चन्द्र! अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रहोगे - श्री गणेश जी

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Aug-2025
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ganesh ji
 
 
 
गणेश पुराण के अनुसार, एक समय की बात है कि पितामह ब्रह्माजी कैलास पर्वत पर भगवान शिवजी के समीप आकर बैठे। दोनों आपस में चर्चा कर रहे थे। तभी वहाँ देवर्षि नारदजी का आगमन हुआ। वे एक अत्यंत सुन्दर, आकर्षक और स्वादिष्ट फल लेकर आए थे। नारदजी ने वह फल भगवान शिव को अर्पित कर दिया। दोनों बालक श्रीगणेशजी और कार्तिकेयजी उस फल के प्रति आकर्षित हो गए और उसे प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की।
 
 
शिवजी के सम्मुख समस्या यह थी कि दोनों में से किसे फल दिया जाए। उन्होंने ब्रह्माजी से निर्णय करने को कहा। ब्रह्माजी ने कहा कि जो छोटा है, उसे फल दिया जाना चाहिए। अतः फल षडानन (कार्तिकेय) को दे दिया गया। इस निर्णय से श्रीगणेशजी कुपित हो गए।
 
 
ब्रह्माजी जब अपने सदन पहुँचे और सृष्टि-रचना का कार्य आरम्भ किया, तब कुपित गजानन ने उनके कार्य में विघ्न उत्पन्न कर दिया। उन्होंने उग्र रूप धारण कर विधाता के समक्ष उपस्थित हो गए। उस समय चन्द्रमा ने अपने गणों सहित गजानन के उग्र स्वरूप और ब्रह्माजी की भयभीत अवस्था को देखा। यह देखकर वह हँस पड़ा। गणेशजी ने चन्द्रमा को हँसते हुए देखा तो क्रोधित होकर उसे शाप दिया –
 
“चन्द्र! अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रहोगे। जो भी तुम्हें देखेगा, वह पाप का भागी होगा।”
 
अदर्शनीय स्त्रैलोक्ये पद्वाक्यात्त्वं भविष्यसि।
कदाचित्केन दृष्टा स महापातकवान् भवेत्।।
(गणेश पुराण १/६१/७–८)
 
गणेशजी ऐसा कहकर वहाँ से चले गए। परन्तु चन्द्रमा को अपने किए गए उपहास पर पश्चाताप हुआ। वह श्रीहीन, मलिन और दुःखी हो गया। उसे लगा कि अब कौन सा उपाय करूँ जिससे पूर्ववत् सुन्दर और वंदनीय बन सकूँ।
 
चन्द्रमा की इस दशा से दुःखी होकर देवगण गजानन के पास पहुँचे और स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इन्द्र आदि सभी देवताओं की प्रार्थना सुनकर गणेशजी प्रसन्न हुए और बोले –
 
“मेरा वचन अटल है, असत्य कभी नहीं हो सकता। फिर भी इतना अवश्य कर सकता हूँ कि –
 
भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां यो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा।
अभिशापी भवेच्चन्द्रदर्शनादमृशदुःखभाग।।
(गणेश पुराण १/६१/२५–२६)
 
 
अर्थात्, जो कोई भाद्र शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा और दुःख भोगेगा।”
 
गणेशजी की बात सुनकर देवताओं में हर्ष छा गया। वे चन्द्रमा के पास पहुँचे और कहा – “गणेशजी ने तुम्हारे शाप को सीमित कर दिया है। अब तुम स्वयं उनकी शरण लो।”
 
चन्द्रमा प्रसन्नचित्त होकर गणेशजी के पास गया और बारह वर्षों तक एकाक्षरी मंत्र गं, ग्लौ, गौं (गणेश मंत्र) का जाप किया। इससे गणेशजी प्रसन्न हुए। जब चन्द्रमा ने उनका विराट रूप देखा तो भय से काँप उठा और प्रार्थना की –
 
अज्ञानदोषेण कृतोऽपराधः तं क्षन्तुमर्होऽसि दयाकरं त्वम्।
तवापि दोषः शरणागतस्य त्यागे महात्मन् कुरु मेऽनुकम्पाम्।।
(गणेश पुराण १/६१/४४)
 
अर्थ – “अज्ञानवश मैंने अपराध किया है। कृपाकर मुझे क्षमा करें। मैं आपका शरणागत हूँ। आप शरणागत का त्याग नहीं करते, कृपया मुझ पर दया करें।”
चन्द्रमा की प्रार्थना से गणेशजी प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे पुनः सुन्दर स्वरूप प्रदान किया और कहा –
“भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को जो कोई तुम्हें देखेगा, वह शापित होगा। उस दिन तुम अदर्शनीय रहोगे। किंतु अब से तुम मेरे ललाट पर एक अंश रूप में सुशोभित रहोगे और जगत् में वंदनीय बनोगे।”
 
इस प्रकार चन्द्रमा को वरदान देकर गणेशजी ने उसकी लज्जा दूर की।
 
आज भी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा का दर्शन निषिद्ध माना जाता है। यह कथा युवा पीढ़ी को यह शिक्षा देती है कि कभी भी अपने पूजनीय व्यक्तियों का उपहास न करें और न ही उनके कथन को हल्के में लें। ऐसा करने पर चन्द्रमा के समान दण्ड भोगना पड़ सकता है। अतः सदैव सावधान होकर आचरण करना चाहिए।