21वीं सदी का ऊर्जा रण : अंडमान-निकोबार से भारत का सशक्त भविष्य की ओर कदम

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    12-Aug-2025
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- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
21वीं सदी की वैश्विक राजनीति में ऊर्जा संसाधन सिर्फ विकास की कुंजी नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक शक्ति संतुलन का सबसे बड़ा आधार बन चुके हैं। ऐसे में भारत ने अब अपने समुद्री भूभाग, विशेषकर अंडमान-निकोबार बेसिन में मौजूद विशाल हाइड्रोकार्बन संसाधनों की खोज और दोहन पर जिस तरह गंभीरता दिखाई है, वह न केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम है, बल्कि अमेरिका सहित उन ताकतों के लिए भी एक संकेत है, जो दशकों से ऊर्जा आपूर्ति को नियंत्रण में रखकर वैश्विक राजनीति पर प्रभाव डालते रहे हैं। अंडमान-निकोबार बेसिन में हाल के वर्षों में हुई प्रगति इस दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है, और यही वजह है कि भारत के इस कदम से वैश्विक ऊर्जा बाजार में हलचल है और वह इन दिनों असहज है।
 
सरकार ने अंडमान-निकोबार बेसिन में तेल और गैस के भंडारों की खोज के लिए हाइड्रोकार्बन अन्वेषण और लाइसेंसिंग नीति (HELP) के तहत अब तक चार ब्लॉक आवंटित किए हैं, जिनका क्षेत्रफल करीब 23,261 वर्ग किलोमीटर है। यहां से अब तक 8,501 लाइन किलोमीटर 2D और 3,270 वर्ग किलोमीटर 3D भूकंपीय आंकड़े प्राप्त किए जा चुके हैं। तीन कुओं की खुदाई हो चुकी है, और नए चरण में खुले रकबा लाइसेंसिंग नीति (OALP-X) के अंतर्गत 47,058 वर्ग किलोमीटर के अतिरिक्त चार ब्लॉक पेश किए गए हैं। हाइड्रोकार्बन संसाधन आकलन अध्ययन (HRAS) के मुताबिक, अंडमान-निकोबार बेसिन में 371 मिलियन मीट्रिक टन तेल के बराबर भंडार होने का अनुमान है। यह आकलन पहली बार 2017 में किया गया था, लेकिन 2024 में हुए 2D ब्रॉडबैंड भूकंपीय सर्वेक्षण ने इसमें नई संभावनाओं की पुष्टि कर दी है, जिसमें भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र के करीब 80,000 लाइन किलोमीटर क्षेत्र को शामिल किया गया।

भूवैज्ञानिक दृष्टि से यह बेसिन बंगाल-अराकान तलछटी प्रणाली का हिस्सा है और भारतीय व बर्मी प्लेटों की सीमा पर स्थित है। यह टेक्टोनिक स्थिति हाइड्रोकार्बन संचय के लिए अनुकूल कई स्ट्रैटिग्राफिक जाल बनाती है। इसकी निकटता म्यांमार और उत्तरी सुमात्रा के पेट्रोलियम क्षेत्रों से है, जहां पहले ही बड़े पैमाने पर गैस खोज हो चुकी है। इंडोनेशिया में दक्षिण अंडमान अपतटीय में हालिया गैस खोजों के बाद इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय रुचि अचानक बढ़ी है, जो यहां भूवैज्ञानिक निरंतरता का स्पष्ट संकेत देती है।

भारत के लिए यह केवल ऊर्जा स्रोत का मामला नहीं है, बल्कि यह सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह का स्थान हिंद महासागर में एक ऐसे सामरिक बिंदु पर है, जहां से मलक्का जलडमरूमध्य तक सीधी निगरानी संभव है। यह जलडमरूमध्य दुनिया के सबसे व्यस्त समुद्री व्यापार मार्गों में से एक है और वैश्विक ऊर्जा परिवहन का अहम केंद्र है। यहां से प्रतिदिन करोड़ों बैरल तेल और गैस का आवागमन होता है। इस क्षेत्र में भारत की सक्रियता न केवल अपने ऊर्जा स्रोतों पर पकड़ मजबूत करेगी, बल्कि समुद्री सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्गों पर भी रणनीतिक लाभ दिलाएगी।

अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए भारत का यह रुख असहज कर देने वाला है। अब तक वैश्विक ऊर्जा राजनीति में अमेरिका और ओपेक देशों की बड़ी भूमिका रही है। भारत, जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है, उसकी ऊर्जा आपूर्ति पर निर्भरता अंतरराष्ट्रीय दबाव का एक बड़ा कारण रही है। लेकिन यदि भारत अपने घरेलू संसाधनों का दोहन सफलतापूर्वक करता है, तो न केवल विदेशी तेल पर निर्भरता घटेगी, बल्कि ऊर्जा कीमतों और आपूर्ति को लेकर भी बाहरी दबाव कम होगा। यही वजह है कि अंडमान-निकोबार में भारत की सक्रियता को कुछ पश्चिमी विश्लेषक ‘गेम चेंजर’ मान रहे हैं।

सरकार के हालिया कदमों में एक और महत्वपूर्ण पहल 2021-22 में ऑयल इंडिया लिमिटेड द्वारा किए गए दीप अंडमान अपतटीय सर्वेक्षण है, जिसमें 22,555 लाइन किलोमीटर का 2D भूकंपीय डेटा इकट्ठा किया गया। ये आंकड़े भविष्य में संभावित क्षेत्रों की पहचान और व्यावसायिक उत्खनन में निर्णायक भूमिका निभाएंगे। इस परियोजना की सफलता से न केवल रोजगार सृजन और स्थानीय अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, बल्कि भारत को वैश्विक ऊर्जा बाजार में एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने में मदद मिलेगी।
 
अगर हम व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो भारत का यह प्रयास एक बड़े ऊर्जा भू-राजनीतिक परिवर्तन का संकेत है। अमेरिका, जिसने दशकों तक तेल को कूटनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, वह इस बात से चिंतित है कि भारत जैसे बड़े उपभोक्ता देश अपने संसाधनों पर निर्भर होना शुरू कर दें। इससे ऊर्जा बाजार का समीकरण बदल जाएगा और पेट्रोलियम निर्यातक देशों के समूह (OPEC) के साथ-साथ अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों के मुनाफे पर भी असर पड़ेगा।

भारत के ऊर्जा आत्मनिर्भर बनने से न केवल आर्थिक स्थिरता बढ़ेगी बल्कि रूपये की मजबूती और व्यापार घाटा कम करने में भी मदद मिलेगी। वर्तमान में भारत अपने कच्चे तेल का करीब 85% आयात करता है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ता है। घरेलू उत्पादन बढ़ने से यह दबाव कम होगा और दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित होगी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अंडमान-निकोबार क्षेत्र का विकास केवल ऊर्जा क्षेत्र तक सीमित नहीं रहेगा। यहां बंदरगाह, भंडारण सुविधाएं, रिफाइनिंग यूनिट और अन्य सहायक अवसंरचना का विकास होगा, जिससे इस क्षेत्र का सामरिक महत्व और बढ़ जाएगा। मलक्का जलडमरूमध्य के पास स्थित होने के कारण यह द्वीपसमूह पहले से ही भारत के ‘एक्ट ईस्ट’ नीति और हिंद-प्रशांत रणनीति का अहम हिस्सा है। यदि यहां ऊर्जा उत्पादन और प्रसंस्करण केंद्र विकसित होते हैं, तो भारत न केवल अपनी जरूरतों को पूरा करेगा, बल्कि पड़ोसी देशों को भी निर्यात कर सकेगा, जिससे क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ेगा।

