
समीक्षक: पंकज सोनी, मीडिया शोधार्थी
वर्तमान समय में "हिंदू" और "हिंदुत्व" शब्दों को लेकर वैचारिक भ्रम और राजनीतिक व्याख्याएं अत्यधिक बढ़ गई हैं। ये शब्द धार्मिक सीमाओं से निकलकर सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं। कई बार इनकी व्याख्या जानबूझकर विकृत की जाती है और संघ जैसी संस्थाओं पर कट्टरता फैलाने के आरोप लगाए जाते हैं। ऐसे संदर्भ में वर्तमान संदर्भ में हिंदुत्व की प्रस्तुति पुस्तक "हिंदू" और "हिंदुत्व" के वास्तविक अर्थ को समझने और स्पष्टता लाने का एक गंभीर प्रयास है। इस पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीन वरिष्ठ पदाधिकारियों डॉ. मोहन भागवत, श्री सुरेश सोनी और श्री अरुण कुमार के विचारों का संकलन हैं।
विषयवस्तु एवं विश्लेषण
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व एक जीवन पद्धति के रूप में विश्व की प्राचीनतम धर्म, संस्कृति और सभ्यता है। नित्य नूतन होने के कारण इसे समय से परे सनातन कहा जाता है। डॉ. भागवत के अनुसार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता है, वह हिंदू है, और इसी विचार में विविधता में एकता की भावना निहित है। इसी कारण वह भारत में जन्मे सभी मनुष्यों को हिंदू मानते हैं, चाहे उनका धर्म कोई भी हो। वे इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि “हिंदू” शब्द वेदों, रामायण या महाभारत जैसे सनातन धर्म ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता।
हिंदू शब्द की उत्पत्ति के संबंध में तीनों विचारकों का मत एक समान है। वे बताते हैं कि आज से लगभग 1500–1200 ईसा पूर्व जरथुस्त्र नामक धार्मिक विचारक पारस (ईरान) पहुंचे थे। उन्होंने अपने पूर्वजों का स्थान सिंधु नदी के पास बताया। पारसी और यूनानी भाषाओं में 'स' को 'ह' से उच्चारित किया जाता है, अतः सिंधु को उन्होंने “हिंदू” कहा। इस प्रकार सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को "हिंदू" कहा जाने लगा।
एक अन्य ऐतिहासिक प्रसंग में उल्लेख है कि एक ब्राह्मण, व्यास, पारस गया था। वहां उसे "हिंद" से आया व्यक्ति कहा गया और "हिंदू" संबोधित किया गया। उस समय यह शब्द किसी धर्म विशेष को नहीं दर्शाता था, बल्कि एक भौगोलिक पहचान थी, सिंधु नदी के पार के निवासी के रूप में। यह शब्द धीरे-धीरे व्यापारियों और विदेशी यात्रियों के माध्यम से भारतीयों की पहचान बन गया। इस प्रकार “हिंदू” एक बाहरी शब्द है जो कालांतर में सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण करता गया।
सांस्कृतिक प्रवाह और दार्शनिक निरंतरता
संघ के विचारक श्री सुरेश सोनी इस विमर्श को दार्शनिक गहराई प्रदान करते हुए “हिंदुत्व” को भारत की प्रारंभिक काल से चली आ रही सांस्कृतिक एवं दार्शनिक यात्रा का समुच्चय मानते हैं। उनके अनुसार, यह एक जीवंत और परिवर्तनशील तत्व है, जिसे किसी एक परिभाषा में बांधना संभव नहीं। वे बताते हैं कि वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों में “हिंदू” शब्द नहीं मिलता, जो यह सिद्ध करता है कि “हिंदू” कोई धार्मिक संज्ञा नहीं, बल्कि एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक अवधारणा है। हिंदू एक मूलभूत दर्शन है, जीवन की दिशा है, तत्वज्ञान है जो समय के साथ बदलता है, लेकिन उसके मूल तत्व अपरिवर्तित रहते हैं।
ऐतिहासिक बोध और वैश्विक संदर्भ
संघ के सह सरकार्यवाह श्री अरुण कुमार अपने वक्तव्य में इस विमर्श को ऐतिहासिक गहराई प्रदान करते हैं। वे कहते हैं कि "हिंदू" शब्द की सामाजिक स्वीकृति एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो पिछले 1000–1200 वर्षों में विकसित हुई है। उनके अनुसार, हिंदुत्व को परिभाषित करने का प्रयास उसे सीमित कर देना होगा, क्योंकि यह किसी एक ग्रंथ, पैगंबर या स्थायी सिद्धांत से नहीं, बल्कि बहुलतावादी परंपराओं, संवादों और मान्यताओं से निर्मित हुआ है। वे हिंदुत्व को भारतीयता की आत्मा मानते हैं, जो विभिन्न युगों में वैदिक, शैव, बौद्ध, जैन, शाक्त आदि विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई है। अतः हिंदुत्व को समझने के लिए उसकी विविधता को स्वीकार करना ही उसकी सबसे सटीक पहचान है।
पुस्तक की उपादेयता और प्रासंगिकता
वर्तमान संदर्भ में हिंदुत्व की प्रस्तुति पुस्तक “हिंदुत्व” के चारों ओर व्याप्त बौद्धिक धुंध को स्पष्ट करने का ईमानदार प्रयास है। यह पुस्तक उन पाठकों, शोधार्थियों और विचारशील जनों के लिए अत्यंत उपयोगी है, जो समकालीन भारत में सांस्कृतिक पहचान और वैचारिक विमर्श के भीतर हिंदुत्व की भूमिका को समझना चाहते हैं।
पुस्तक न केवल हिंदुत्व की व्याख्या करती है, बल्कि इसके मूल विचार, ऐतिहासिक विकास, सांस्कृतिक प्रसार और राजनीतिक पुनर्पाठ को भी व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत करती है।
यह संक्षिप्त किन्तु सशक्त पुस्तक समकालीन भारत में सांस्कृतिक विमर्श की एक उपयोगी और विचारोत्तेजक कड़ी सिद्ध होती है।