-रमेश शर्मा
इस वर्ष विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे करने जा रहा है। इन सौ वर्षों में असंख्य संगठनों ने आकार लिया। लेकिन उनमें से अधिकांश समय की यात्रा में कहीं खो गये। जो शेष हैं, वे या तो सिमटकर अपना अस्तित्व बचाये हुए हैं अथवा उनके लक्ष्य और मार्ग दोनों बदल गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक मात्र ऐसा संगठन है जिसका न कार्य बदला और न कार्यशैली। वह अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर निरंतर आगे बढ़ रहा है। और आज विश्व का सबसे विशाल संगठन के रुप में प्रतिष्ठित है।
संसार में कोई वस्तु, विचार, व्यक्ति अथवा प्राणी अकस्मात जन्म नहीं लेते। वे प्रकृति की लंबी यात्रा के बाद आकार लेते हैं। प्रकृति संतुलन से चलती है। इसमें अंधकार और प्रकाश दोनों साथ चलते हैं। इसीलिए संसार में आने वाले विचार, व्यक्ति समूह अथवा संगठन भी दोनों प्रकार के होते हैं। यदि आत्म केन्द्रित नकारात्मक शक्तियां बढ़ जाती हैं जो सत्य और धर्म का नाश करती हैं, सत पुरुषों को कष्ट पहुँचाती हैं। तो सत्य, धर्म, संस्कृति रक्षा के लिये प्रकृति सत पुरुषों को संसार में भेजती हैं। नियति के इस सिद्धांत को हम अवतार परंपरा से समझ सकते हैं। सामयिक घटनाएँ और सामाजिक परिस्थितियां निमित्त होती हैं, सम विचारी मानव समूह उनके सहयोगी बनते है और आरंभ होता है सत्य सनातन मूल्यों की स्थापना का अभियान। प्रकृति के इस नैसर्गिक सिद्धांत के अनुरूप ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आकार लिया। डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जी उसकी केन्द्र भूत चेतना बने। तब आरंभ हुआ स्वत्व बोध, राष्ट्र चेतना, सामाजिक जाग्रति, और सांस्कृतिक पुनर्प्रतिष्ठा महाअभियान।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह संकल्प यात्रा विजयादशमी 1925 को आरंभ हुई। जिन परिस्थितियों में संघ ने अपनी यात्रा आरंभ की, वे परिस्थितियां साधारण नहीं थीं। चारों ओर अशांति और भय का वातावरण था। राष्ट्र चेतना का निरंतर क्षय हो रहा था केवल अस्तित्व बचाये रखने का दिशाहीन संघर्ष था। अंग्रेजों की कुटिल कुचक्रों से भरी शासन प्रणाली और सनातन परंपराओं और भारत राष्ट्र की मूल चिति को समाप्त करने के षड्यंत्र चारों ओर चला रहा था। भय से आक्रांत हिन्दू समाज कहीं अपनी सुरक्षा का आश्रय ढूँढता तो कही लाभ लालच में फँसकर अपनी विरासत खो रहा था। हिन्दुओं का शांति पूर्वक जीना भी कठिन हो रहा था। भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूपांतरण का यह अभियान नया नहीं था। यह 712 में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण के साथ आरंभ हुआ था। जो सल्तनत काल की हर सत्ता में तीव्रतर रहा। अंग्रेजी काल में लालच, छल और बल के साथ षड्यंत्र भी होने लगे। हिन्दुओं को जाति आधारित बाँटने का कुचक्र चलाया गया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था जन्म या जाति के आधारित नहीं थी। यह गुण और कर्म के आधार पर थी। इसीलिये तो एक भाई कुबेर की पूजा होती है और दूसरे भाई रावण का पुतला जलाया जाता है। मध्यकाल में भी चित्तौड़ की महारानी मीराबाई रैदास जी को अपना गुरु बनातीं हैं। लेकिन विदेशी सत्ताओं के दमन से पूरा राष्ट्रीय स्वरूप खंडित हो गया, समाज जीवन बिखर गया। इस बिखराव का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने सामाजिक विभाजन का कुचक्र चलाया। अंग्रेजों ने कल्पित कहानियाँ गढ़कर समाज में न केवल दूरियाँ बढ़ाई अपितु परस्पर संघर्ष पैदा किया।
