पितृमोक्ष अमावस्या : ऋग्वेद से रामचरितमानस तक पितरों की महत्ता का वर्णन

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    21-Sep-2025
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रमेश शर्मा

पितृमोक्ष अमावस्या शरद ऋतु के समापन और हेमंत के आरंभ की तिथि है। ऋतुओं के इस मिलन से मौसम परिवर्तन आरंभ होता है। इस ऋतु-संगम से उत्सर्जित अनंत ऊर्जा से समाज जीवन को समृद्ध बनाने की साधना का दिन है पितृमोक्ष अमावस्या। इस वर्ष यह तिथि 21 सितंबर को है।

प्रकृति रहस्यमयी ऊर्जाओं से भरी है। यही ऊर्जाएँ धरती के जीवन का आधार हैं। प्रत्येक प्राणी प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करके ही अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। लेकिन मनुष्य ने प्रकृति से अतिरिक्त ऊर्जा ग्रहण करके अपने जीवन को अधिक समृद्ध बनाने के उपाय खोजे। जो जितनी ऊर्जा जाग्रत कर ले, वह उतना ही सफल और समृद्ध होता है। प्रकृति के रहस्य को समझने और प्राकृतिक ऊर्जा से जीवन को समृद्ध बनाने के लिए भारतीय ऋषि-मनीषियों ने सैकड़ों-हजारों वर्षों तक साधना की और प्रकृति की गति के अनुरूप जीवन शैली विकसित की। भारत यदि विश्वगुरु और संसार का सबसे समृद्ध राष्ट्र रहा है तो इसके मूल में प्रकृति से संतुलन बनाकर स्वयं को समृद्ध बनाने के यही सूत्र हैं। इसे हम भारतीय वाङ्मय में निर्धारित दिनचर्या, तीज-त्योहार, उत्सव और उनके आयोजन के विधि-विधान से समझ सकते हैं। समाज जीवन को प्रकृति की ऊर्जा से सशक्त बनाने का यही उद्देश्य अश्विन माह की पितृमोक्ष अमावस्या के आयोजन में है।

अश्विन माह का कृष्णपक्ष "पितृपक्ष" कहलाता है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से आरंभ होकर अश्विन माह की अमावस्या तक कुल सोलह दिन रहता है। पितृपक्ष का समापन अमावस्या के दिन होता है। पौराणिक प्रावधानों के अनुसार इस दिन सभी ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का स्मरण करके उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसीलिए इस अमावस्या का नाम "सर्व पितृमोक्ष अमावस्या" है। इस तिथि के आयोजन विधान में दो महत्वपूर्ण प्राकृतिक रहस्य छिपे हैं। एक, ऋतु-संगम से होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन से समाज को समृद्ध बनाना और दूसरा, पितृ-स्मरण के माध्यम से सृष्टि की रहस्यमयी अनंत ऊर्जा से अपने जीवन को सशक्त बनाना।

पितरों की महत्ता : ऋग्वेद से रामचरितमानस तक
भारतीय वाङ्मय में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं जिसमें पितरों की महत्ता का वर्णन न हो। ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत, सभी अठारह पुराण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस सहित सभी ग्रंथों में पितरों के आव्हान और उन्हें तृप्त करने का विवरण है। कहीं कथानक के रूप में वर्तमान पीढ़ी का कोई पात्र अपने पूर्वजों का तर्पण करता है तो कहीं पितरों को प्रसन्न करने की विधि और मंत्रों का वर्णन मिलता है। पितरों की महत्ता का सबसे विस्तृत विवरण गरुड़ पुराण में है। इसमें पितृपक्ष की प्रत्येक तिथि के अनुसार पितरों का आव्हान और पूजन विधान बताया गया है, जबकि सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में है।

