जनजातीय उत्थान के एक अप्रतिम शिल्पी: जगदेव राम उरांव जी.

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    15-Jul-2025
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shri jagdev ram ji
 
 
डॉ भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे - 
 
जनजातीय समाज के सम्मान, उत्थान और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए जीवन समर्पित करने वाले श्रद्धेय जगदेव राम उरांव जी की पुण्यतिथि पर हम उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। वे न केवल वनवासी कल्याण आश्रम के दृढ़ स्तंभों में से एक थे, बल्कि भारतीय जनजातीय समाज के गौरवगाथा पुरुष भी थे।
 
 
उनका जीवन उन आदिवासी अंचलों में बीता, जहाँ सुविधाओं का अभाव था, परंतु सेवा की गहनता और समर्पण की ऊष्मा थी। उन्होंने मिशनरियों के छल और धर्मांतरण के षड्यंत्रों के विरुद्ध जनजागरण खड़ा किया और एक सकारात्मक वैकल्पिक तंत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति का – खड़ा किया।
 
 
भारतीय समाज की विविधता में जनजातीय समुदाय एक अनिवार्य अंग हैं, जिनकी संस्कृति, जीवनशैली और परंपराएँ भारतीय सनातन धारा की मौलिक इकाइयाँ हैं। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात आधुनिकता की अंधी दौड़ और राजनीतिक दृष्टिकोणों में सीमित योजनाओं के कारण ये समुदाय धीरे-धीरे मुख्यधारा से वंचित होते गए। ऐसे समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम ने इन्हें सम्मान, शिक्षा और आत्मगौरव की धारा से जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया। इस संस्था के द्वितीय अध्यक्ष श्री जगदेवराव जी ने इस मिशन को तीव्र गति दी और जनजातीय पुनर्जागरण के सच्चे संवाहक बनकर उभरे। यह आलेख उनके जीवन, विचार और कार्यों का समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
 
 
प्रारंभिक जीवन और राष्ट्रप्रेम का बीजारोपण -
 
श्री जगदेवराव जी का जन्म महाराष्ट्र में एक साधारण परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही उनका झुकाव सामाजिक सेवा, संगठन और राष्ट्रकार्य की ओर रहा। पढ़ाई के साथ-साथ वे राष्ट्रवादी विचारों से अनुप्राणित हुए और युवावस्था में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। संघ के माध्यम से ही उन्होंने भारत की मूल सांस्कृतिक शक्ति को आत्मसात किया और जीवनपर्यंत उसी के पुनर्स्थापन में जुटे रहे।
 
 
संघ कार्य में दीर्घ सेवा -
 
संघ में वे प्रचारक के रूप में नियुक्त हुए। उनका कार्यक्षेत्र विदर्भ, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे वनांचल क्षेत्रों में रहा। यहाँ की कठोर भौगोलिक परिस्थितियाँ, सामाजिक विषमताएँ, मिशनरियों की आक्रामकता और प्रशासनिक उदासीनता के बावजूद वे अडिग भाव से कार्य करते रहे। उन्होंने आदिवासी ग्रामों में रहकर वहाँ की संस्कृति, बोली और जीवनपद्धति को आत्मसात किया। इससे उन्हें उन समुदायों के भीतर आत्मीय संबंध स्थापित करने में सफलता मिली।
 
 
वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ाव और नेतृत्व -
 
सन 1952 में स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यों में श्री जगदेवराव जी प्रारंभ से ही सक्रिय रहे। जब प्रथम अध्यक्ष बालासाहेब देशपांडे जी का देहांत हुआ, तब संस्था के द्वितीय अध्यक्ष के रूप में श्री जगदेवराव जी ने कार्यभार संभाला।
 
 
उनकी अध्यक्षता में संस्था ने कई उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं —
 
संगठन विस्तार: देश के सुदूर अंचलों – पूर्वोत्तर, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान तक कार्य विस्तार।
 
शिक्षा केंद्रों की स्थापना: उन्होंने हजारों 'बालक-बालिका छात्रावास', 'एकल विद्यालय' और 'कंप्यूटर केंद्र' स्थापित किए।
 
स्वास्थ्य सेवाएँ: वैद्य सेवा केंद्र, निःशुल्क चिकित्सा शिविर, चल चिकित्सा इकाइयों की स्थापना।
 
संस्कृतिक उत्थान: आदिवासी नृत्य-गान, लोक-उत्सवों को संरक्षण, उनकी बोली और परंपरा को सम्मान।
 
