"अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" की शुरुआत 8 मार्च वर्ष 1908 में अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में एक महिला मजदूर आंदोलन से हुई थी. जब करीब 15 हज़ार महिलाएं अपने अधिकारों की मांग के लिए सड़कों पर उतरी थीं. ये महिलाएं काम करने के समय को कम करवाने, अच्छी तनख़्वाह और वोटिंग के अधिकार की मांग के लिए प्रदर्शन कर रही थीं. महिलाओं के इस विरोध प्रदर्शन के लगभग एक वर्ष बाद अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने पहले राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने की घोषणा की . जिसके बाद महिला दिवस को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का विचार एक महिला क्लारा ज़ेटकिन ने दिया था.
परंतु भारत में भी यह दिवस जोर शोर से मनाये जाने लगा है, जबकि भारत के संविधान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर के सारे अधिकार हैं। कुछ सामाजिक कुरीतियों के कारण महिलाओं का शोषण व अत्याचार चिंताजनक है, लेकिन उसके लिए किसी विशेष वर्ग स्त्री या पुरुष को जिम्मेदार नही बल्कि समाज में व्याप्त कुरीति व कुसंस्कार जिम्मेदार है । महिलाओ पर अत्याचार केवल पुरुष ही नही करते ,समाज में वो घटनाये भी कम नही है जहां महिला ही महिला उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार है जबकि महिला ही महिला को भलीभांति समझ सकती है । समाज को संस्कारित करने में स्त्रियों की अहम भूमिका हो सकती है , जब समाज संस्कारित व श्रेष्ठ होगा तो महिलाओं पर अत्याचार स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे । इसके बाद जो अवांछनीय तत्व जिनमे सुधार की कोई गुंजाइश नही उन्हें सिर्फ दंड देकर ही सुधारा जा सकता है उनके लिए देश की न्याय व्यववस्था को कड़े कदम उठाए जाने व उन पर अमल करने की आवश्यकता है ।
भारत के दर्शन में एकात्म की बात कही गयी है , जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों मिलकर सम्पूर्ण है, दोनों आत्मा है , वैसे ही भारत में स्त्री पुरुष मिलकर आदर्श परिवार का निर्माण करते हैं जैसे शरीर के अंगों से मिलकर सम्पूर्ण होता है इस स्थिति में शरीर के लिए सभी अंग अपना अपना कर्तव्य निभाते हैं उसी प्रकार भारतीय परिवारों में सभी के अपने कर्तव्य है । जहां कर्तव्य सर्वोपरि हो वहाँ अधिकार मांगने की आवश्यकता नही पड़ती सभी को वे बिना मांगे प्राप्त होते है । कदाचित हाथ को यह भ्रम हो जाये की शरीर को वो ही चला रहा है क्योंकि वो ही खाना खिला रहा है और इस भ्रम में वह शरीर को खाना खिलाना बंद कर दे तो परिणाम यह होगा कि शरीर तो दुर्बल होगा ही साथ ही हाथ भी दुर्बल हो जाएगा इसलिए भारत में स्त्री पुरुष एक दूसरे के पूरक बताये गए हैं उनकी आपस में प्रतिस्पर्धा की होड़ सर्वथा अनुचित है दोनो के अपने अपने कर्तव्य हैं । समय के साथ कुछ बातों में परिवर्तन लाने की आवश्यकता जरूर है वर्तमान में महिलाएं व स्त्री समान रूप से धनार्जन व परिवार के लिए पुरुषार्थ कर रहे है , अब वह समय नही रहा जहां घरेलू काम सिर्फ महिला ही करे दोनों को आपस मे समन्वय के साथ आगे बढ़ना होगा महिलाओं के साथ पुरुषों से अधिक जिम्मेदारी प्राकृतिक रूप से ईश्वर ने दी है उसे कई कर्तव्य निभाने होते है वह माँ ,बहु ,बेटी, बहन, पत्नी के साथ साथ कामकाजी भी है इसलिए आवश्यक है कि पुरुष उसकी स्थिति हो समझे और उसके साथ संवेदनाशील व्यवहार करें । पहले की अपेक्षा पति अपनी पत्नियों की हर काम में सहायता करने भी लगे हैं।
वर्तमान परिवेश में “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” मनाने का सबसे मुख्य उद्देश्य महिलाओं और पुरुषों में समानता बनाने के लिए जागरूकता लाने के साथ महिलाओं को अपनी शक्ति को जाग्रत कर स्वयं को पहचानना चाहिए वे स्वयं शक्ति का रूप है, सकारात्मक शक्ति से निर्माण और नकारात्मक शक्ति से वे विनाश करने में समर्थ हैं उन्हें अपनी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि करके राष्ट्र निर्माण व समाज के उत्थान की दिशा में कार्य करना चाहिए।
प्राचीन भारत में महिलाओं को शिक्षा, व्यापार, शासन, शास्त्रार्थ यहां तक कि युद्ध करने के भी अधिकार प्राप्त थे । इसी देश में कन्या अपना वर स्वयं चुनती थी जिसे स्वयंवर कहा जाता था । इसके कई उदाहरण है विदुषी गार्गी, अपाला , मतंग मुनि की शिष्या शबरी, वीरांगना, रानी दुर्गावती, पदमावती, रानी लक्ष्मी बाई , सावित्रीबाई फुले , महादेवी वर्मा आदि । वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारत मे स्त्रियों के महत्व या अधिकारों की व्याख्या नही कर सकते क्योंकि वर्तमान स्थिति देश के इतिहास पर आधारित है , जो सेंकडो वर्षो तक गुलामी में रहा है । उस गुलामी से प्रभावित हैं इसलिए भारत के समाज में व्याप्त बुराइयों को परिवर्तन की निरंतर आवश्यकता है । यहां उनके लिए वर्ष के किसी एक दिन महिलाओं के सम्मान का दिन नही बल्कि यहां हर दिन की शुरुआत नारी शक्ति से प्रारंभ होती है ।