-आभा पाण्डेय
हिंदू संस्कृति अत्यंत पुरातन होते हुए भी चिर नूतन है, इसकी मान्यताएं आज के वैज्ञानिक युग में भी हमारे जीवन को सार्थक दिशा दिखाती हैं। जीवन मूल्य और संस्कार हमें पुरातन संस्कृति से ही प्राप्त होते हैं ,तथा इस संस्कृति के मूल आधार हैं हमारे सनातन परिवार। अतः सनातन संस्कृति को जागृत और चैतन्य रखने का दायित्व हमारे परिवारों पर ही है।
परिवार केवल व्यक्तियों के एकत्र रहने की व्यवस्था का नाम नहीं है, यह समाज की आधारभूत सांस्कृतिक, आध्यात्मिक तथा आर्थिक इकाई है ।प्रत्येक परिवार उत्तम मनुष्य निर्माण की पाठशाला है।
भारतीय संस्कृति में परिवार की परिभाषा में तीन-चार पीढ़ियों का समावेश होता था। कल आज और कल का समन्वय ही परिवार कहलाता था। दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, भाई- भाभी, बहन- बहनोई ये सब एक ही छत के नीचे एक परिवार का हिस्सा होते थे। यहां तक कि घर में काम करने वाले सेवक, कर्मचारी, पड़ोसी इन सब से भी पारिवारिक संबंध होते थे। इतना ही नहीं हम तो पशु -पक्षी, पेड़- पौधे, प्रकृति को भी परिवार मानते हैं- तुलसी माता, गौ माता, गंगा मैया आदि।
वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा हमारी ही संस्कृति की उपज है, अर्थात पूरा विश्व ही हमारा परिवार है, सभी हमारे अपने हैं।
किंतु वर्तमान परिदृश्य तेजी से बदल रहा है। आज आधुनिकता और भौतिकता के दौर में अथवा परिस्थितियों के वशीभूत होकर परिवार की परिभाषा बदल गई है, और परिभाषा बदलते ही परिवार व्यवस्था भी डगमगा गई है।
आज संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है ।परिवार चाहे तीन पीढ़ियों का संयुक्त हो अथवा एकल हो, उसके केंद्र स्थान पर महिला ही विराजमान होती है। यह सर्व विदित प्रमाणित सत्य है कि जिस परिवार में महिला सम्मान पाती है तथा प्रसन्न रहती है, वहां सुख शांति तथा समृद्धि स्थाई रूप से रहती है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः
परिवार समाज और देश का अस्तित्व नारी से ही है नारी के बिना परिवार की कल्पना भी नहीं कर सकते। मां ,बहन, पत्नी अथवा बेटी के बिना कोई घर घर नहीं लगता।कहावत है -
बिन घरनी घर भूत का डेरा
जिस घर में परिवार के सदस्यों को महिला के हाथ का बना भोजन प्राप्त नहीं होता, जहां मां की कोमल वाणी नहीं गूंजती, जहां बहन का स्नेह सिक्त स्पर्श नहीं मिलता वह घर तो सोने का महल हो तो भी वीरान ही लगता है।
संस्कृत में श्लोक है -
कार्येषु दासी ,करणेषु मंत्री, भोज्येषु माता,शयनेषु रंभा ,
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री, भार्या च षट्गुणवती अति दुर्लभा।।
अर्थात एक गृहणी के अंदर यह छह गुण होना चाहिए तभी वह पूरे परिवार को जोड़कर रख सकती है, तथा परिवार की धुरी बनकर सब की सेवा करते हुए, धर्मानुसार आचरण कर सकती है। आर्थिक मामलों में सुझाव देकर सहभागिता कर सकती है। घर की छोटी से छोटी तथा बड़ी से बड़ी समस्याओं से परिवार को बाहर निकालने की हिम्मत और क्षमता हर महिला में होती है।
आज घर की स्त्री बच्चों की शिक्षा में समुचित सहयोग देती है। जिस घर में हर निर्णय महिला की सहमति से होता है वहां सुख का निवास होता है ।जिस घर में धन का कोष लक्ष्मी स्वरूपा गृहणी के हाथ में होता है वहां कभी धन की कमी नहीं होती।
हमारे पूर्वज कहते थे की नारी विद्या का स्वरूप है, नारी शक्ति का स्वरूप है, नारी लक्ष्मी का स्वरूप है।
अर्थात घर में एक महिला जाने अनजाने अनेकों दायित्वों का वहन खुशी-खुशी अपने परिवार के लिए करती है। एक अच्छी भोजन विशेषज्ञा, सेविका, शिक्षिका, चिकित्सक ,समय प्रबंधक, वित्त प्रबंधक आदि के जन्मजात गुण ईश्वर ने उसे दिए हैं।
आज की गृहणी सिर्फ घर संभालने तक सीमित नहीं है। परिवार के लिए आर्थिक सहयोग की भावना से नौकरी अथवा व्यवसाय के हर क्षेत्र में महिलाएं सक्रिय हैं, इसके अलावा उसने अपनी असीमित क्षमताओं को पहचान कर परिवार संभालने के साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी एक नई दिशा दिखाने का दायित्व स्वेच्छा से स्वीकार किया है।
अतः मेरे विचार से तो प्रत्येक महिला में अष्टभुजा देवी का अंश होता है, जो सूर्योदय से रात्रि पर्यंत मशीन की तरह कार्य करती है, तभी तो पूरा घर व्यवस्थित तथा परिवारजन प्रसन्न रहते हैं और घर की महिला केंद्रीय भूमिका में रहकर ससम्मान अपने गृहस्थ जीवन के हर पड़ाव को आनंदित होकर पार करती है।
कई बार यह देखने सुनने अथवा पढ़ने में आता है कि घर की महिला पर अत्याचार हो रहे हैं ,घरेलू हिंसा, मारपीट, मानसिक प्रताड़ना अथवा दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है ,तो यह देख सुनकर हमारा नैतिक कर्तव्य बनता है कि हम संपूर्ण नारी जाति को उसकी आंतरिक शक्ति का स्मरण कराएं, उनमें छुपी हुई ऊर्जा प्रतिभा और क्षमता को पहचानने में मदद करें, उन्हें याद दिलाएं कि-
मैं आदिशक्ति का अंश हूं ,
नन्हीं कोई चिड़िया नहीं,
स्वेच्छा से निभ जाती हूं,
स्नेह तले दब जाती हूं ,
संस्कारों से झुक जाती हूं,
कमजोर समझना मत मुझको।।