले रहा किंतु अंत में निराश और हताश होकर वापस लौट गया।

1585 से प्रताप ने मुगलों के आधिपत्य से अपने दुर्गों को मुक्त कराने में बड़ी सफलताएं प्राप्त कीं। 1590 के बाद अकबर ने यह स्वीकार कर लिया कि महाराणा प्रताप को पराजित करना और पकड़ना असंभव है इसलिए अब महाराणा प्रताप से लड़ने का उसका साहस चुक गया। यह एक प्रकार से अकबर की पराजय ही थी। क्योंकि महाराणा प्रताप के विरुद्ध अब तक जितने भी सैन्य अभियान अकबर ने चलाए उनमें उसे असफलता ही हाथ लगी। इन सैन्य कार्रवाइयों में बहुत-सा जन और धन खर्च करने के पश्चात भी वह महाराणा प्रताप को जीत न सका। महाराणा प्रताप ने अकबर से अधिकांश दुर्गा वापस ले लिए तथा जीवन के अंतिम क्षणों 1597 तक महाराणा प्रताप ने मेवाड़ पर पूरी वीरता, सम्मान और स्वाभिमान के साथ शासन किया।

अकबर की कूटनीतिक पराजय

अकबर इस बात से परिचित था कि राणा प्रताप के ऊपर आक्रमण के द्वारा विजय प्राप्त करना संभव नहीं है इसीलिए उसने महाराणा प्रताप से संधि करने के अनेक प्रयास किए। सर्वप्रथम उसने मानसिंह को भेजा, किंतु मानसिंह जब महाराणा प्रताप से मिलने गए तो प्रताप ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया किंतु साथ में बैठकर भोजन करना स्वीकार न किया। मानसिंह को इस बात का आभास कराया गया कि तुमने मुगलों को अपनी बेटियाँ देकर राजपूताने की गरिमा को कलंकित किया है । अपमानित मानसिंह वापस लौट आया, उसके बाद अकबर ने भगवान दास को भेजा भगवान दास प्रताप के अंदर अकबर के प्रति सम्मान का भाव जागृत न करा सके और अपमानित होकर वापस लौट आए। अबुल फजल जैसे चाटुकार इतिहासकारों ने भले ही इन दोनों दूतों की यात्राओं का झूठा वर्णन करते हुए उन्हें सफल बताया हो किंतु देश का और राजस्थान का बच्चा-बच्चा जानता है कि दोनों अपमानित होकर ही लौटे। इन दोनों दूतों के असफल होने के पश्चात अकबर ने पंजाब के खत्री टोडरमल को प्रताप से मिलने भेजा।टोडरमल अभी बहुत प्रयास किया कि प्रताप अकबर के समक्ष समर्पण करें किंतु टोडरमल को भी निराशा ही हाथ लगी। ऐसे बार-बार प्रयास करने के पश्चात भी अकबर महाराणा प्रताप को अपने सामने झुकाने में असफल रहा। यह महाराणा प्रताप की पहली विजय थी या कहें कि अकबर महाराणा प्रताप को झुकाने के लिए कूटनीतिक अभियानों में बुरी तरह पराजित हुआ। अकबर ने राजपूतों के स्वाभिमान को कुचलने के लिए मान सिंह का भरपूर उपयोग किया। मानसिंह ने अनेक राजपूतों को अपने फूफा अकबर के समक्ष झुकाया ,उसकी शरणागति दिलबाई। मानसिंह जैसे देशद्रोही ने अपने फूफा अकबर के शाही हरम में अनेक राजपूतों की राजकुमारियों को भिजवाने का पाप कर्म किया किंतु इतिहासकारों ने मानसिंह की इस नीचता पर विशेष प्रकाश डालना उचित नहीं समझा। क्योंकि वह मुगलों का दास था, वह राष्ट्रद्रोही था। यदि मान सिंह का परिवार अकबर का समर्थक न होता तो अकबर को राजपूताने में उतनी सफलता नहीं मिलती। सर टॉमस रो लिखते हैं कि मेवाड़ के राजा ने कभी भी सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की। रेल्स फिंच ने भी इस बात को उद्धृत किया है कि राणा ने कभी भी अपने गर्वीले ले सिर को नहीं झुकाया।

महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर के दरबारी कवि ने उनकी वीरता महानता का यों वर्णन किया -

अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी।

गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी।|

नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली।

न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली।|

गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी

निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी।|

श्रीराम शर्मा जी ने अपनी पुस्तक महाराणा प्रताप में इसकी व्याख्या में लिखा - हे गेहलोत राणा प्रताप, तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे नहीं झुकाया। नवरोजों में (अकबर के मेले में ) तेरी रानियां कभी नहीं गईं । तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा हुआ और नहीं तूने अकबर को प्रणाम किया। तेरी मृत्यु पर सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। इसलिए मैं कहता हूं कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।


(अ.भा.कवि एवं स्तंभकार)