ऋग्वेद के दसवें मंडल के पंद्रहवें सूक्त को "पितृसूक्त" के नाम से जाना जाता है। इस सूक्त में कुल चौदह ऋचाएँ हैं। इनमें पितरों को विभिन्न देवों के समीप मानकर अग्निदेव के माध्यम से प्रार्थना की गई है कि वे अपने परिवार जनों को सुखी और क्लेशरहित जीवन देने की कृपा करें। पितरों से यह भी याचना की गई है कि वे देवताओं तक प्रार्थना पहुँचाएँ। एक ऋचा में अपने किए गए अपराध के लिए पितरों से क्षमा माँगी गई है, तो एक अन्य ऋचा में उनकी संपत्ति का उपयोग करने की अनुमति मांगी गई है। इसी प्रकार सभी ऋचाओं में विविध प्रार्थनाएँ हैं।

भारतीय वाङ्मय के लगभग सभी ग्रंथों में ऋग्वेद के ज्ञान का विस्तार है, जो समय के साथ कथाओं के रूप में प्रस्तुत हुआ। यही कारण है कि पूर्वजों के स्मरण में ऋग्वेद के पितृसूक्त और अन्य ग्रंथों के विवरण में कुछ अंतर दिखाई देता है। बाद के ग्रंथों में प्रार्थना तो है ही, साथ ही कुछ ग्रंथों में पितरों के नर्क से मुक्ति के लिए भी प्रार्थना है। सभी पितरों का मोक्ष हो, इसी उद्देश्य से इस अमावस्या का नाम "सर्व पितृमोक्ष अमावस्या" पड़ा। ऐसा वर्णन श्रीमद्भागवत और महाभारत में भी मिलता है। इनमें यह उल्लेख है कि यदि किसी व्यक्ति के पापकर्म के कारण वह अधोगति में पहुँच गया हो तो सर्व पितृमोक्ष अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा किए गए तर्पण से उसकी मुक्ति संभव है। श्रीमद्भागवत की गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा के अनुसार धुंधुकारी अपने जीवन के पापकर्मों के कारण नर्क में चला गया था, जिसकी मुक्ति के लिए गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया और उसे मोक्ष मिला।

पितृमोक्ष अमावस्या का वर्तमान समाज को संदेश
सभी पितरों का एक साथ स्मरण करने की तिथि सर्व पितृमोक्ष अमावस्या की दिनचर्या और पूजन-विधान सृष्टि की अलौकिक शक्ति से जुड़ने की प्रक्रिया है। यह प्रकृति और उसके प्राणियों से समन्वय बनाने और अपनी जीवन शैली को आदर्श बनाने का संदेश भी देती है। इस दिन पहले पितरों का प्रतीक पिंड बनाकर पूजन किया जाता है, फिर मछलियों, चींटियों, गाय, कुत्ते और अभ्यागत के लिए पाँच ग्रास निकाले जाते हैं। यह पिंड और मछलियों के लिए ग्रास जल में डाला जाता है। मछलियाँ जल को शुद्ध रखती हैं। गाय की महत्ता हम जानते हैं। कुत्ते की संघर्षशीलता, शत्रु-मित्र को पहचानने की शक्ति और स्वामीभक्ति परिचित गुण हैं। चींटियों की परिवार और समूह व्यवस्था अनुकरणीय है। अभ्यागत का ग्रास पीपल पर रखा जाता है, जिसकी महत्ता भी सर्वविदित है।

प्रकृति और प्राणियों से समन्वय के साथ वे कथाएँ भी जुड़ी हैं जिनमें पापकर्म के कारण नर्क की प्रताड़ना और अच्छे आचरण से स्वर्ग प्राप्ति का संदेश मिलता है। यह मनुष्य के समाज जीवन को आदर्श बनाने का सूत्र है। पितरों के स्मरण और उनकी कृपा प्राप्त करने की अवधारणा से कुटुंब सशक्त होता है। पाँच ग्रास की परंपरा जल, पीपल और प्राणियों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण और सभी जीवों के प्रति संरक्षण का भाव जाग्रत करती है। इसी कारण विज्ञान, समाजशास्त्र और दुनिया के विभिन्न विद्वानों ने सर्व पितृमोक्ष अमावस्या को एक अद्भुत तिथि माना है और इस पर शोध भी किए हैं।