निश्‍चित ही भारत की यह सफलता अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए चिंता लेकर आई है कि भारत यदि इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर तेल और गैस उत्पादन शुरू करता है, तो उसकी ऊर्जा निर्भरता कम होने के साथ-साथ वह वैश्विक ऊर्जा समीकरण में एक नया निर्णायक खिलाड़ी बन सकता है। दुनिया में तेल और गैस का खेल केवल उत्पादन और खपत का नहीं, बल्कि दबाव और शक्ति का भी है। जिन देशों के पास ऊर्जा संसाधनों पर नियंत्रण होता है, वे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अधिक प्रभाव रखते हैं। भारत का अंडमान-निकोबार बेसिन में यह कदम इसी शक्ति-संतुलन को चुनौती देने वाला है। अमेरिका जैसे देश, जो दशकों से वैश्विक ऊर्जा बाजार को अपने हित में नियंत्रित करते आए हैं, उन्हें यह स्थिति असहज कर सकती है।
 
भारत के लिए यह विकास केवल ऊर्जा उत्पादन तक सीमित नहीं रहेगा। घरेलू उत्पादन बढ़ने से आयात बिल में कमी आएगी, डॉलर पर दबाव घटेगा और रुपए की मजबूती के लिए सकारात्मक माहौल बनेगा। साथ ही, पेट्रोकेमिकल, परिवहन, उर्वरक और बिजली उत्पादन जैसे क्षेत्रों में ऊर्जा उपलब्धता बढ़ने से औद्योगिक विकास को भी रफ्तार मिलेगी।इस पूरी प्रक्रिया में भारत के लिए एक बड़ा अवसर यह है कि वह ऊर्जा उत्पादन में ‘ग्रीन’ दृष्टिकोण अपनाकर दुनिया को एक नया मॉडल पेश करे। तेल और गैस उत्पादन के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को भी समानांतर बढ़ावा देकर भारत ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं के बीच संतुलन बना सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की यह पहल उन देशों को भी संदेश देती है जो उसे केवल एक उपभोक्ता बाजार के रूप में देखते हैं। भारत अब केवल ऊर्जा खरीदने वाला देश नहीं रहेगा, बल्कि वह ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण उत्पादन केंद्र बन सकता है। यह बदलाव वैश्विक ऊर्जा राजनीति में भारत की स्थिति को नई परिभाषा देगा।
 
अंततः, अंडमान-निकोबार बेसिन में चल रहे ये प्रयास 21वीं सदी में भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में निर्णायक साबित हो सकते हैं। यह केवल तेल और गैस की खोज नहीं, बल्कि आने वाले दशकों के लिए भारत की रणनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की नींव है। अमेरिका और अन्य महाशक्तियों को यह समझना होगा कि भारत अब अपने संसाधनों का मालिकाना हक लेकर आगे बढ़ रहा है, और यह नया भारत वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य में अपनी शर्तों पर खेल तय करने की तैयारी में है। आज यह कहना गलत नहीं होगा कि अंडमान-निकोबार बेसिन में हाइड्रोकार्बन खोज और उत्पादन केवल एक ऊर्जा परियोजना नहीं है, बल्कि यह भारत की रणनीतिक और आर्थिक आत्मनिर्भरता का आधार है।

कहना होगा कि भारत को इससे वैश्विक ऊर्जा राजनीति में नई स्थिति मिलेगी और अमेरिका सहित दुनिया की बड़ी शक्तियों को यह संदेश जाएगा कि भारत अब केवल उपभोक्ता नहीं, बल्कि ऊर्जा उत्पादक और आपूर्ति श्रृंखला का निर्णायक हिस्सा बनने जा रहा है। यह वह मोड़ हो सकता है जहां से भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा और रणनीतिक स्वतंत्रता के नए युग में प्रवेश करे, और यही वजह है कि आज अंडमान-निकोबार के तेल भंडार न केवल भारत की विकास गाथा का हिस्सा हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का भी एक अहम अध्याय इसके साथ जोड़ने जा रहे है। ऐसे में फिर अमेरिका 50 प्रतिशत का भारी भरकम टैरिफ ही क्‍यों न भारत पर लगा दे। भारत जनता है कि हर मुश्‍किल की घड़ी में धैर्य कैसे रखना है और अपने ऊपर आए संकट को कैसे ताकत बनाया जा सकता है। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं, हम हर दिन नए नए सौपान ऊपर चढ़ रहे हैं। अंडमान-निकोबार बेसिन में तेल और गैस के भंडारों की खोज भी उसी दिशा में भारत का बढ़ता हुआ एक कदम है।