रक्षाबंधन: सामाजिक समरसता का सनातनी प्रतीक,"स्त्री-पुरुष समभाव का प्रतीक"

उत्सव के प्रति दृष्टिकोण की द्वंद्वात्मकता

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    11-Aug-2025
Total Views |
rakhi
 
 
डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
भारतीय संस्कृति में पर्व केवल परंपरा नहीं, बल्कि मूल्य हैं — सह-अस्तित्व, कर्तव्य और आत्मीयता के मूल्य। किंतु दुर्भाग्यवश आज सनातन परंपराओं को "फेमिनिस्ट" और "वामपंथी विमर्शों" की व्याख्यात्मक संकीर्णता का शिकार बनाया जा रहा है। रक्षाबंधन को "पितृसत्तात्मक पुरुष-रक्षण व्यवस्था" का प्रतीक कहकर उसके गूढ़ सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थों का अपहरण किया जा रहा है। यह लेख इसी तर्क का खंडन करते हुए रक्षाबंधन को सामाजिक समरसता, स्त्री-पुरुष परस्परता, सांस्कृतिक रक्षा और समता के सनातनी प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है।
 
रक्षाबंधन: रक्षा का एकांगी नहीं, परस्पर संकल्प
रक्षाबंधन को केवल एक "बहन द्वारा भाई से रक्षा की मांग" के रूप में देखने का दृष्टिकोण सीमित और भ्रांतिपूर्ण है। "रक्षा" इस पर्व का केंद्रीय भाव है, किंतु यह रक्षा केवल बाह्य शारीरिक नहीं, अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सुरक्षा का संकल्प है — जो परस्पर है।
यह वह पर्व है जहाँ बहन, भाई को तिलक कर, रक्षा सूत्र बाँधकर उसके जीवन, धर्म और मर्यादा की रक्षा की कामना करती है, तो भाई भी यह संकल्प करता है कि वह बहन की गरिमा, स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा करेगा। यह एक-दूसरे की पूरक भूमिका का प्रतीक है — न कि अधीनता या वर्चस्व का।
 
इतिहास में स्त्री-पुरुष के परस्पर रक्षार्थ बंधन के प्रमाण
भारतीय इतिहास और पुराणों में ऐसे अनेकों प्रसंग मिलते हैं, जहाँ स्त्री और पुरुष ने एक-दूसरे की रक्षा हेतु बंधन निभाया है — कभी बहन ने भाई की रक्षा की, तो कभी भाई ने बहन की।
द्रौपदी और श्रीकृष्ण: महाभारत के प्रसिद्ध प्रसंग में द्रौपदी ने अपने वस्त्र से कृष्ण के घायल अंग को बाँधा। कृष्ण ने उस रक्षासूत्र को जीवन भर निभाया और चीरहरण के समय द्रौपदी की लाज बचाई।
यम-यमी की कथा: यमी (यमुना) ने यमराज से व्रत रखा कि जब तक वह उसे देख नहीं लेती, पर्व नहीं मनाएगी। यम ने बहन के इस प्रेम से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि जो भाई इस दिन बहन से रक्षा का व्रत करेगा, उसका कल्याण होगा।
 
रक्षासूत्र केवल स्त्रियों द्वारा नहीं: श्रावण पूर्णिमा पर ब्राह्मणों को भी यजमानों को रक्षासूत्र बाँधते देखा गया है। यह एक समग्र सामाजिक रक्षण का प्रतीक है, जो किसी लिंग आधारित अधीनता का संकेत नहीं देता।
 
रानी कर्णावती और हुमायूं: राजनीतिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों का पुनर्पाठ
वामपंथी विमर्श में अकसर रानी कर्णावती द्वारा मुग़ल शासक हुमायूं को राखी भेजने का संदर्भ दिया जाता है, जिसे ‘सामंती पुरुष-रक्षण व्यवस्था’ का प्रमाण बताकर प्रस्तुत किया जाता है। जबकि ऐतिहासिक संदर्भ भिन्न है।
 