विज्ञान की दृष्टि : ऋतु-संगम से उत्पन्न अनंत ऊर्जा से जुड़ने का दिन
भारतीय कालगणना में प्रकृति परिवर्तन का अध्ययन करके वर्ष को छह ऋतुओं में बाँटा गया है। इसका आधार सूर्य सहित विभिन्न ग्रहों की गति और उनका पृथ्वी पर पड़ने वाला प्रभाव है। इसी से पृथ्वी का मौसम बदलता है, गर्मी, सर्दी, वर्षा तीन प्रमुख मौसम और इनके बीच की तीन संधि-ऋतुएँ। अश्विन माह की अमावस्या शरद और हेमंत ऋतु का संगम है। यदि पृथ्वी के खिलने की ऋतु बसंत मानी गई है तो हेमंत को पृथ्वी की अंगड़ाई लेने की ऋतु माना गया है। इसी ऋतु में फसल चक्र भी परिवर्तित होता है। वर्षा ऋतु में जल और पृथ्वी तत्व प्रभावी होते हैं, जिसे हम किसी जलाशय या सरोवर के मटमैले पानी से देख सकते हैं। लेकिन हेमंत ऋतु में पाँचों तत्वों का संतुलन बनता है, जिससे जलधाराएँ निर्मल दिखने लगती हैं और पंछियों की चहक बढ़ती है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हेमंत ऋतु में पड़ने वाली शरद पूर्णिमा को महासागर में लहरें उछाल मारने लगती हैं। यह सब प्रकृति की ऊर्जा के कारण होता है। हेमंत ऋतु में विचरने वाली यह ऊर्जा अश्विन माह की अमावस्या को उत्सर्जित होती है। इस अमावस्या को ब्रह्म मुहूर्त में उठना, किसी सरोवर या नदी तट पर स्नान करना, ऊषाकाल तक सूर्य को अर्घ्य देना, लौटकर पूजन करना और प्रथम प्रहर के समापन तक सभी ज्ञात-अज्ञात पितरों का स्मरण करना अनिवार्य माना गया है। पितृ गायत्री से हवन भी किया जाता है।
इस पूरी प्रक्रिया में लगभग सात घंटे लगते हैं। इन सात घंटों में मन सहित सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ एकाग्र रहती हैं। यह एकाग्रता व्यक्ति के चेतन और अवचेतन को संतुलित करती है। माना जाता है कि दिवंगत परिजनों की आत्मा इसमें सहायक होती है। हमारा अवचेतन सृष्टि की अलौकिक ऊर्जा से जुड़ा होता है और यही व्यक्ति को अलौकिक ऊर्जा अर्थात "डिवाइन एनर्जी" से जोड़ता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यदि हम व्यक्ति के दृश्यमान स्वरूप को पदार्थ और अदृश्य स्वरूप को ऊर्जा मानें, तो जिस प्रकार किसी पदार्थ के नष्ट होने पर उसमें निहित ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा भी कभी नष्ट नहीं होती।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने इस ऊर्जा के संरक्षण और रूपांतरण की व्याख्या की है। यह अदृश्य शक्ति या "कैटलिसिस" कौन है जो किसी ऊर्जा को एक पदार्थ का आकार लेने और फिर दूसरे रूप में बदलने की प्रक्रिया को संचालित करती है? भारतीय चिंतन के अनुसार प्रत्येक प्राणी में अदृश्य आत्मा होती है जो कभी नष्ट नहीं होती, बल्कि एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करती है। यह सब प्रकृति की चेतना से ही संचालित होता है। वही परम शक्तिमान है और विज्ञान की भाषा में "सुपर एनर्जी"। यदि प्रकृति में कोई सुपर एनर्जी है तो प्रयास करके उसका कुछ अंश प्राप्त भी किया जा सकता है। यह तभी संभव है जब प्रकृति शांत हो और सभी तत्वों में समन्वय व संतुलन हो, जैसा हेमंत ऋतु में होता है। इस समय सृष्टि के पाँचों तत्वों का स्वमेव संतुलन रहता है और वह सुपर डिवाइन एनर्जी अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय होती है। उस समय यदि हमारे अवचेतन की ऊर्जा का संपर्क उससे बन जाए तो व्यक्ति भी उससे संपन्न हो सकता है।