सहज व सरल ईश्वर भक्ति का मार्ग दिखाने वाले थे महान संत संत तुकाराम

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    05-Apr-2021
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सौ. अपर्णा पाटिल    
 
जब जब धर्म की हानि होती है, राष्ट्रधर्म का निरंतर अपमान होता है साथ ही समाज में एकता व अखंडता पर आंच आती है तब तब धरा को सँवारने के लिए उसके रक्षणार्थ युग प्रवर्तकों को यानीकि संतो को इस धरा पर जन्म लेना ही पड़ता है।

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां ईश्वररूपी संत महात्माओं का समय समय पर अवतरण हुआ।

जिनके कारण हमारी हिन्दू संस्कृति सदियों से अखंड बनी हुई है।

विश्व के इतिहास में कई सभ्यताओं को समाप्त होते देखा है क्योंकि वो अपनी परंपराओं को संजोकर न रख सके। हमारी आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं पर सदियों तक हमले होते रहे और आज भी हो रहे हैं पर हमारे संतों ने हमारी इस पावन संस्कृति को मिटने नहीं दिया।

भारत की आध्यात्मिक परंपरा को नष्ट करने में पूर्व में असुरी शक्तियां व वर्तमान में वामपंथी ताकतें सदैव प्रयत्नशील रही हैं क्योंकि वो जानते हैं कि भारत वर्ष के करोड़ों लोगों को एकसूत्र में पिरोने का कार्य सिर्फ व सिर्फ हमारा धर्म ही कर सकता है। यदि हमारी धार्मिक मान्यताओं को नष्ट कर दिया जाये तो राष्ट्र स्वत:ही नष्ट हो जाएगा।

सबसे पहले नमन करते हैं इस धरा पर अवतरित हुए असंख्य संतों को। इन अवतार पुरुषों को। इनमें से ही एक हैं संत तुकाराम महाराज जिन्होंने भागवत धर्म की पताका को थामे रखा और भक्ति मार्ग को सहज व सरल बनाया। उनके इन सरलीकरण के प्रयासों को उनके नास्तिक होने के साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। इस सरलीकरण को उन्होंने अपनी कविता, कीर्तन व अभंग के माध्यम से जन जन तक पहुँचाया।

यदि हम इस महान संत के कार्यों को देखें तो वो कभी भी धर्म के मार्ग से दूर नही हटे। वो निरंतर हिन्दू धर्म का संरक्षण व संवर्धन करते रहे।आजीवन अंतिम सांस तक। उन्होंने 1632 से 1650 के दरम्यान अभंगों का लेखन किया। उनकी अभंग गाथा में 4500 अभंगों का समावेश हैं। अगर हम इन अभंगों का अध्ययन करते हैं तो संत तुकाराम महाराज के ये सभी अभंग मनुष्य को सुखी व समाधानी जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। ये अभंग प्रेम, भक्ति, जीवन, परिवार, समाज, व्यवसाय, राजधर्म, राष्ट्रधर्म, त्याग, समर्पण व मोक्ष आदि के प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

संत तुकाराम महाराज नास्तिक नहीं थे। वामपंथी उन्हें नास्तिक सिद्ध करने पर तुले हुए हैं। उनके अभंग, कीर्तन व कविताओं को जब हम पढ़ते हैं, सुनते हैं तो हमें उनमें अध्यात्म व भक्ति का ही बोध होता है। बस थोड़ासा अंतर दिखाई देता है वो है भक्तिमार्ग को सहज व सरल बनाना व उसे विश्वव्यापी बनाना।

इससे यही सिद्ध होता है कि वे नास्तिक नहीं थे अपितु उन्होंने भक्तिमार्ग को हर वर्ग तक पहुँचाने के लिए उसे सहज व सरल बनाया। उस समय अज्ञान सर्वदूर था। हमारे धर्म का ज्ञान कुछ लोगों तक ही सीमित था। उसे अत्याधिक कठिन बनाया गया था। हमारी आध्यात्मिक परंपराओं को सहज रूप से जनमानस तक पहुँचाने का कार्य संत तुकाराम महाराज ने किया।

संत तुमराम महाराज भगवान विठ्ठल (हरि) के अनन्य भक्त थे। उन्होंने 'हरिनाम' की महिमा का महत्व लोगों को समझाया। नामस्मरण क्या है? उसे कैसे करना चाहिए? क्यों करना चाहिए? इससे आपको क्या लाभ होगा? इससे आपका सांसारिक जीवन कैसे सुखी व समृद्ध होगा?

तब क्लिस्ट मंत्रों का जाप करना हरएक व्यक्ति के लिए संभव नहीं था। ऊँचनीच का भेदभाव उस समय चरम पर था। उन्हें लगा कि कही हमारा समाज इस कारण ईश्वर को ना भूल जाए। हमारी ईश्वर के प्रति आस्था ना कम हो जाए। ईश्वर भक्ति मनुष्य को निष्ठावान, सत्यवान, कर्तव्यपरायण, धर्म के प्रति करबद्ध रखने के साथ एकजुट व जाग्रत रखने की सबसे बड़ी शक्ति है। इससे मनुष्य के सांसारिक एवं सामाजिक जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ेगा। मनुष्य सत्कर्म की ओर बढ़ेगा। इससे आध्यात्मिक एवं सामाजिक एकता को बढ़ावा मिलेगा। धर्म पर सबका एकसमान अधिकार होगा। लोग पाप व कुकृत्य करने से डरेंगे। वे कहते है....

