NGO, धर्मांतरण और जाति संघर्ष: मिशनरियों और वामपंथियों की समरसता विरोधी जुगलबंदी

समरसता के विरुद्ध सुनियोजित वैचारिक युद्ध

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    04-Aug-2025
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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे

भारत एक ऐसा देश है जिसकी आत्मा समरसता और कर्तव्यनिष्ठा में रची-बसी है। किन्तु बीते कुछ दशकों में यह अनुभव किया गया है कि देश में सामाजिक समरसता को योजनाबद्ध ढंग से खंडित करने का षड्यंत्र चल रहा है – और इसके केंद्र में हैं ईसाई मिशनरियाँ, वामपंथी बुद्धिजीवी तथा उनके सहयोगी विदेशी फंडेड NGO नेटवर्क।

इन समूहों का साझा उद्देश्य है –
भारतीय समाज को जातिगत संघर्षों में उलझाकर उसका विभाजन करना।
सनातन संस्कृति को ‘उत्पीड़नकारी व्यवस्था’ कहकर कलंकित करना।
फर्जी दलित उत्पीड़न कथाएं गढ़कर समाज में अविश्वास और द्वेष का बीज बोना।
विदेशी धन के माध्यम से धर्मांतरण, वैचारिक विषवमन और सामाजिक विघटन को बढ़ावा देना।
 
मिशनरियों की रणनीति: जाति को ईसाई धर्मांतरण का औजार बनाना
 
धर्मांतरण का एजेंडा – "दलित उद्धार" की आड़ में
 
मिशनरियाँ यह प्रचारित करती हैं कि हिन्दू धर्म में दलितों को अपमानित किया जाता है, जबकि ईसाई धर्म समानता और प्रेम का धर्म है। परंतु वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है:
 
दलित ईसाइयों को चर्च व्यवस्था में भी जाति से परे नहीं रखा जाता।
 
नेशनल काउंसिल ऑफ चर्चेज इन इंडिया (NCCI) द्वारा गठित दलित ईसाई मंच स्वयं इस भेदभाव की पुष्टि करता है।
‘जाति हटाओ, ईसाई बनो’ – एक भ्रमजाल
 
यह 'जाति हटाने' की नहीं, बल्कि हिंदू से हटाने की योजना है। मिशनरियाँ दलित समाज को यह विश्वास दिलाती हैं कि ईसाई बनते ही उन्हें सम्मान मिलेगा, लेकिन उन्हें चर्चों में अलग बेंच, अलग कब्रिस्तान, अलग सामुदायिक कार्यक्रम जैसी अस्पृश्यताएं झेलनी पड़ती हैं।
वामपंथियों की भूमिका: इतिहास के विकृतिकरण से समाज-विघटन तक
 
वर्ण व्यवस्था का मिथकीय दुरुपयोग

वामपंथी इतिहासकारों ने गीता, वेद, उपनिषद जैसे ग्रंथों को जातिवादी ग्रंथ घोषित कर दिया। उन्होंने ब्राह्मणों को उत्पीड़क और शूद्रों को शोषित वर्ग कहकर क्लास-स्ट्रगल की मार्क्सवादी व्याख्या को समाज पर थोपने का प्रयास किया।
शिक्षा तंत्र में विष घोलना
 
NCERT की किताबों, विश्वविद्यालयों के सोशल साइंस सिलेबस, और जेएनयू/डीयू जैसी संस्थाओं में वर्षों से दलित बनाम सवर्ण संघर्ष को केंद्र में रखकर विचार गढ़े जा रहे हैं।
 
बाबा साहब अंबेडकर को भी केवल ब्राह्मण विरोधी विचारक के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास होता रहा है, जबकि उन्होंने जाति के उन्मूलन के लिए सांस्कृतिक पुनरुत्थान और शिक्षा-संगठन-शुद्ध आचरण को प्राथमिकता दी थी।
NGO नेटवर्क: फर्जी रिपोर्टों और विदेशी फंडिंग का कुचक्र

'दलित मानवाधिकार' के नाम पर फर्जी रिपोर्टों का कारोबार

Human Rights Watch, Amnesty, Equality Labs, और Christian Aid जैसे NGO भारत में दलित उत्पीड़न के फर्जी आँकड़े पेश करते हैं।