धर्मांतरण विरोधी अभियान: शांतिपूर्वक परंतु सशक्त रूप से मिशनरियों के छल-कपटपूर्ण कार्यों के विरुद्ध वैचारिक और सामाजिक चेतना अभियान।
 
 
विचारशीलता और संवेदनशीलता का समन्वय - 
 
श्री जगदेवराव जी का नेतृत्व केवल प्रबंधन या संगठन तक सीमित नहीं था, वे जनजातीय मन को समझने वाले विचारक भी थे। उनके लिए जनजातियाँ "वन में रहने वाले लोग" नहीं, बल्कि भारत की प्राचीन संस्कृति के संवाहक थे। वे कहते थे —
 "जनजातीय समाज को दया की नहीं, सम्मान की आवश्यकता है। वे किसी 'कमतर' नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की परंपरा के संवाहक हैं।" उनका यह दृष्टिकोण जनजातीय समाज में आत्मविश्वास भरने वाला सिद्ध हुआ।
 
 
मिशनरी तंत्र और प्रशासनिक चुनौतियों से संघर्ष -
 
उनके कार्यकाल में भारत के आदिवासी क्षेत्रों में चर्च आधारित धर्मांतरण की गतिविधियाँ तेज़ थीं। ईसाई मिशनरियों द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के माध्यम से धर्मांतरण का सुनियोजित प्रयास हो रहा था। श्री जगदेवराव जी ने इस चुनौती को पहचाना और सकारात्मक वैकल्पिक तंत्र खड़ा किया— ऐसा तंत्र जो बिना किसी वैमनस्य के, समाज को उसकी जड़ों से जोड़े और आत्मबल प्रदान करे।
 
 
राष्ट्रीय मंच पर भूमिका - 
 
श्री जगदेवराव जी केवल वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष नहीं थे, वे एक राष्ट्रीय विचारक थे। उन्होंने संसद, नीति आयोग, सामाजिक संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों में वनवासी समाज के पक्ष को दृढ़ता से रखा। उनका मानना था कि—
> "भारत का पुनर्जागरण तभी संभव है जब उसका जनजातीय वर्ग अपने गौरव के साथ खड़ा हो।"
 
 
परिश्रम, तपस्या और संयम का जीवन - 
श्री जगदेवराव जी का जीवन व्यक्तिगत सादगी, कठोर अनुशासन और निःस्वार्थ सेवा का आदर्श था। वे प्रचारक के रूप में जीवन भर ब्रह्मचारी रहे। जो कुछ भी उन्होंने अर्जित किया, वह समाज को समर्पित किया। वे सच्चे अर्थों में "सनातन साधक" थे, जिनका जीवन स्वयं में एक तपस्या था।
 
 
उत्तराधिकार और प्रेरणा - 
उनके नेतृत्व ने संस्था को न केवल कार्य विस्तार दिया, बल्कि वैचारिक दृढ़ता और सांगठनिक आत्मबल भी प्रदान किया। आज वनवासी कल्याण आश्रम जिस व्यापक और प्रभावशाली रूप में कार्य कर रहा है, उसकी नींव जगदेवराव जी के त्याग और दूरदृष्टि पर ही टिकी है।
 
 
जनजातीय भारत के आत्मगौरव के अग्रदूत - 
 
श्री जगदेवराव जी उन विरल व्यक्तित्वों में से हैं, जिन्होंने राष्ट्रकार्य को केवल एक संगठनात्मक दायित्व नहीं, बल्कि धार्मिक कर्तव्य माना। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, सेवा और संगठन की त्रिवेणी था।
 
आज जब भारत आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक जागरण की ओर अग्रसर है, तब हमें ऐसे नेतृत्व की पुनः आवश्यकता है, जो समाज के अंतिम व्यक्ति को साथ लेकर चल सके। श्री जगदेवराव जी का जीवन और कार्य उस भारत के निर्माण की प्रेरणा है जो जनजातीय, ग्रामीण, वनवासी और नागर – सभी को समान आत्मगौरव प्रदान करता है। उनका व्यक्तित्व एक साधक, संगठनकर्ता और राष्ट्रनिष्ठ विचारक का जीवंत उदाहरण था। वनवासी कल्याण आश्रम के अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल प्रेरणा और प्रतिबद्धता की मिसाल बना।
 
आज जब भारत आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में अग्रसर है, तो जगदेव उरांव जी जैसे पुरुषार्थी नेतृत्व की स्मृति हमारे लिए पाथेय है।