महाराष्ट्र में महार रेजीमेन्ट बनाकर मराठा साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा किया। हिन्दू समाज के गौरव प्रतीकों के बारे में कूट रचित प्रसंग जोड़कर विवादास्पद बनाया और हमलावरों को आदर्श चरित्र बताने की कहानियाँ गढ़ीं गई। इसके साथ चर्च भी सक्रिय हुआ और हिन्दुओं का मानसिक एवं सामाजिक परिवर्तन करने लगा। इस कुचक्र से भारतीय समाज जीवन में पूरी तरह भ्रम की स्थिति बन गई। भारत में जो परिस्थितियां बनीं थीं उनसे मुक्ति के लिये सतत संघर्ष भी चला। हर कालखंड में बलिदान हुए। इससे विदेशी सत्ता के कुचक्र में गतिरोध तो आया लेकिन पूर्ण सफलता नहीं मिली थी। राष्ट्रीय भाव जाग्रत करने के लिये चिंतित विचारकों के मन में यह ज्वलंत प्रश्न था कि निरंतर संघर्ष और क्रांतिकारियों के असंख्य बलिदान के बाद भी भारत को स्वतंत्रता न मिलने के कारण क्या रहे ? समय अपनी गति से चला। संघर्ष और बलिदान के साथ अहिंसक आंदोलन का युग आया। फिर भी स्वाधीनता का चित्र स्पष्ट नहीं बन पा रहा था। इस अहिंसक आंदोलन की कमान कांग्रेस के हाथ में थी। स्वतंत्रता समर्थक सभी पक्ष कांग्रेस के नेतृत्व में आंदोलन में सक्रिय थे। इनमें पूर्ण स्वतंत्रता के साथ सांस्कृतिक भारत के निर्माण के समर्थक डॉक्टर हेडगेवार, स्वामी श्रृद्धानंद, डॉक्टर मुँजे और सावरकर जी जैसी विभूतियाँ थे।
कांग्रेस उन दिनों सीधी-सीधी दो अंतर्धाराओं में विभाजित दिख रही थी। एक जो पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे, इन्हें "गरम दल" कहा जाता था और जो अंतरिम स्वतंत्रता पर भी समझौता करने के लिये तैयार थे उन्हें "नरम दल" कहा जाता था। इन दोनों के बीच भारी मतभेद थे। इसके चलते कांग्रेस के अधिवेशनों में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव भी पारित न हो पा रहा था। इसका पूरा लाभ अंग्रेज, मुस्लिम लीग और भारत विरोधी वे स्वार्थी तत्व उठा रहे थे जो भारत के स्वत्व और सांस्कृतिक विरासत को पूरी तरह समाप्त करना चाहते थे। मुस्लिम लीग का गठन भले 1906 में और पाकिस्तान का स्वरूप 1931 में सामने आया लेकिन इसकी भूमिका 1857 की क्रांति के दमन के बाद से ही बनने लगी था। इसे 1886-87 के आसपास सैय्यद अहमद के लेखन से समझा जा सकता है। एक लंबी तैयारी के साथ मुस्लिम लीग ने आकार लिया और पूरे देश में कट्टरपंथ फैलाने का अभियान चलाया। मुस्लिम लीग की पीठ पर अंग्रेजों का हाथ था। अपनी रणनीति के अंतर्गत मुस्लिम लीग के अनेक नेताओं ने कांग्रेस की सदस्यता भी ले ली थी। ताकि कांग्रेस के निर्णय उनके अनुकूल हो सके। मोहम्मद अली जिन्ना भी वर्षों तक दोहरी सदस्यता में रहे। यह मुस्लिम लीग की रणनीति थी कि अंग्रेज सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण के निर्णय लेती रही और कांग्रेस उनका समर्थन करती रही। एक ओर अंग्रेज सरकार के संरक्षण से मुस्लिम लीग का कट्टरपंथ की शक्ति बढ़ रही थी तो दूसरी ओर हिन्दू समाज में बिखराव और भटकाव दोनों बढ़ रहे थे।
