धर्मान्तरण के विरोधी थे बाबा उरांव

स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों के शासनकाल से भी अधिक आदिवासियों का धर्मान्तरण किया जा रहा

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    04-Dec-2021
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रत्नाकर त्रिपाठी-
 
यह तमाम विवरण एक सिहरन से भर देते हैं। विषय ही कुछ ऐसा है। संविधान में उल्लिखित धार्मिक स्वतंत्रता को किस तरह कुछ लोगों द्वारा उच्छृंखलता में परिवर्तित कर दिया गया, यह जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिर जब इस सबको बाबा कार्तिक उरांव जी के जीवन तथा दर्शन से जोड़कर देखा जाए, उनकी कालजयी रचना 'बीस वर्ष की काली रात' के सन्दर्भ में इसे समझा जाए तो हृदय व्यग्रता से भर उठता है। इस 8 दिसंबर को बाबा उरांव जी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृति एक टीस का आभास भी कराती है। क्योंकि जिस अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के विरुद्ध आपने जीवन पर्यन्त संघर्ष किया, वह षड़यंत्र अब भी संचालित किया जा रहा है। संतोष इस बात का है कि उरांव जी ने डीलिस्टिंग के लिए जो अलख प्रज्ज्वलित की थी. उसके आलोक में उनके सपने को पूरा करने का काम अब भी वैचारिक एवं व्यावहारिक रूप से किया जा रहा है।
 
बाबा उरांव जी को मात्र धर्मान्तरण का विरोधी बताया जाना उनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व के साथ पक्षपात होगा। मोटे तौर पर यह जान लीजिए कि आपने जनजातीय समाज को छल-कपट से ईसाई या मुस्लिम बनाये जाने का विरोध किया।
 
बाबा उरांव ने मांग रखी कि धर्म बदलने वाले आदिवासियों को आरक्षण का लाभ न दिया जाए। अब यहीं से इस सारे मामले को बारीकी से समझना आवश्यक हो जाता है। वर्ष 1967 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। कार्तिक जी कांग्रेस से सांसद थे। आपने उसी साल संसद में अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 प्रस्तुत किया।
 
उरांव जी का स्पष्ट कहना था कि स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों के शासनकाल से भी अधिक आदिवासियों का धर्मान्तरण किया जा रहा है। इधर यह विधेयक संसद में प्रस्तुत हुआ और उधर धर्मान्तरण वाले अघोषित गिरोहों में खलबली मच गयी। कारण यह कि संसद की संयुक्त समिति ने इस विधेयक के पक्ष में अनुशंसा करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा। अर्थात धर्म परिवर्तन करने के पश्चात उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। इसके साथ ही इन अनुशंसाओं के विरुद्ध गिरोहबंदी आरंभ हो गयी।
 
इस बात का आज तक कोई खंडन नहीं आया है कि श्रीमती इंदिरा गांधी पर चर्च लॉबी ने दबाव बनाया कि सरकार इस विधेयक का विरोध करे। हुआ यह भी कि इस लॉबी से प्रभावित करीब 50 सांसदों ने श्रीमती गांधी को पत्र सौंपकर इस विधेयक का तीखा विरोध किया। इधर, उरांव जी भी पीछे नहीं हटे। आपने इस विधेयक के पक्ष में 322 लोकसभा और 26 राज्यसभा सांसदों के हस्ताक्षर हासिल कर लिए। यह पत्र भी श्रीमती गांधी को सौंपा गया।
 
सरकार ने मामले को टालने की भरपूर कोशिश की। फिर किसी तरह वर्ष 1970 में यह विधेयक सदन में चर्चा के लिए लाया जा सका। दिनांक 10 नवंबर को बिल पर चर्चा शुरू होते ही इसे कमजोर करने के षड़यंत्र और तेज हो गए। सात दिन बाद विधेयक पर बाबा उरांव को अपने विचार रखने थे। उसी दिन इंदिरा जी की सरकार ने संशोधन पेश कर दिया कि विधेयक से संयुक्त संसदीय समिति की अनुशंसाओं को हटा दिया जाए। इतना ही नहीं, उस सुबह सत्तारूढ़ कांग्रेस ने व्हिप जारी कर अपने सांसदों से कहा कि वे समिति की सिफारिशों के विरोध में अपनी बात रखें।
 
उस समय को जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा जी की यह कोशिश कमजोर पड़ गयी थी। क्योंकि उरांव जी के बोलने के बाद कांग्रेस के ही कई सदस्य विधेयक तथा समिति की सिफारिशों के पक्ष में मतदान करने का मन बना चुके थे। फिर नाटकीय अंदाज में अचानक विधेयक पर चर्चा रोक दी गयी। यह व्यवस्था दी गई कि इस पर सत्र के अंतिम दिन चर्चा होगी। लेकिन अगले सत्र से पहले ही लोकसभा भंग कर दी गयी और विधेयक के विरोधी अपने मंसूबों में सफल हो गए। वे आज तक इसमें सफल ही हैं।
 
इस घटनाक्रम से व्यथित होकर उरांव जी ने 'बीस वर्ष की काली रात' का सृजन किया। इसमें आपने अकाट्य तर्क रखा कि संविधान में कोई संशोधन विधेयक नहीं है, जिसके द्वारा भारतीय ईसाइयों को अनुसूचित जनजाति में उल्लेखित किया हो। इसलिए ईसाइयों को अनुसूचित जनजाति में मानकर उन्हें सारी सुविधाएं देना असंवैधानिक है।
 
वस्तुतः उरांव जी की चिंता इस बात की थी कि आदिवासियों को उनकी आस्था एवं परंपराओं की जड़ से उखाड़कर हिन्दू समाज को शक्तिहीन करने का राष्ट्रव्यापी षड़यंत्र संचालित किया जा रहा है। वह गलत भी नहीं थे। आज पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी क्षेत्रों में चले जाइए। वहां की जनजातियों में हिन्दू मिलने मुश्किल हैं। बाकी जगहों पर भी पूर्वोत्तर जैसी परिस्थितियां निर्मित करने की कोशिशें चल रही हैं।
 
यहां स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव जी का उल्लेख समीचीन है। उन्होंने धर्मान्तरित आदिवासियों की घर वापसी का महा अभियान चलाया था। एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने इस काम में आ रही सबसे बड़ी बाधा का उदाहरणों सहित ऑफ द रिकॉर्ड उल्लेख किया। श्री जूदेव ने कहा था कि जब भी वह गलत तरीके से हो रहे धर्मान्तरण के विरुद्ध कानूनी संघर्ष का प्रयास करते हैं, तब दिल्ली से भोपाल आने वाले एक फोन कॉल के इशारे पर उन्हें प्रताड़ित तथा हतोत्साहित करने का प्रयास किया जाता है।
 
यह साक्षात्कार वर्ष 1997 में लिया गया था। तब केंद्र में श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी और मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे।आज न उरांव जी हमारे बीच हैं और न ही जूदेव अब इस दुनिया में रहे। लेकिन वह खरपतवार बढ़ती ही जा रही है, जो आदिवासियों को हिंदू धर्म से अलग करने के लिए हरेक पैंतरा आजमाती है और जिसकी इन कोशिशों को इस लिए नहीं रोका जा सक रहा है कि अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 वर्ष 1970 में बुने गए मकड़जाल से आज तक मुक्त नहीं कराया जा सका है। यह विडंबना सचमुच सिहरन से भर दे रही है।