2020 में Equality Labs द्वारा जारी रिपोर्ट "Caste in the United States" में दावा किया गया कि अमेरिका में रहने वाले हिंदू ब्राह्मण भारतीय जातिवाद फैला रहे हैं – यह पूरी तरह बिना किसी प्रमाण के एक वैश्विक ब्राह्मणविरोधी प्रोपेगेंडा था।

विदेशी फंडिंग और धार्मिक हस्तक्षेप

2006–2016 के बीच भारत में ₹10,000 करोड़ से अधिक विदेशी फंड ऐसे NGO को प्राप्त हुए जो ‘दलित अधिकार’ के नाम पर सामाजिक विघटन कर रहे थे।

फ्रैंकलिन ग्राहम, वरल्ड विज़न, ऑक्सफैम इंडिया जैसे संगठनों ने मीडिया, शिक्षण संस्थानों और समाजसेवियों के माध्यम से जातिगत संघर्ष को उभारा।

2021 में गृह मंत्रालय द्वारा 1800+ NGO की FCRA रजिस्ट्रेशन रद्द की गई क्योंकि वे "राष्ट्रविरोधी गतिविधियों" में लिप्त पाए गए।

केस स्टडी – फर्जी दलित उत्पीड़न का पर्दाफाश

हाथरस केस (2020):
इस केस को ‘दलित लड़की के साथ सवर्णों द्वारा बलात्कार’ के रूप में प्रस्तुत किया गया, जबकि CBI जांच में यह बलात्कार सिद्ध नहीं हुआ।
मीडिया, वामपंथी छात्र संगठन और मिशनरी समर्थित NGO ने देशव्यापी जाति संघर्ष को भड़काने का प्रयास किया।

भीमा कोरेगांव (2018):
इस घटना को ‘दलित गौरव दिवस’ के नाम पर भुनाया गया।
जांच में सामने आया कि वामपंथी और माओवादी संगठनों ने जानबूझकर तनाव उत्पन्न किया, ताकि ब्राह्मण और दलितों के बीच टकराव हो।

उद्देश्य: समाज तोड़ो, भारत तोड़ो

यह रणनीति केवल धार्मिक परिवर्तन तक सीमित नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, अखंडता और आत्मा पर हमला है।

समरसता को तोड़कर सामूहिक चेतना को नष्ट करना।

हिंदू समाज को जातिगत उपखंडों में विभाजित कर राजनीतिक और वैचारिक रूप से कमजोर बनाना।

भारत को एक स्थायी रूप से असंतुलित और संघर्षरत समाज बनाना – यही इनका दीर्घकालीन लक्ष्य है।

समाधान: समरसता आधारित पुनर्रचना की आवश्यकता

जाति नहीं, कर्तव्य का विमर्श

हमें समाज में यह जागरूकता फैलानी होगी कि भारतीय समाज की मूल प्रवृत्ति कर्तव्यमूलक रही है, न कि जन्माधारित।
शास्त्रों, महाकाव्यों, संतवाणी और ग्रामीण परंपराओं में समरसता का स्पष्ट प्रतिरूप मिलता है।

शिक्षा और मीडिया में सांस्कृतिक संतुलन

शिक्षा प्रणाली में भारतीय मूल्यों, संत परंपरा, समरसता और कर्तव्य भावना को शामिल किया जाए।

मीडिया को केवल सनसनी फैलाने के बजाय सत्य आधारित सामाजिक विमर्श को आगे लाना होगा।
NGO नेटवर्क की सघन निगरानी
 
FCRA कानून का सख्ती से पालन और विदेशी अनुदानों की पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी।

समाज को सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम पर चलने वाले अघोषित एजेंटों से सावधान करना होगा।

भारत को बाँटने वालों के विरुद्ध वैचारिक आत्मरक्षा आवश्यक है

भारत को जाति नहीं, कर्तव्य और समरसता की भावना ने जीवित रखा है। मिशनरियों और वामपंथियों का यह “जाति संघर्ष मॉडल” वास्तव में “भारत तोड़ो मॉडल” है।
हमें पुनः समाज को जोड़ने, संतुलित करने और स्वधर्म पर अडिग रखने के लिए एक समवेत वैचारिक अभियान चलाना होगा।

“जातियाँ भारत का वैभव हैं, संघर्ष नहीं;
कर्तव्य भारत का धर्म है, छल नहीं।”