चाल केलासी वेगळा। बोल विठ्ठल वेळोवेळी।।

तुज पाप चि नाही ऐसे। नाम घेता जवळी वसे।।

इस अभंग के माध्यम से वे हरि का नामस्मरण नित्य करने की सलाह देते है। अगर तुम नित्य हरि का नाम लेते रहोगे तो तुम्हारी पाप करने की इच्छा ही नहीं होगी। और ऐसा स्वार्थ के कारण लगता भी है तो वह विचार अपने आप ही नष्ट हो जाएगा। तेरे नामस्मरण की शक्ति व निरंतरता के कारण खुद ईश्वर तेरे साथ होगा। और इस कारण तू किसी भी तरह का पाप कर ही नहीं पायेगा।

उन्होंने जनमानस को नामस्मरण के लिए एक सहज व सरल मंत्र दिया 'रामकृष्ण हरिजिससे भक्तिमार्ग के द्वार सबके लिए खुल जाए।

'तुका म्हणे तुम्ही चला याचि वाटे। भरवशाने भेटे पांडुरंग।

सुलभ भक्तिपंथ का मार्ग दिखाते हुए वे कहते है अगर आप इस मार्ग से निष्ठा के साथ चलते रहोगे तो आपको विश्वास के साथ हरि का सानिध्य प्राप्त होगा।

वे एक समाजसेवी भी थे। हमारा सामाजिक दायित्व क्या है उसके प्रति अपने भाव कैसे होने चाहिए? ईश्वर को कहाँ ढूढ़ना है तो वे कहते है...

जे का रंजले गांजले। त्यासी म्हणे जो आपुले।।

तोचि साधु ओळखावा। देव तेथेचि जाणावा।।

इसका अर्थ है, जो गरीब है, जरूरतमंद है उस व्यक्ति को जो अपना समझकर उसकी सेवा करेगा, उसकी झोली भरेगा। उसका कल्याण करेगा। वही सच्ची ईश्वर सेवा होगी क्योंकि ईश्वर का वास उन्हीं में होता है।

संत तुकाराम महाराज ने प्रपंच व परमार्थ का समन्वय साधकर जीवन को कैसे कृतार्थ के मार्ग पर ले जा सकते है इसका विचार जनमानस को दिया। वे कहते हैं 'आधी केले मग सांगितले।' जब जब वे जनमानस को मार्गदर्शित करते थे तब सबसे पहले उसे अपने आचरण में लाते थे।

ऐका महिमा आवडीचीं ।

बोरें खाय भिलटीचीं ।।१।।

थोर प्रेमाचा भुकेला ।

हा चि दुष्काळ तयाला ।।धृ।।

अष्टमा सिद्धींला ।

न मनी क्षीरसागराला ।।2।।

पव्हे सुदामदेवाचे ।

फके मारी कोरडे च ।।३।।

न म्हणे उच्छिष्ट अथवा थोडे ।

तुका म्हणे भक्तीपुढें ।।४।।

संत तुकाराम महाराज अपने अभंग में कहते हैं, हमारे भगवान की महिमा देखो, वो भिलनी (शबरी) के झूठे बेर बड़े प्यार से व चाव से खाता है। क्योंकि भगवान सिर्फ व सिर्फ प्यार का भूखा होता है। उसके पास अष्टमहासिद्धि और क्षीरसागर है फिर भी वो उनको महत्व नहीं देता। सुदामा द्वारा लाये मुठ्ठीभर सूखे पोहे भी वो बड़े प्यार से ग्रहण कर लेता है। तुकाराम महाराज कहते हैं वो झूठे हैं अथवा थोड़े भक्ति व प्यार के आगे इसका विचार भी उनके मन में नहीं आता।

इस अभंग में संत तुकाराम महाराज ने श्री भगवान राम व श्रीकृष्ण का अपने भक्तों के प्रति असीम स्नेह का उदाहरण दिया है। ईश्वर आपके सच्चे भाव, स्नेह व प्यार का भूखा होता है। छोटा बड़ा उसके लिए सभी समान है। वो भेदभाव नहीं करता।

आपको यह पता ही होगा कि संत तुकाराम के भक्त 'वारकरी' अपनी पैदल यात्रा में जिसे दिंडी भी कहा जाता है रामकृष्णहरी कहते थकते नहीं है।

बस अंत में यही कहूंगी, प्रभु के भक्तिमार्ग को आसान बनाने का कार्य अगर किसी ने किया है तो वे है संत तुकाराम महाराज। दिखावे की भक्ति का उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में पुरजोर विरोध किया।