देशद्रोह बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सीमा विवाद

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    19-Oct-2021
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   महामना जगदीश गुप्त   

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देशद्रोह तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच का सीमा विवाद हम पिछले 75 वर्षों में सुलझा नहीं पाए हैं। यह एक बड़ी चुनौती है। यह बड़ी असफलता है।इस विवाद के बने रहने से व्यवस्था की अनेक मर्यादाएं भंग होती रहती हैं। उनके दुष्प्रभाव धीरे-धीरे इतने बड़े हो जाते हैं कि वह कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन जाते हैं ।तथा देश के शांतिप्रिय तटस्थ नागरिकों की स्वतंत्रता का अपहरण करना आरंभ कर देते हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दो तेलुगु ( भाषा ) न्यूज़ चैनलों को आंध्र प्रदेश सरकार की जबरन कार्यवाही से बचाते हुए कहा कि - यह देशद्रोह की सीमा को परिभाषित करने का समय है। 
 
 
एक ओर संविधान का अनुच्छेद 19 प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार मत और विश्वास को मौखिक ,लेखन, मुद्रण, चित्र या अन्य किसी तरीके से स्वतंत्र रूप में व्यक्त करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।दूसरी ओर आईपीसी की धारा 153 ए ,,धर्म, जाति ,जन्म ,स्थान ,निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले या सद्भाव नष्ट करने वाले कृत्य करने वालों को दंडित करती है।आईपीसी की धारा 505 ऐसी ही सामग्री के प्रकाशन और प्रसार को अपराध घोषित करती है।
 आईपीसी की धारा 124 ए भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौलिक लिखित संकेतों अध्यक्ष दृश्य रूप में घृणा अवमानना या उत्तेजना के प्रयास को अपराध मानती है।
 
यह धारा राष्ट्र विरोधी अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने के लिए आवश्यक है। तर्क दिया जाता है कि सरकार से असहमति और उसकी आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र में परिपक्व सार्वजनिक बहस के लिए आवश्यक तत्व है। इन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से इन शब्दों से असहमत होने का कोई कारण ही नहीं है। किंतु अलग-अलग स्वार्थों और प्रेरणा से प्रेरित बुद्धिपिशाच, समाज को ठगने वाली व्याख्याएं परोसते हैं।
पिछले 75 वर्षों में ऐसे अवसर बार-बार आए जब कुछ भाषणों ने या पर्चों में लिखी भाषा ने घोर सामाजिक विद्वेष को जन्म दिया। हर बार बहुतेरे लोगों को जान माल सम्मान की हानि उठानी पड़ी। विस्थापन का दर्द उनके जीवन में स्थाई हो गया। फिर भी उन को प्रेरित करने वालों, उचित ठहराने वालों के विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई।
यदि किसी ने यह कार्यवाही करने का प्रयास भी किया तो उसके विरुद्ध अभियान पूर्वक इन्हीं शब्दों का प्रयोग बार-बार किया गया कि जीवंत लोकतंत्र में सरकार से असहमति अपराध नहीं है। और प्रयास पूर्वक इस तथ्य मान्यता को दबा दिया गया कि अपराध की प्रेरणा देने वाला ही प्राथमिक अपराधी है।
यह अभियान चलाने वालों में कोई भी मौलिक चिंतक नहीं होता अपितु यह सब प्रयास पूर्वक स्थापित किए गए उपाधिधारी होते हैं   जिन्हें हम कपटाचारी कहना अधिक उपयुक्त मानते हैं। जो लोग अपने देश से ,माटी से ,अपनी जन्मभूमि से, अपनी मां, अपने परिजनों ,पड़ोसियों और प्रकृति से प्रेम नहीं कर पाते वह वस्तुतः दुर्भाग्यशाली ही होते हैं । अतः यह दुर्भाग्यशाली कथित बुद्धिजीवी जिन्हें मैं अविवेकी बुद्धिपिशाच ही कहूंगा - ये लोग विभिन्न कारणों से दूरगामी हितों के प्रति दृष्टिबाधित हैं। अपने किंचित लाभों के लिए अपनी बौद्धिक क्षमता का दुरुपयोग करने वालों का यह गिरोह , भारत की स्वतंत्रता के वास्तविक सुख में से अपने लिए सुविधाएं और धन चुराता रहता है।  अथवा एक एजेंट के रूप में अपने. विदेशी आकाओं को भेजता /बेचता रहता है।  
 
