
डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
भारतीय परंपरा में विजयादशमी का पर्व केवल राम की रावण पर विजय का स्मरण नहीं है, बल्कि यह सत्य पर असत्य की, धर्म पर अधर्म की और संगठन पर बिखरी हुई शक्ति की विजय का प्रतीक है। श्रीगुरुजी (माधव सदाशिव गोलवलकर) इस पर्व को संघ के लिए विशेष महत्त्व का मानते थे। वे कहते थे कि रावण जैसी अपार भौतिक शक्ति भी संगठित वानर सेना के सामने टिक नहीं पाई। वानरों के पास न अस्त्र-शस्त्र थे, न धन-बल, फिर भी संगठित सामूहिक प्रयास से उन्होंने एक महाबली राक्षस को परास्त किया। यही संदेश आज के समाज के लिए भी है - श्रद्धा, आशा और उत्साह से भरे हुए संगठित बल के सामने कोई संकट स्थायी नहीं रह सकता।
संघ-स्थापना और विजयादशमी का संयोग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना विजयादशमी (1925) के पावन दिन पर हुई। इसीलिए यह पर्व संघ के लिए केवल धार्मिक या सांस्कृतिक उत्सव नहीं, बल्कि "नवयुग की शुरुआत" का प्रतीक है। आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने इस दिन को चुना क्योंकि यह विजय, शक्ति और संगठन का द्योतक है। एक पतित, पराभूत और आत्मविश्वास-शून्य हिंदू समाज में नवचैतन्य, आत्मबल और विजय की आकांक्षा जगाने के लिए इस दिन का चयन राष्ट्रजीवन की दिशा तय करने वाला कदम था।
विजयादशमी पर संघ का आत्मावलोकन और आगे की राह
एन.एच. पालकर लिखते हैं कि संघ का प्रत्येक विजयादशमी उत्सव आत्मावलोकन और प्रगति का अवसर है। इस दिन संघ अपने "गतवर्ष की सीमा को पार करने" का संकल्प करता है। यह केवल पर्व नहीं, बल्कि संघ का जन्मदिन है, जब संगठन अपनी उपलब्धियों को देखता है और नए संकल्पों की राह बनाता है।
पहला पथ संचलन और ऐतिहासिक प्रसंग
डॉ. हेडगेवार ने विजयादशमी के अवसर पर नागपुर में सैनिक पद्धति से पथ संचलन का आयोजन किया। उस समय लगभग पाँच–छह सौ स्वयंसेवक अनुशासनबद्ध होकर संचलन की तैयारी कर रहे थे। इसी अवसर पर श्री विट्ठलभाई पटेल (विधायी सभा के प्रथम अध्यक्ष और स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर नेता) नागपुर आए। डॉ. हेडगेवार के आमंत्रण पर वे संघ के कार्यक्रम में पहुँचे। जब उन्होंने स्वयंसेवकों का अनुशासनबद्ध प्रदर्शन देखा तो अत्यंत प्रभावित हुए।
कार्यक्रम के उपरांत डॉ. बी.एस. मुंजे ने विट्ठलभाई पटेल को संघ का परिचय देते हुए कहा-
“संघ का उद्देश्य ऐसी परिस्थिति निर्माण करना है कि जब युवकों से पूछा जाए कि ‘हिंदुस्थान किसका है?’ तो वे निर्भीक होकर उत्तर दें कि ‘हम हिंदुओं का।’”
यह वाक्य उस कालखंड की ऐतिहासिक आवश्यकता को स्पष्ट करता है, जब आत्महीनता और पराधीनता ने हिंदू समाज को जकड़ रखा था।
विट्ठलभाई पटेल का मार्गदर्शन
स्वयंसेवकों के अनुशासन से प्रभावित होकर विट्ठलभाई पटेल ने संक्षिप्त परंतु प्रभावशाली शब्दों में कहा-
“जगत में ईश्वर को छोड़कर किसी से डरो मत। अपने कार्य पर अविचल निष्ठा रखकर कार्य-वृद्धि करो।”
यह संदेश संघ के युवकों के लिए प्रेरणास्रोत बना।
डॉ. हेडगेवार की दूरदर्शिता
डॉ. हेडगेवार ने विजयादशमी के अवसर पर स्पष्ट कहा-
“आज यदि किसी वस्तु की सर्वाधिक आवश्यकता है, तो वह है प्रत्येक हिंदू का अंतःकरण राष्ट्रनिष्ठ बनाना। जब प्रत्येक हिंदू का हृदय राष्ट्र के प्रति समर्पित होगा, तब साधन और साध्यता स्वतः मिल जाएँगे और राष्ट्र स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होगा।”
उन्होंने पांडवों का उदाहरण दिया कि जैसे उन्होंने शमीवृक्ष में अपने आयुध सुरक्षित रखे थे, वैसे ही आज हमें शस्त्रों की अपेक्षा अनुशासन, संगठन और राष्ट्रनिष्ठा को अपना प्रधान साधन बनाना चाहिए।
विजयादशमी का वास्तविक संदेश
संघ के लिए विजयादशमी का संदेश है-
- व्यक्तिगत बल से अधिक संगठित शक्ति का महत्त्व।
- अनुशासन, राष्ट्रनिष्ठा और आत्मविश्वास से युक्त संगठन ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है।
- विजय केवल शस्त्रों से नहीं होती, बल्कि संगठित सामाजिक शक्ति ही वास्तविक विजय की जननी है।
समकालीन संदर्भ
आज जब भारत अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है जैसे सांस्कृतिक आक्रमण, सामाजिक विघटन और राजनीतिक दबाव तब विजयादशमी का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। रावण की तरह आज भी असत्य और अधर्म के कई रूप समाज को कमजोर करना चाहते हैं। ऐसे में रामचंद्र की संगठित वानर सेना से प्रेरणा लेकर हमें भी संगठित समाज का निर्माण करना होगा।
विजयादशमी का पर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए केवल ऐतिहासिक स्मृति नहीं, बल्कि संगठन और शक्ति का निरंतर स्रोत है। यह दिन संघ को उसकी जड़ों से जोड़ता है, स्वयंसेवकों को अनुशासन और राष्ट्रनिष्ठा का स्मरण कराता है और हिंदू समाज को आत्मविश्वास से भरे भविष्य की ओर अग्रसर करता है।