इन परिस्थियों से तिलकजी, लाला लाजपत राय, विपिन्द्र चंद्र पाल, सुभाषचंद्र बोस, रास बिहारी बोस, श्यामकृष्ण वर्मा, सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, डॉ मुंजे, डॉ हेडगेवार जी, सावरकर जी आदि अनेक विभूतियाँ बहुत चिंतित थीं। अभिनव भारत, गदर पार्टी, अनुशीलन समिति जैसे संगठन भी सामने आये। इससे स्वतंत्रता और स्वाभिमान के प्रति जाग्रति तो आई सही लेकिन सामाजिक संगठन और संस्कारों की पुनर्प्रतिष्ठा न हो सकी। इसका पूरा लाभ अंग्रेज और मुस्लिम लीग के कट्टरपंथी उठा रहे थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन की भूमिका
कई बार लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वरूप का गठन एक ईश्वरीय कार्य है और प्रकृति ने इसके लिये डॉक्टर हेडगेवार जी को ही निमित्त बनाया था। ऐसा नहीं है कि भारत की विषमता को समाप्त करने की दिशा में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने पहली बार चिंतन किया। उनसे पहले दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि चिंतन ने डॉक्टर जी एक आधार प्रदान किया और वे आगे बढ़े। उनके अंतर्मन और अवचेतन की संकल्पना की झलक उनके बाल्यावस्था की दिनचर्या, बातचीत और व्यवहार राष्ट्रवोध से ही मिलती है। डॉक्टर हेडगेवार जी के जीवन में स्वत्व बोध उस बाल्यावस्था में भी था जब कोई साधारण बालक केवल खाने खेलने के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोच पाता। बाल्यकाल में भी उनका अंतर्मन किसी विशिष्ट दिशा की ओर बढ़ने का संकल्प ले रहा था। राष्ट्र बोध मानो उनके रक्त की एक-एक बूँद में था। उनके परिवार की पृष्ठभूमि भी भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये समर्पित रही हो। बाल्यावस्था में उनकी बातचीत के विषय, उनके मन में उठने वाले प्रश्नों से उनके चेतन और अवचेतन के द्वन्द्व को स्पष्ट करता है।
उनके बाल्यावस्था के दो प्रसंग ऐसे हैं जिनसे पूरा परिवार चौंक गया था। इन दोनों प्रसंगों से डॉक्टर जी की दृढ़ता और संकल्पशीलता का परिचय मिलता है। पहली घटना नागपुर के सीताबर्डी किले की है। इस किले की दीवार पर अंग्रेजों का "यूनियन जैक" लहराया करता था। अंग्रेजों का यह झंडा बालक केशव को अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने कई बार बाहर से उस दिशा में पत्थर फेंके। लेकिन ऊँचाई और दूरी अधिक थी इसलिये पत्थर न पहुँच पाया। एक बार बालक केशव ने मित्रों से मंत्रणा की। और सुरंग खोदकर किले तक पहुंचने और यूनियन जैक उतारकर हिन्दवी स्वराज्य का ‘भगवा-ध्वज’ फहराने की योजना बनाई। सुरंग खोदने का काम शुरू भी कर दिया था किन्तु बड़ों के समझाने से काम रोक दिया।
