
सरदार ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ. उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और1907में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी.1917में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। ऊधम सिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई।
उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए।स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 1919 का 13अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है,जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों, बच्चे, बुढ़े, युवा, महिलायें सभी को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना ने ऊधम सिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली।
ऊधम सिंह ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने अपने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।इस के बाद घटना ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओडायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे।अपने मिशन को अंजाम देने हेतु ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की.सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने एक कार ख़रीदी और छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली।
भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ' डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940में मिला।जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी, जहाँ माइकल ओ' डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए।उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली।
बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं. जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई।गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए।ऊधमसिंह ने बिना भागे स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला।अदालत में उनसे पूछा कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। 'इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि,वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा-'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देश वासियों की दुर्दशा देखी है।मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं।मुझे मरने का डर नहीं है।देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।
04 जून 1940 को ऊधम सिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया. और 31जुलाई 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल'में फाँसी दे दी. इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया. 31 जुलाई 1974को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे.ऊधम सिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई हैं.