रानी कर्णावती (चित्तौड़) ने जब गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण की आशंका देखी, तो मुग़ल शासक हुमायूं से सहायता मांगी।
इस रक्षाबंधन का आशय "नारी द्वारा अपनी संस्कृति और स्वराज्य की रक्षा के लिए धर्मशील सहयोगी से आग्रह" था।
 
हुमायूं ने तब राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद सहायता की, भले विलंब से पहुँचा।
यह घटना यह दर्शाती है कि रक्षाबंधन केवल स्त्री की रक्षा का आग्रह नहीं, बल्कि राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा हेतु धर्मनिष्ठ सहयोग का भी प्रतीक है।
 
जनजातीय परंपराओं में रक्षाबंधन की विविधता: पितृसत्ता नहीं, सामाजिक समरसता
भारतीय जनजातीय समाजों में रक्षाबंधन के पर्व को विविध रूपों में मनाया जाता रहा है, जिनमें बहन-भाई का संबंध ही नहीं, बल्कि देवी-देवताओं, वृक्षों, नदियों और पशु-पक्षियों से भी रक्षा सूत्र बाँधने की परंपरा है।
 
गोंड, भील और संथाल जनजातियाँ अपने वन-देवताओं और प्रकृति से रक्षा सूत्र का आदान-प्रदान करती हैं।
यह पर्व इन समाजों में नारी की गरिमा और मातृशक्ति के रूप में प्रकृति के सम्मान का भी प्रतीक है।
कहीं बहनें अपने भाइयों को नहीं, बल्कि पेड़ों और जलस्रोतों को राखी बाँधती हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह पर्व सामाजिक व पारिस्थितिक समरसता का भी वाहक है, न कि केवल पारिवारिक पितृसत्ता का उत्सव।
 
समकालीन संदर्भ में रक्षाबंधन का पुनर्पाठ: विमर्श बनाम सनातन सत्य
समकालीन 'फेमिनिस्ट' विमर्श रक्षाबंधन को ‘स्त्री की निर्भरता’ के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है, किंतु यह तथ्य विहीन और औपनिवेशिक दृष्टिकोण से उपजा विचार है।
यदि रक्षाबंधन पितृसत्ता का प्रतीक होता, तो भारत में लाखों बहनें अपने भाइयों से "रक्षासूत्र के बदले उपहार नहीं, सम्मान मांगतीं।"
 
यह पर्व सामाजिक उत्तरदायित्व और सांस्कृतिक रिश्तों की पुनःस्थापना है, न कि याचना या वर्चस्व का प्रतीक।
आज भी अनेक स्थानों पर महिलाएँ पुलिस, सेना, चिकित्सक, सैनिकों को राखी बाँधती हैं। क्या ये किसी निर्भरता का संकेत है? नहीं — यह कर्तव्यबोध और उत्तरदायित्व का साझा बंधन है।
 
सनातन परंपरा में पर्व हैं मूल्य, न कि लिंग आधारित वर्चस्व
रक्षाबंधन एक जीवंत सनातनी परंपरा है जो स्त्री और पुरुष को सहचर, सहयोगी और संरक्षक के रूप में देखती है — न कि वर्चस्वशाली और अधीन के रूप में। इसे पितृसत्ता से जोड़ना भारत की सांस्कृतिक चेतना के प्रति अन्याय है। यह पर्व नारी की रक्षा नहीं, नारी और पुरुष के परस्पर रक्षा-धर्म का उत्सव है।
 
यह केवल एक राखी नहीं, अपितु सभ्यता की रक्षा का संकल्प है — जिसमें जनजाति, ग्रामीण, शहरी, सैनिक, विद्यार्थी सभी समान भाव से सहभागी होते हैं। यही समरसता है — यही सनातन है।
"रक्षाबंधन एक सूत्र है — जो नारी को अबला नहीं, संस्कृति की सबला बनाता है।"