दूसरी घटना तब की है जब डॉक्टर जी केवल आठ वर्ष के थे। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के जन्म दिन भारत के सभी स्कूलों में बच्चों को मिठाइयां बांटी जा रही थी। मिठाई का दोना जब बालक केशव को दिया गया तो उन्होंने मिठाई का वह दोना कूड़े पर फेंक दिया। इससे विद्यालय प्रबंधन नाराज हुआ और उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। उन्हें नागपुर के किसी विद्यालय में प्रवेश न मिल सका। आगे की पढ़ाई उन्होंने यवतमाल और पूना से की। डाक्टरेट की उपाधि के लिये कलकत्ता गये। कलकत्ता में अपनी पढ़ाई के साथ अन्य विषयों पर भी अध्ययन किया। उनका अधिकांश समय पुस्तकालय में बीतता था। वे उन कारणों को खोजना चाहते थे जिनसे विश्वगुरु भारत दासानुदास बना। डाक्टर जी ने यह अध्ययन भी किया कि कैसे समाज को सशक्त, संगठित और चैतन्य बनाया जाये। इसके लिये उन्होंने जिन मनीषियों के साहित्य का अध्ययन किया उनमें संत तुकाराम का चिंतन, महर्षि दयानन्द का लेखन, स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों का संग्रह, वंदे मातरम गीत के रचयिता बंकिम बाबू का साहित्य शामिल था।
वे आठ वर्षों तक कलकत्ता रहे। कलकत्ता में अपनी पढ़ाई के दौरान वे अनुशीलन समिति से जुड़े, क्रांतिकारियों से मिले अपना अध्ययन और उनके संपर्क से मिले अनुभव लेकर डाक्टर जी 1917 में नागपुर लौटे। अब उनके अध्ययन में तिलक जी का गीता भाष्य और सावरकर जी का हिन्दुत्व भी जुड़ा। उन्होंने मन ही मन कुछ संकल्प किया और भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा भी की। वे महर्षि अरविंद के आश्रम पांडिचेरी भी गये। वहाँ चार दिन रुके। उन्होंने पूरे भारत में एक सी स्थिति देखी और इस दुरावस्था दूर करने के उपायों पर भी मंथन किया। हिन्दुओं में इस दुरावस्था दूर करके चेतना जगाने का प्रयास महर्षि दयानन्द ने भी किया था। लोकमान्य तिलक का गणेशोत्सव अभियान का अंग था। डाक्टर जी ने स्वयं को गणेशोत्सव अभियान से भी जोड़ा। इन सब प्रयत्नों से जाग्रति तो आई लेकिन यह जाग्रति राष्ट्रबोध अभियान का रूप न ले सका। डॉक्टर जी ने राष्ट्रबोध अभियान की निरन्तरता पर सतत चिंतन किया। डाक्टर जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत के पतन का कारण शासक का अदूरदर्शी होना, समाज का आत्म गौरव, राष्ट्रीय भावना शिथिल होने और सामाजिक के असंगठित हो जाने से है। आक्रमणकारी को तो नहीं रोका जा सकता लेकिन आक्रमण होने पर दृढ़ इच्छा शक्ति, संगठन, शक्ति, युक्ति से आक्रमणकारी को सबक सिखाया जा सकता है।
डाक्टर जी मानना था कि इतिहास को तो नहीं बदला जा सकता लेकिन वर्तमान को सुधारकर भविष्य को उत्तम बनाया जा सकता है। उनका चिंतन इसी दिशा में आरंभ हुआ। उनका मानना था वर्तमान परिस्थिति में स्वतंत्रता आंदोलन के साथ व्यक्ति, परिवार, समाज निर्माण कार्य भी होना चाहिए। डाक्टर जी का मानना था कि स्वतंत्रता संघर्ष के साथ जन सामान्य में "हिन्दू राष्ट्र बोध" का स्थाई भाव भी जाग्रत होना चाहिए। तभी दासत्व के घोर अंधकार में उत्पन्न "हिंदू" कहने में हीन बोध भी समाप्त होगा। यह तभी संभव है जब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र गौरव बोध के लिये शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक समागम आयोजित हों। डाक्टर जी के प्रयासों से राष्ट्रबोध जगाने के अभियान समर्थक समविचारी मनीषियों का एक समूह बन गया। लोकमान्य तिलक के मार्गदर्शन में डॉ. मुंजे, नीलकंठ राव उधोजी, नारायण राव अलेकर, नारायण राव वैद्य, डॉ. मोरूभाऊ अभ्यंकर, गोपाल राव ओगले, भवानी शंकर नियोगी, डॉ. खरे, विश्वनाथ राव केलकर, डॉ. गोविन्दराव देशमुख, चोलकर और डॉ. परांजपे जैसी विभूतियाँ शामिल थीं। उन्होंने "नागपुर नेशनल यूनियन" नामक एक समूह बनाया। यह समूह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन की पूर्व पीठिका बना। इसके साथ डाक्टर जी ने हिन्दी समाचार पत्र "संकल्प" का प्रकाशन भी आरंभ किया। समाज सेवा और जन जागरण कार्यों में उनकी ख्याति बढ़ी और अब वे "डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार" के रूप में प्रसिद्ध हुए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन का आधार बनीं कुछ घटनाएँ
उन्हीं दिनों पाँच ऐसी घटनाएँ घटीं जिनसे राष्ट्रवादी चिंतको को झकझोर दिया। इनमें पहला लोकमान्य तिलक का निधन, दूसरी कांग्रेस द्वारा असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को जोड़ना, तीसरी मालाबार में हिन्दुओं का सामूहिक हत्याकांड, चौथा असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी और पाँचवीं कांग्रेस द्वारा मालाबार के हत्यारों को दंडित करने की माँग न करना। ये पांचों घटनाएँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन का आधार बनीं।
ये पांचों घटनाएँ कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के साथ घटीं। यह 1920 की बात है। नागपुर अधिवेशन की अध्यक्षता लोकमान्य तिलक करने वाले थे, लेकिन अचानक उनका निधन हो गया। उनके निधन से कांग्रेस के भीतर मानो गरम दल का समापन हो गया और गाँधीजी के अहिंसक आंदोलन समर्थक प्रभावी हो गये। अधिवेशन की तिथि आगे बढ़ी। दिसंबर 1920 में यह अधिवेशन आरंभ हुआ। कांग्रेस का जितना जोर असहयोग आंदोलन पर था उससे अधिक खिलाफत आंदोलन पर सबको जुड़ने का आह्वान। खिलाफत आंदोलन से अंग्रेज तो न झुके और न उन्होंने तुर्की में खलीफा व्यवस्था बहाल किया लेकिन इससे भारत के कट्टरपंथी संगठित और आक्रामक हो गये। आंदोलन हुआ लोग जेल गये। डाक्टर जी ने भी आंदोलन में भाग लिया। वे गिरफ्तार हुए। उन्हें एक वर्ष के कारावास की सजा मिली। जेल से मुक्त हुए तो उन्होंने दो दृश्य देखे। एक गाँधी जी आंदोलन वापस ले लिया और दूसरी मालाबार में हिन्दुओं की हत्याओं, स्त्रियों से बलात्कार और उनकी संपत्ति छीनने पर देश व्यापी चुप्पी। जेल से लौटकर डाक्टर जी ने डाक्टर मुंजे और स्वामी श्रद्धानंद के साथ मालाबार की यात्रा की, वहाँ पीड़ितों से मिले और समाज की दुर्दशा के दृश्य देखकर वापस लौटे। उन्हें लगा कि जो समाज स्वयं अपनी सुरक्षा नहीं कर सकता वह राष्ट्र की रक्षा कैसे करेगा। उनका मानना था समाज संगठित होकर अपनी रक्षा में सक्षम होना चाहिए। इसके लिये वे संगठन नहीं एक समर्थ अभियान चलाना चाहते थे।
समविचारी मनीषियों से सतत विमर्श के बाद डाक्टर जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वतंत्रता आंदोलन के साथ स्वत्व चेतना अभियान भी आवश्यक है। यदि सामाजिक मूल्यों का ह्रास रहा, आत्म गौरव की हीनता बनी रही, स्वार्थ लोलुपता के साथ आंतरिक बिखराव के रहते यदि स्वतंत्रता मिल भी गई तो कितने दिन सुरक्षित रह सकेंगे। और डाक्टर जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ समाज के संगठनात्मक, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सशक्तिकरण का अभियान भी आरंभ करने का संकल्प लिया। मन ही मन कुछ निश्चय करके डॉक्टर जी ने अपने घर पर बैठक बुलाई। इसमें एक संगठन बनाने पर विचार हुआ । और यह भी कि यदि संगठन बनता है तो उसका नाम क्या हो। बैठक में नामों का सुझाव आया। उनमें "महाराष्ट्र स्वयंसेवक संघ", "जरीपटका मंडल", "भारतोद्धारक मंडल" आदि नाम थे। सभी के अभिमत सुनकर डॉक्टर जी ने कहा कि भविष्य का संगठन केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं होगा और न पेशवाई परंपरा तक। यह तो आसेतु हिमाचल पूरे राष्ट्र में व्यापक होगा। उन्होंने कहा कि "स्वयं की इच्छा से राष्ट्र सेवा का पथ अंगीकार करने वाले स्वयंसेवकों का संगठन अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम अधिक उचित होगा"। इसके साथ इसी नाम पर सर्व सम्मति बनी। और विजयादशमी 1925 में दशहरे के दिन गणेशजी की पूजा और मातृभूमि की वंदना के साथ संघ ने अपनी यात्रा आरंभ की। भविष्य की इस यात्रा में संघ की प्रार्थना, संघ के प्रतीक और उत्सव और भविष्य की यात्रा पर डॉक्टर जी का चिंतन अत्यंत सूक्ष्म और मौलिक था। वे भारतीय परंपराओं के अनुरूप संघ की यात्रा तो चाहते थे व्यक्तिपरक नहीं। वे सिद्धांत और संकल्प को सर्वोपरि रखना चाहते थे। इसलिये जब प्रश्न आया कि गुरु कौन हो तब उन्होंने कहा कि परम पवित्र भगवा ध्वज ही हमारा गुरु है।
संघ की स्थापना के साथ डाक्टर जी के संबोधन में संघ की यात्रा, संकल्प और दृढ़ता की झलक मिलती है। डाक्टर जी ने कहा था-
"आज हम सभी अपनी संगठन का शुभारंभ कर रहे हैं। दुर्बल शरीर में विचार भी दुर्बल ही होते हैं। एक ज्योति से घर का अँधेरा दूर होता है, हर घर में ज्योति जले तो पूरे देश का अँधेरा दूर होता है। हम आज अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के समक्ष अखंड नन्हा दीप प्रज्वलित कर रहे हैं। जो प्रिय मित्रों, युवकों और सेवा भावी स्वयंसेवको के हाथों में सौंप रहा हूँ, जहाँ तक मेरी बात है मैं अपनी अंतिम सांस तक, प्राणों की बाजी लगाकर सारे तूफानों, बवंडरों में इसे प्रज्वलित रखूंगा"। डाक्टर जी के इस संबोधन में स्वयंसेवकों को दायित्व सौंपना और विषमता के बीच भी ज्योति जलाये रखने का संकल्प था। संघ ने अपनी यात्रा में अनेक झंझावात झेले हैं। कूटरचित प्रपंचों के चलते असत्य आक्षेप लगे। प्रतिबंध लगे फिर भी ज्योति अखंड रही। यह डाक्टर जी की संकल्प प्रेरणा है कि वह नन्हा दीपक, वह नन्ही ज्योति आज पूरे विश्व को प्रकाशमान कर रही है और संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है।