बुराई के प्रतीकों को आदर्श बताने वाले कौन ? इनकी पहचान करना आवश्यक

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    17-Feb-2021
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विधि सिंह

भोपाल के समाचार पत्रों में एक क्रिकेट मैच की खबर छपी, जिसके अनुसार पहली टीम रावण इलेवन ने दूसरी टीम उड़दन को हरा कर जीत हासिल की. देखने में यह हर खबर की तरह साधारण लगती है लेकिन यदि ध्यान से देखें तो यह खबर हमें एक बार सोचने पर मजबूर कर देती है कि विजयी टीम का नाम रावण इलेवन क्यों रखा गया. बहुत सारे नाम हो सकते थे मगर रावण इलेवन ही क्यों..?

अगर हमारे चारों तरफ चल रही घटनाओं और वातावरण पर एक नज़र डाली जाए तो हम पाएंगे कि समाज में उन्हें आदर्श बनाने जा भरसक प्रयास किया जा रहा है जो अब तक बुराई के प्रतीक के रूप में जाने जाते रहे हैं. ये कोई पहला मामला नहीं है. इसके पहले भी ऐसी खबरें आती रही हैं. हमारे समाज में हमेशा से देवी-देवताओं को आदर्श मान कर उनका सम्मान किया गया है. हमारे घर - परिवार में जब बच्चा बड़ा होता है तो उसे कहानियों के रूप में संस्कार दिए जाते है और साथ ही अच्छाई और बुराई में भी फ़र्क बताया जाता है. हम अपने बच्चों को बताते है कि रावण, महिषासुर , दुर्योधन, शिशुपाल कौन थे. इन्होंने क्या बुरे कर्म किए और उन बुरे कर्मों का अंजाम क्या हुआ. आज इन मूल्यों को बदलने के प्रयास किये जा रहे हैं. वो सूत्र जो समाज की नैतिकता को बताते हैं, उन्हें तोड़ने-मरोड़ने का प्रयास किया जा रहा है.

अभी कुछ दिनों पहले देश प्रसिद्ध विश्वविद्यालय जेएनयू में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम ने नवरात्रि के दौरान महिषासुर शहादत दिवस मनाया. शहादत दिवस के नाम पर एक पत्रिका की प्रतियां बांटी गई, जिसमें देवी-देवताओं का अपमान करते हुए देवी दुर्गा को वेश्या बताया गया. इतना ही नहीं महिषासुर को आदिवासी तक घोषित कर दिया गया. 

यह प्रेम सिर्फ महिषासुर के लिए ही नहीं बल्कि रावण के लिए भी समय - समय पर दिखता आया है. अक्सर विजयदशमी के पर्व पर सोशल मीडिया पर "भाई हो तो रावण जैसा" के पोस्ट तैरते मिलते हैं. इन पोस्ट्स के माध्यम से आपको बताया जाता है कि रावण तो अच्छा था, रावण ने तो महिला का सम्मान किया, रावण तो आपके बीच का था. अयोध्या में जन्मे राम तो विदेशी थे लेकिन लंका का रावण आपका अपना था.

इसी दुष्चक्र को आगे बढाने में तथाकथित प्रो. दिलीप मंडल जैसे लोगों की बड़ी भूमिका है जो समाज को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ देना चाहते हैं. अभी कल हीं प्रो. साहब ने ट्विटर पर एक बार फिर अपने ट्विट से हंगामा खड़ा कर दिया. उन्होंने शिक्षाविद् जोतीराव गोविंदराव फुले की किताब "स्लेवरी" की लाइन्स को कोट करते हुए ट्विट किया है जिसमें लिखा गया है -

 

"सरस्वती को मै शिक्षा की देवी नहीं मानता हूं, उन्होंने ने न कोई स्कूल खोला , न कोई किताब लिखी. ये दोनों काम माता सावित्री बाई फुले ने किया है. फिर भी मैं सरस्वती के साथ हूं. ब्रह्मा ने उनका जो यौन उत्पीड़न किया है , वह जघन्य है."

 

इस ट्विट के बाद से लोगों ने दिलीप मंडल को गिरफ्तार करने तक की अपील की है, खूब हंगामा मचा है लेकिन कुछ दिनों में लोग इसे भूल जायेंगे.

 

ऐसी घटनाएं आए दिन हो रहीं हैं. अब सवाल ये है कि सोशल मीडिया पर ऐसे आपत्तिजनक ट्विट या पोस्ट डाल कर समाज का एक तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग क्या साबित करना चाह रहा है. सदियों से हम शिव, श्रीराम और देवी दुर्गा को समाज में आदर्शों को स्थापित करने वाले रूप में देखते आए हैं. हमें इनके आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है. मगर इस तरह की मुहिमों ने न केवल इनके स्थापित चरित्र को ठेस पहुंचाई है बल्कि समाज को भी तोड़ने का कार्य किया है.

यदि हम महिषासुर को आदिवासी बता रहें है तो शिव कौन थे? हमें ये याद रखना चाहिए कि भगवान शिव को आदिवासियों में विभिन्न देव रूपों में पूजा जाता रहा है. ऐसा करने से समाज में संदेश जाता है कि आदिवासी समाज बुराइयों का प्रतिनिधित्व करता है जिसके मुखिया शिव है और उनका नेतृत्वकर्ता महिषासुर जैसा असुर रहा है.

क्या महिषासुर, रावण, दुर्योधन हमारे भारतीय समाज के नायक हो सकते हैं? क्या हमारी दादी नानी की सुनाई कहानियां झूठी थीं? इस तरह के कुत्सित प्रयास करने वालों के मन में सिर्फ एक उद्देश्य है, सिर्फ एक लक्ष्य है. लक्ष्य है समाज में टकराव पैदा करने का, समाज को तोड़ने का. किसी भी तरह से लोगों के मन में असंतोष पैदा कर के उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का. तो अगली बार जब ऐसी किसी टीम का नाम, ऐसी कोई पोस्ट आपके आँखों के सामने से गुजरे तो रुकिए, अपना विरोध दर्ज करवाइए और बताईये कि आप राम के वंशज हैं, रावण के नहीं.