स्वर साधक संगम : घोषवादन के लिए ही अपना सर्वस्व समर्पण करने वाले संघ प्रचारक सुब्बू श्रीनिवासन

वर्तमान सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने संघ घोष को दिया है महत्व

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    22-Nov-2021
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को व्यक्तित्व निर्माण की पाठशाला कहा जाता है। संघ की शाखा में नियमित जाने वाले व्यक्ति का कैसे धीरे-धीरे विकास होता है. यह वह व्यक्ति खुद भी नहीं समझ पाता लेकिन सार्वजनिक जीवन में एक संघ स्वयंसेवक की अलग पहचान बन जाती है वह जो भी कार्य करता है पूरे लगन व निष्ठा से परिपूर्ण होकर करता है । यही वजह है संघ ने अपने निर्माण से लेकर आजतक जिस क्षेत्र में भी पदार्पण किया सर्वश्रेष्ठ बनकर उभरा है । ऐसा ही क्षेत्र है घोष वादन से जुड़ा । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शाखा और शाखा में शारीरिक कार्यक्रमों का बड़ा महत्व है. शाखा पर खेल के साथ ही पथ संचलन का अभ्यास भी होता है. जब स्वयंसेवक घोष (बैंड) की धुन पर कदम मिलाकर चलते हैं, तो चलने वालों के साथ ही देखने वाले भी झूम उठते हैं । पिछले कुछ वर्षों में संघ के घोष वादकों ने अनेक वाद्य यंत्रों पर स्वदेशी संगीत रचनाओं का प्रस्तुतिकरण करके पूरी दुनिया के संगीत रसिकों व आम नागरिकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। जब घोष की धुन पर कदमताल करते स्वयंसेवक संचलन निकालते हैं तो लोग स्तब्ध होकर कह उठते हैं वाह संघ का बैंड तो सेना के जैसा प्रभावी है।
 
वर्तमान सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने तो संघ घोष को इतना महत्व दिया है कि पिछले दो तीन वर्षों में वे राष्ट्रीय से लेकर प्रांतीय घोष शिविरों में पूरा समय देकर खुद मार्गदर्शन करते रहे हैं। ऐसे ही एक स्वर साधक संगम में जो कि ग्वालियर में 25 से 28 नवंबर तक होने जा रहा है सरसंघचालक डॉ भागवत तीन दिनों तक रहने वाले हैं।
 
इस अवसर पर जब आरएसएस का घोष पूरे देश में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ रहा है उस समय यदि संघ प्रचारक सुब्बू श्रीनिवासन की चर्चा करना बेहद आवश्यक है। यूं तो किसी भी कार्य की सफलता के पीछे अनेक लोगों की मेहनत छुपी होती है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कार्य की सफलता के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देते हैं। घोष विभाग को नया रूप देकर उसके विकास में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले श्री सुब्बू श्रीनिवास ऐसे ही प्रेरणा पुंज कहे जा सकते हैं।
 
श्री सुब्बू श्रीनिवास का जन्म 10 अप्रैल, 1940 को मैसूर (कर्नाटक) में एक सामान्य दुकानदार बीजी सुब्रह्मण्यम तथा शुभम्म के घर में हुआ. सात भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे. अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में वे भी शाखा जाने लगे. पढ़ाई में उनका मन बहुत नहीं लगता था. अतः जैसे-तैसे मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण की. उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में पढ़ने वाले एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री जी भी आते थे, (जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने) उनके सहयोग से सुब्बू परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे.
 
1962 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक यादवराव जोशी की प्रेरणा से सुब्बू प्रचारक बने. उनके बड़े भाई अनंत ने यह आश्वासन दिया कि घर का सब काम वे संभाल लेंगे. प्रचारक बनने के बाद उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया. पुणे में 1932 से एक घोष शाखा लगती थी. घोष में रुचि होने के कारण उन्होंने छह माह तक वहां रहकर घोष का सघन प्रशिक्षण लिया और फिर वे कर्नाटक प्रांत के ‘घोष प्रमुख’ बनाये गये.
 
संघ के घोष की रचनाएं सेना से ली गयी थीं, जो अंग्रेजी ढंग से बजाई जाती थीं. घोष प्रमुख बनने के बाद सुब्बू जी ने इनके शब्द, स्वर तथा लिपि का भारतीयकरण किया. वे देश भर में घूमकर विषय के विशेषज्ञों से मिले. इससे कुछ सालों में ही घोष पूरी तरह बदल गया. उन्होंने अनेक नई रचनाएं बनाकर उन्हें ‘नंदन’ नामक पुस्तक में छपवाया. टेप, सीडी तथा अतंरजाल के माध्यम से क्रमशः ये रचनाएं देश भर में लोकप्रिय हो गयीं.
 
पथ संचलन में घोष दल तथा उसके प्रमुख द्वारा घोष दंड का संचालन आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र होता है. सुब्बू जी जब तरह-तरह से घोष दंड घुमाते थे, तो दर्शक दंग रह जाते थे. 20-25 फुट की ऊंचाई तक घोष दंड फैंककर उसे फिर पकड़ना उनके लिए सहज था. मुख्यतः शंखवादक होने के बाद भी वे हर वाद्य को पूरी कुशलता से बजा लेते थे.
 
1962 में श्रीगुरुजी के आगमन पर हुए एक कार्यक्रम में ध्वजारोहण के समय उन्होंने शंख बजाया. उसे सुनकर अध्यक्षता कर रहे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने कहा कि सेना में भी इतना अच्छा स्वर कभी नहीं सुना. सुब्बू जी ने उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि स्थानों पर कारीगरों के पास घंटों बैठकर घोष दंड तथा वाद्यों में आवश्यक सुधार भी करवाये.
 
जब घोष विभाग को एक स्वतन्त्र विभाग बनाया गया, तो उन्हें अखिल भारतीय घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी. इससे उनकी भागदौड़ बहुत बढ़ गयी. उन्होंने देश के हर प्रांत में घोष वादकों के शिविर लगाये, इससे कुछ ही वर्षों में हजारों नये वादक और घोष प्रमुख तैयार हो गये. पर प्रवास की अव्यवस्था, परिश्रम और भागदौड़ का दुष्प्रभाव उनके शरीर पर हुआ और वे मधुमेह तथा अन्य कई रोगों के शिकार हो गये. इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे, पर अंततः उनके शरीर ने जवाब दे दिया और 18 जनवरी, 2005 को उनका स्वर सदा के लिए घोष-निनाद में विलीन हो गया.