
- डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने अपने शताब्दी काल की ओर अग्रसर होते हुए पाँच प्रमुख परिवर्तन: सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, नागरिक कर्तव्य, और स्व यानी स्वदेशी का बोध आदि का आह्वान किया है। इन परिवर्तनों में पर्यावरण संरक्षण केवल पारिस्थितिक संतुलन का प्रश्न नहीं है, बल्कि भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक चेतना से जुड़ा एक राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है। जब संघ अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण करेगा (विजयादशमी 2025), तब भारत की वैश्विक पर्यावरणीय भूमिका को एक संस्कार और नेतृत्व के रूप में बल मिलेगा।
भारत में प्राचीन काल से ही वृक्ष, जल, वायु, भूमि, गाय और प्रकृति को ‘देव’ रूप में पूजा जाता रहा है। संघ इस दृष्टिकोण को केवल पूजा स्थलों तक सीमित न रखकर व्यवहार में उतारने के लिए प्रतिबद्ध है। यही कारण है कि संघ का पर्यावरण दृष्टिकोण केवल संरक्षण नहीं, बल्कि सहजीवन और पुनरुत्पादन की संस्कृति है।
संघ के 'पंच परिवर्तन' में पर्यावरण की भूमिका
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ‘पंच परिवर्तन’ अभियान एक समग्र समाज-निर्माण की प्रक्रिया है। इसमें पर्यावरण को विशिष्ट स्थान मिला है। संघ मानता है कि यदि पर्यावरण नष्ट हुआ, तो संस्कृति, समाज और स्वाभिमान की रक्षा असंभव हो जाएगी। इसी सोच के तहत पूरे देश में शाखाओं के माध्यम से पर्यावरण आधारित गतिविधियाँ चलाई जा रही हैं:
पौधारोपण अभियान: संघ की लगभग हर शाखा में “एक शाखा – पाँच पौधे” का लक्ष्य रखा गया है। यह कार्य केवल पौधे लगाने तक सीमित नहीं, बल्कि उनके पालन-पोषण और संरक्षण तक विस्तारित है।
जल संरक्षण: ‘जल ही जीवन’ के सिद्धांत को संघ ने व्यवहार में उतारते हुए सैकड़ों जलग्राम, जल कुंड, तालाब और नदी पुनरुद्धार कार्यों को प्रेरित किया है।
गौ-संवर्धन और जैविक कृषि: संघ प्राकृतिक खेती, गो आधारित अर्थ तंत्र और रसायन रहित कृषि को पर्यावरणीय सुरक्षा की रीढ़ मानता है।
कचरा प्रबंधन एवं प्लास्टिक मुक्त भारत: ‘शुद्ध शाखा - स्वच्छ समाज’ जैसे अभियान चलाकर संघ कार्यकर्ता प्लास्टिक उन्मूलन और शहरी स्वच्छता के लिए जुटे हैं।
जीवनशैली में परिवर्तन: संघ के स्वयंसेवकों को प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, उपभोग पर संयम, और ऊर्जा संरक्षण जैसे व्यवहारों को दैनिक जीवन में शामिल करने हेतु प्रेरित किया जा रहा है।
यह दृष्टिकोण केवल पर्यावरणीय संकट के समाधान नहीं, बल्कि संस्कृति-संपन्न, सहजीवी जीवन प्रणाली को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है।
संघ के 100 वर्षों में पर्यावरणीय दृष्टिकोण का विकास
1925 में डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित संघ का प्रारंभिक ध्यान राष्ट्र निर्माण पर था। लेकिन जैसे-जैसे भारत औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावाद की ओर बढ़ा, संघ ने पर्यावरणीय संकटों को राष्ट्र धर्म और संस्कृति की रक्षा से जोड़ा।
प्रमुख कालखंड:
1950–1980: प्रारंभिक स्तर पर गौ-संवर्धन और ग्राम विकास में पर्यावरणीय चेतना का समावेश।
1980–2000: संघ के सहयोगी संगठनों द्वारा ‘नदी बचाओ’, ‘वन रक्षण’, ‘गोचर भूमि रक्षा’, ‘स्वदेशी कृषि’ जैसे अभियानों की शुरुआत।