इनकी पहचान उजागर न हो इसके लिए इन्हें अनेक विदेशी सम्मान पुरस्कार और वृत्तियां ( स्कालराशिप) दिलवाई जाती हैं । सरकारी पदों तक पहुंच बनाकर _यह देश को प्रेम करने वालों अथवा अपने कर्तव्यों का सही पालन करने वालों को प्रताड़ित करते/ करवाते रहते हैं।शासकीय योजनाओं के लाभ भारत विरोध में सहयोग करने वालों को दिलवा देते हैंI जिससे वास्तविक हकदार मूल भारतीय मानस कुंठित और दुर्बल होते जाते हैं। तथा देशद्रोही शक्तियां और अधिक शक्तिशाली, अधिक निर्भय होकर अंततः उपद्रवी भी हो जाती हैं और देश की शांति के लिए खतरा बन जाती हैं। कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग को यदि देशद्रोही माना गया होता तो कश्मीर में कभी पाकिस्तान को समर्थक ना मिलते। न ही पंडितों का पलायन होता। विस्थापन का दर्द उनके जीवन में स्थाई ना हो गया होता।भारतीय सेना और कश्मीरियों को अपने जवान बच्चे न खोना पड़ते ।चीन की सेना के समर्थन में हड़ताल करने वाले कर्मचारियों को यदि माफी न मिलती तो नक्सलवाद का नासूर न पनपता । यह खूनी खेल कभी आरंभ भी नहीं होता ।
 
जेएनयू में लगे देश विरोधी नारों पर यदि समुचित कार्यवाही हो पाती तो दिल्ली दंगों में गई जानें बचाई जा सकती थी। गरीबी रेखा में किसी धनवान का कार्ड बनवा देना अपराध है - किंतु रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों के आधार और राशन कार्ड बनवा देना देशद्रोह है। इसमें सहयोगी प्रत्येक अधिकारी या जनप्रतिनिधि को ढूंढ कर कड़ी सजा दी जानी चाहिए।
राजनीतिक पार्टियों तथा विरोधी पार्टी के नेता की नीतियों की आलोचना करना तो स्वस्थ लोकतंत्रात्मक है, किंतु उसका चरित्र हनन या उसकी चलाई गई योजनाओं में बाधा डालना राजद्रोह है।आपातकाल में देशद्रोह और राजद्रोह की धाराओं के व्यापक और भयानक दुरुपयोग की मिसाल देखने को मिली थी । किंतु कोरोना महामारी के समय में अपने दायित्वों से बचने मात्र के लिए नहीं, अपितु विधि पूर्वक चुनी गई सरकार के प्रति द्वेष फैलाने के लिए, ताकि एक विद्रोह और अव्यवस्था पैदा की जा सके ।इस विचार के साथ ऑक्सीजन प्लांट का पैसा समय पर उपयोग न करना और आवश्यकता से कई गुना अधिक ऑक्सीजन मांगने वाला प्रत्येक अधिकारी और नेता क्या देशद्रोही नहीं है ? जिन प्रदेशोंके हिस्से में से कटौती करना पड़ी तथा इस कमी से जो कोरोना के मरीजों का इलाज नहीं हो सका और अन्ततः जिन की जान चली गई । क्या उनकी हत्या का दोष कलंक अपराध इनके माथों पर नहीं है?
 
अतः देशद्रोह और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सीमा विवाद को शीघ्रता पूर्वक सुलझा कर ही राजनीतिक स्वतंत्रता का वास्तविक सुख भारत के नागरिक भोग पाएंगे। देशद्रोह के अपराधी का समूल उन्मूलन ही देश की सुख शांति के लिए आवश्यक है । अभी चुकाया गया बड़ा मूल्य भी भाविष्य की हानि की तुलना में नगण्य ही ठहरेगा । अतः यह विमर्श आरंभ कर शीघ्रता से निर्णय तक पहुंचाने का संकल्प हीरक जयंती के अवसर पर प्रत्येक भारत प्रेमी विवेकशील नागरिक को लेना होगा। विषैले विचार का बीज वृक्ष बनने से पहले ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए ।