- शुभम शर्मा
कोरोना काल ने दुनिया को दिखाया कि भारत के मंदिर पूजा स्थलों के साथ-साथ संकट के खिलाफ आश्रय स्थली भी है। संकट की उस घड़ी में मंदिरों ने भूखों को भोजन कराया, जरूरतमंदों को आश्रय दिया, प्रवासियों के लिए राहत केंद्र बने और समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया। यह वही भारत है, जहां मंदिर सदियों से न केवल आध्यात्मिक बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन के केंद्र रहे हैं। इसके बावजूद, कुछ विचारधाराएं यह मिथक गढ़ती रही हैं कि “धर्म और मंदिर समाज को पीछे ले जाते हैं।” यह धारणा न केवल तथ्यों के विपरीत है, बल्कि भारतीय सभ्यता की जड़ों को कमजोर करने का सुनियोजित प्रयास भी है।
सांस्कृतिक मार्क्सवाद और उसका एजेंडा
कार्ल मार्क्स ने धर्म को “जनता की अफीम” कहा। उनके इस कथन को आधार बनाकर 20वीं सदी में सांस्कृतिक मार्क्सवाद नामक विचारधारा विकसित हुई, जिसने धार्मिक संस्थाओं विशेष रूप से मंदिरों को प्रगति का शत्रु बताने का अभियान चलाया। इस विचारधारा ने यह भ्रम फैलाया कि मंदिर अंधविश्वास और शोषण के केंद्र हैं। किंतु यह दृष्टिकोण भारतीय समाज के इतिहास, उसके विज्ञान और सांस्कृतिक योगदान को नजरअंदाज करता है।
मंदिर : ज्ञान, कला और विज्ञान के जीवंत केंद्र
भारतीय मंदिर केवल ईश्वर भक्ति के स्थल नहीं थे, बल्कि ज्ञान, कला, संगीत, नृत्य और विज्ञान के केंद्र भी रहे।
यही दिव्य स्थान कला और संस्कृति के संवाहक रहे हैं। भरतनाट्यम, ओडिसी, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम जैसे शास्त्रीय नृत्य मंदिरों के प्रांगणों में पनपे। मंदिरों की मूर्तिकला, शिल्पकला और भित्तिचित्रों ने भारतीय कला को विश्व पटल पर विशिष्ट पहचान दी।
भारत में संगीत का विकास पर जब दृष्टि डालते है तो मंदिरों में होने वाले भजन, राग, वाद्ययंत्रों का प्रयोग और देववाणी ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की नींव रखी। तंजावुर और मदुरै जैसे मंदिर संगीत परंपरा के प्रमुख केंद्र बने।
साथ ही भारतीय मंदिरों की कहानियों में विज्ञान छिपा है। भगवान शिव को समय के देवता माना गया। शिवलिंग पर चढ़ाई जाने वाली वस्तुएं जैसे दूध (जीवन चक्र), बेलपत्र (त्रिकाल), धतूरा (समय का विषाक्त पक्ष) और जल सभी समय, जीवन और प्रकृति के चक्र से जुड़े प्रतीक हैं। मंदिरों की स्थापत्य रचना सूर्य की किरणों, ग्रहों की स्थिति और दिशाओं के वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित होती थी।
नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय मंदिरों के संरक्षण में फले-फूले, जहां दर्शन, खगोल शास्त्र, गणित, आयुर्वेद और साहित्य का अध्ययन होता था।
अर्थव्यवस्था और सेवा का माध्यम
मंदिर केवल दान-संग्रहण तक सीमित नहीं थे, बल्कि उनका पुनर्वितरण समाज में समृद्धि और रोजगार का माध्यम बनता था। एक बड़े मंदिर से सैकड़ों लोग जुड़े रहते शिल्पकार, मूर्तिकार, राजमिस्त्री, रसोइये, पुजारी, बागवान, संगीतकार और सेवक। अकाल या विपत्ति के समय मंदिर निर्माण और जीर्णोद्धार कार्य रोजगार सृजन के साधन बनते थे।
सांस्कृतिक प्रचार बनाम भारतीय सत्य
सांस्कृतिक मार्क्सवाद का उद्देश्य केवल धर्म-विरोध नहीं, बल्कि समाज की सांस्कृतिक जड़ों को कमजोर करना है। मंदिरों को “अंधविश्वास का अड्डा” बताने का नैरेटिव इसी रणनीति का हिस्सा है। जब युवा पीढ़ी अपनी परंपराओं को हीन दृष्टि से देखने लगती है, तब वह उनसे कट जाती है और पश्चिमी भौतिकवादी मूल्यों की ओर आकर्षित होती है।
मंदिर : अतीत की धरोहर नहीं, भविष्य की दिशा
आज जब पूरी दुनिया टिकाऊ विकास, मानवीय मूल्यों और सामुदायिक जीवन की ओर देख रही है, भारत के मंदिर फिर से एक आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं। मंदिरों को कला, संस्कृति और नवाचार के पुनर्जागरण केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। संगीत, नृत्य और पारंपरिक शिल्पकला को मंदिरों के माध्यम से पुनर्जीवित किया जा सकता है। मंदिर आधारित विज्ञान और आध्यात्मिकता को आधुनिक शिक्षा से जोड़ा जा सकता है।
धर्म और मंदिर समाज को पीछे ले जाते हैं, यह कथन न केवल भ्रामक है, बल्कि भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक, कलात्मक और सामाजिक भूमिका की अवहेलना भी करता है। मंदिर भारतीय समाज को जोड़ने, पोषित करने और आगे बढ़ाने का कार्य करते आए हैं। उन्होंने कला को पाला, विज्ञान को संरक्षित किया, संगीत को दिशा दी और समाज को सेवा की संस्कृति दी।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी इस गौरवशाली परंपरा को न केवल संरक्षित करें, बल्कि उसे वर्तमान समय के अनुरूप और अधिक प्रभावी बनाएं। भारत के मंदिर केवल अतीत का वैभव नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा हैं एक ऐसे भविष्य की, जहां धर्म, विज्ञान और विकास एक ही धारा में प्रवाहित हों।