श्रम शक्ति की साधना से ही संभव हुआ कोरोना पर नियंत्रण

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    01-May-2021
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-  रमेश शर्मा   
आज मई दिवस है । यनि अपनी श्रम साधना से संसार को श्रेष्ठतम जीवन देने के लिये समर्पित श्रमिक वर्ग को सम्मान देने का दिन । इसकी शुरुआत 1886 में अमेरिका से हुई थी । तब काम केलिये आठ घंटे निर्धारित करने की माँग को लेकर मजदूर सड़कों पर थे पहले एक बम फटा फिर पुलिस की गोली चली जिसमें सात श्रमिक मारे गये । उन्ही की स्मृति में इस दिवस का आयोजन होता है । आगे चलकर इस आयोजन को साम्यवादी विचारकों और संगठनों ने इसे विस्तार दिया । और अब एक मई को श्रमिक दिवस के रूप मनाने के आयोजन दुनियाँ के 86 देशों में होते हैं । भारत में इसकी शुरुआत 1923 में चैन्नई से हुई थी । तब वहां हाई कोर्ट के सामने प्रदर्शन हुआ था । इसके बाद समय के साथ पूरे देश में फैला । इसका आयोजन तीन रूपों में होता है । एक तो जलसा जुलूस दूसरा श्रमिक क्षेत्रों में काम करने वालों का सम्मान और तीसरा अपनी सेवा शर्तों के लिये ज्ञापन आदि देना । इन तीनों में मजदूर संगठन सड़क पर जुलूस निकालने पर अपेक्षाकृत अधिक जोर देते हैं । लेकिन इस साल भी पिछले साल की भांति श्रमिक दिवस के आयोजनों पर कोरोना काल का ग्रहण है । देश और दुनियाँ के अधिकाँश नगरों में या तो कर्फ्यू है अथवा लाक डाउन । इस कारण कोई सार्वजानिक समारोह नहीं हो सकेगा और न कोई चल समारोह निकालना ही संभव है ।
 
निस्संदेह आज कोई आयोजन नहीं हो सकता लेकिन आज की परिस्थितियाँ हमें श्रमिकों की परिस्थिति पर विचार के लिये विवश करती है । किसी भी सार्वजनिक आयोजन से अधिक महत्वपूर्ण है उस वर्ग के अस्तित्व रक्षा पर विचार करना । आज हमें अपने आसपास श्रमिक बंधु के बारे में विचार अवश्य करना चाहिए ।
 
आज की परिस्थितियाँ विशिष्ट हैं । इन विशिष्ट परिस्थितियों में श्रमिक वर्ग की दो तस्वीरें उभरी हैं । एक तस्वीर है अपने रोजगार से वंचित होकर पलायन करते और अपनी आजीविका के लिये भटकते हुये श्रमिकों की भीड़ और दूसरी है अपने प्राण हथेली पर लेकर कोरोना की जंग में दिन रात जूझता हुआ श्रमिक वर्ग । दुनियाँ की प्रगति आज विज्ञान की हो या उद्योग की, अल्पिन का निर्माण हो या हवाई जहाज का इन सबके श्रमिकों की साधना है । वे केवल अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के पारिश्रमिक से ही संतुष्ट होकर दिन रात जुटे रहते हैं । लेकिन आज उसका अवसर भी समाप्त हो गया । कारखाने बंद हैं, भवन निर्माण के कार्य रुके हैं । रेल बस औ, हवाई जहाज की यात्राएँ भी नाम मात्र की हैं । इससे उसकी आजीविका ही नहीं भोजन का संकट भी आ गया है । वह विवश है एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिये । उसे अपने गाँव में कुछ और न मिले रोटी तो मिलेगी । इसलिए वह जा रहा है भाग रहा है । इस भागम-भाग में कितने श्रमिकों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया और कितने सफर में संक्रमण का शिकार हो गये । इसका हिसाब किसी के पास नहीं । तो दूसरी ओर श्रमिकों का एक वर्ग और जो समाज की जिन्दगी बचाने के लिये अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहा है ।
 
निसंदेह कोरोना में नियंत्रण हुआ है । रिकवरी रेट बढ़ा है, मरीजों की आवक घटी है और नये मरीजों का अनुपात भी नियंत्रित हुआ है तो इसकी बुनियाद में भी श्रमिकों की साधना को नकारा नहीं जा सकता । इस प्राणलेवा कोरोना पर यदि कुछ नियंत्रण हुआ है, उसके विस्तार पर कुछ लगाम लगी है, या उसे सीमित किया जा सका है तो इसके श्रेय में श्रमिक वर्ग की साधना को भी शामिल किया जाना चाहिए । श्रमिक समूह की साधना के बिना किसी विशेषज्ञ का कोई अनुसंधान पूरा नहीं हो सकता था, किसी चिकत्सक का कोई उपचार पूरा नहीं हो सकता था । यदि चिकित्सक उपचार कर पायें हैं, विशेषज्ञ औषधि खोज पाये हैं या शासन प्रबंधन ने उन्हे नगर नगर और अस्पताल तक पहुंचा पाये हैं तो यह श्रमिकों के श्रम से ही संभव हो पाया है । पिछले लगभग सवा साल से पूरी दुनियाँ में के करोड़ों लोग बीमार हुये और लाखों लोगों की मौत हुई । ये आकड़े और भयावह भी हो सकते थे । यह सभी संबंधितों का तप ही है कि मरने वालों का आकड़ा करोड़ों में नहीं पहुंचा ।
 
इसका श्रेय चिकित्सकों, अनुसंधानकर्ताओं और प्रबंधन में लगे सुरक्षा कर्मियों को तो जाता ही है कि उन्होंने न अपनी जान की परवाह की और न परिवार की । न समय का ही आकलन ही किया । वे रात दिन जुटे रहे । अपनी सामर्थ्य से अधिक समर्पित रहे । कितने चिकित्सकों ने तो प्राण तक दे दिये । वे सब सम्माननीय हैं, वंदनीय हैं । सभी चेहरे हमारे सामने हैं, समय समय पर उनके चित्र समाचार पत्रों में भी आये । लेकिन इन चिकित्सकों और अनुसंधानकर्ताओं की तस्वीरों के पीछे एक आधारभूत साधना तो हमारे श्रमिक वर्ग की ही है । इस वर्ग की साधना और समर्पण के बिना कहीं कुछ न हो सकता था । पर इसकी चर्चा कहीं न हुई । भला श्रम साधक सहयोगी के बिना किसी औषधि का अनुसंधान हो सकता था ? क्या रोगियों को लाने ले जाने का काम हो सकता था और क्या मृतकों का अंतिम संस्कार हो सकता था ? श्रमिक ही तो रोगी को एम्बुलेंस से स्ट्रेचर पर लेकर अस्पताल के भीतर गया, वह अस्पताल भीतर रोगियों की ट्रालियाँ ढोता रहा । शव को मर्चुरी में ले जाता रहा । उसने विश्राम नहीं किया, और किसी इंफेक्शन की परवाह की वह कहीं नहीं रुका और लगा रहा रात दिन अपने काम में ।
 
यदि हम रोग, रोगियों और अस्पताल की दुनियाँ से अलग होकर भी देखें तो इस कठिन दौर में श्रमिकों के बिना हमारी जिन्दगी चल नहीं सकती थी । श्रमिक केवल वहीं नहीं होता तो कारखानों में काम करता है । या क्या किसी बिल्डर को अपनी निर्मित आकाशी अट्टालिकाओं देखकर इतराने का अवसर देने के लिये खून पसीना एक करता है । श्रमिक वह भी है जो लाक डाउन का जोखिम उठाकर आपके दरवाजे पर सब्जियां लेकर आया या बिना नागा प्रतिदिन आपके दरवाजे पर समाचार पत्र फेककर गया । या जिसने राशन की होम डिलीवरी की । प्रतिदिन हमारे घर के सामने की सड़क साफ करने या प्रतिदिन घर से कचरा उठाने के लिये आने वाला श्रमिक ही तो है जिसकी साधना इस विषम परिस्थिति में समाज का जीवन चला । पर इस समर्पण और इस श्रम साधना से ही समाज देश और दुनियाँ के समाचार जान पाया, इसकी साधना से ही रोटी सब्जियां बना कर खा पाया । पर न तो इस श्रम और साधना का कहीं मूल्यांकन हुआ और न चर्चा ही हुई । यह श्रमिक समूह बिना किसी चर्चा के या सराहना के अपने काम में लगा रहा और आज भी लगा है । कोरोना पर आज यदि नियंत्रण हो सका है, उसके प्रकोप को यदि नियंत्रित किया जा सका है तो इसके पीछे श्रमिक वर्ग की तपस्या ही तो है । उसके बिना भला कौन चिकित्सक रोगी का उपचार कर पाता ।
 
 
इसलिए इस मई दिवस पर समाज का दायित्व ज्यादा बढ़ गया है । इस मई दिवस श्रमिक संगठन समाज का ध्यानाकर्षित करने के लिये सड़क पर नहीं होगा । न तो कोई चल समारोह निकलेगा और न किसी सभागार में कोई समागम होगा । इस श्रमिक दिवस पर श्रमिक के पास समय और सामर्थ्य दोनों का अभाव है । श्रमिकों की एक धारा जहाँ आज अपने एक दिन का भोजन जुटाने में लगी है तो दूसरी धारा अस्पताल में जूझ रही है । लोगों की जिंदगी बचाने में सहयोग कर रही है । लेकिन समाज के पास समय है । सुविधा भी है । इसलिए समाज को चाहिए कि वह आज की परिस्थिति में बंद काम या कारखानों से बेकाम हुये श्रमिकों को भोजन का और जिन्दगी बचाने की जद्दोजहद के सहयोग में लगे श्रमिक बंधु के उचित सम्मान का प्रयास करना चाहिए । इसी से इस वर्ष यह श्रमिक दिवस सार्थक होगा