2000–2015: ‘पर्यावरण संरक्षण गतिविधि’, ‘देव वृक्ष प्रतिष्ठान’, ‘संस्कृति संरक्षण न्यास’ जैसे संगठनों की स्थापना, जैव विविधता और संस्कृति पूर्ण जीवनशैली पर कार्य।
2015–2025: ‘पाँच परिवर्तन’ में पर्यावरण का औपचारिक समावेश; सैकड़ों पर्यावरण शिविर, दीर्घकालिक वृक्षारोपण योजनाएं, और जल संरक्षण कार्यक्रम।
2025 में जब संघ अपनी शताब्दी मनाएगा, तब तक यह संकल्पित है कि पर्यावरणीय चेतना व्यक्तिगत दायित्व से लेकर राष्ट्रीय नीति तक विस्तार पाए।
भारत की वैश्विक पर्यावरणीय भूमिका: संघ का दृष्टिकोण
संघ का मानना है कि भारत का सांस्कृतिक और प्राकृतिक जीवन दर्शन ही विश्व की पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान है। संघ भारत को ‘वैश्विक पर्यावरणीय गुरु’ की भूमिका में देखता है।
मुख्य विचार:
जलवायु न्याय का नेतृत्व: भारत का कार्बन फुट प्रिंट विश्व में न्यूनतम है। संघ चाहता है कि यह तथ्य वैश्विक मंचों पर स्वाभिमान के साथ प्रस्तुत हो।
LiFE (Lifestyle for Environment): प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तुत यह विचार संघ की ‘आवश्यकता आधारित उपभोग’ की परंपरा से मेल खाता है। संघ इसे प्रत्येक स्वयंसेवक की जीवनशैली में आत्मसात कराने का कार्य कर रहा है।
स्वदेशी विकास मॉडल: पश्चिमी देशों की विकास नीति उपभोग और शोषण पर आधारित है, जबकि भारतीय मॉडल सह-अस्तित्व और पुनर्चक्रण पर आधारित है। संघ इस स्वदेशी मॉडल को व्यवहार में लाने हेतु कार्य कर रहा है।
संघ की 100 वर्षीय पर्यावरणीय योजना: भविष्य की प्राथमिकताएँ
संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर देशभर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक विशाल कार्य योजना बनाई जा रही है। इसका उद्देश्य न केवल कार्य करना है, बल्कि नवभारत को प्रकृति-केन्द्रित राष्ट्र के रूप में विकसित करना है।
प्रमुख लक्ष्य:
- 10 करोड़ वृक्षारोपण: प्रत्येक स्वयंसेवक 10 वृक्ष लगाए और उनका पालन करे।
- 1000 जल स्रोतों का पुनरुद्धार: प्राचीन जलाशयों, बावड़ियों, तालाबों को पुनर्जीवित करना।
- प्राकृतिक खेती का विस्तार: हर गाँव में कम से कम एक गौ आधारित प्राकृतिक कृषि केंद्र।
- ‘ग्रीन शाखा अभियान’: हर शाखा में एक पर्यावरण प्रकल्प - वृक्ष, जल संरक्षण, कचरा प्रबंधन।
- नगरों में ग्रीन वॉलंटियर्स: युवा स्वयंसेवकों द्वारा पार्क, झील, शहरी वनों की रक्षा।
- स्वदेशी बीज बैंक: जैव विविधता और पारंपरिक खेती की रक्षा हेतु बीजों का संरक्षण।
पर्यावरण संरक्षण - संघ का राष्ट्रधर्म
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए पर्यावरण संरक्षण केवल एक सामाजिक सेवा नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक दायित्व है। जब संघ अपने 100 वर्ष पूरे करेगा, तब वह भारत को केवल संगठित समाज के रूप में नहीं, बल्कि संगठित, स्वदेशी, और पर्यावरणीय राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है।
भारत की वैदिक संस्कृति, तपोवन परंपरा और सहजीवी जीवनशैली ही वह पथ है जो आने वाले युग को विनाश से बचाकर नवजीवन दे सकता है। संघ इसी युगधर्म के साथ आगे बढ़ रहा है -
"वृक्षो रक्षति रक्षितः" जो वृक्ष की रक्षा करता है, वही स्वयं रक्षित होता है।
संघ का 100 वर्ष का यह पथ एक हरित राष्ट्र और वैश्विक पर्यावरणीय नेतृत्व की ओर अग्रसर भारत की पहचान है।