रानी दुर्गावतीः सिंहासन से समरभूमि तक

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    24-Jun-2025
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rani durgavati

रोहन गिरी

5 अक्टूबर 1524 की सुबह थी। दुर्गाष्टमी का दिन था। कालिंजर के दुर्ग में, जो कभी महमूद गज़नी को भी रोक चुका था, एक बालिका ने जन्म लिया। नाम रखा गया दुर्गावती। महोबा के चंदेल राजवंश में जन्मी यह कन्या किसी भी दृष्टि से साधारण नहीं थी। कहते हैं कि उसके जन्म के साथ ही उसके नेत्रों में एक ऐसी ज्वाला थी जिसे देख बुज़ुर्ग महिलाएं बोल उठीं “यह बालिका नहीं, कोई वीर शक्ति है, देवी दुर्गा का प्रतिरूप।”

बाल्यकाल से ही दुर्गावती का रुझान राजकुमारियों वाले लाड़-प्यार की ओर नहीं था। उन्हें धनुष खींचना पसंद था, तलवार से प्रहार करना प्रिय लगता और घोड़े की सवारी तो मानो उसकी आत्मा में रच-बस गई थी। चंदेलों की परंपरा में पलकर वह एक ऐसी स्त्री बनी जो युद्ध नीति, कूटनीति और प्रशासन तीनों में पारंगत थी। जब 18 वर्ष की हुई तो उनका विवाह गोंडवाना राज्य के युवराज दलपत शाह से हुआ। यह विवाह केवल दो राजवंशों का मिलन नहीं था बल्कि यह वह क्षण था जब एक चंदेल राजकुमारी गोंड समाज की महारानी बनने जा रही थी।

गोंडवाना राज्य, जिसे गढ़ा-कटंगा भी कहते हैं, मध्यभारत का एक सुदृढ़ और समृद्ध राज्य था। दलपत शाह के पिता संग्राम शाह ने 52 किले बनाए थे और उनका राज्य आज के मध्यप्रदेश के अनेक जिलों और छत्तीसगढ़ तक फैला हुआ था। लेकिन विवाह के कुछ वर्षों बाद ही दुर्भाग्य ने दस्तक दी, राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई। रानी की गोद में केवल तीन वर्ष का बालक बीर नारायण था, और अब गोंडवाना की समूची बागडोर इस युवा रानी के हाथों में आ गई थी।

यहीं से वह गाथा शुरू होती है जो इतिहास को झकझोरती है और उन एकांगी विमर्शों को ध्वस्त करती है जो यह कहकर भारत को बदनाम करते हैं कि “यहाँ स्त्रियाँ सती की जाती थीं।” रानी दुर्गावती ने सती होना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने आत्महत्या नहीं की। उन्होंने परित्यक्त स्त्री बनकर रोना नहीं चुना। उन्होंने गद्दी संभाली, राज्य चलाया, सीमाएं सुदृढ़ कीं, युद्ध लड़े, और अपनी जनजातीय प्रजा को एक संगठित शक्ति में रूपांतरित किया।

यह भारतीय संस्कृति का वह पक्ष है जिसे तथाकथित आधुनिक बुद्धिजीवी ‘पितृसत्तात्मक अत्याचार’ कहकर खारिज करते हैं। लेकिन यह स्त्री एक उदाहरण थी जिसने बिना किसी पुरुष संरक्षक के दो दशकों तक एक शक्तिशाली साम्राज्य चलाया। उन्होंने आधार कायस्थ और मान ब्राह्मण जैसे कुशल मंत्रियों की सहायता से प्रशासन को नया रूप दिया। सोने के सिक्कों और हाथियों में कर लिया जाने लगा, चेरीताल, अधारताल जैसे जलाशयों का निर्माण हुआ, शिक्षा और धर्म को संरक्षण मिला।

किंतु जैसे-जैसे दिल्ली का अकबर अपने साम्राज्य विस्तार में जुटा, गोंडवाना की स्वाधीनता उसकी आंखों की किरकिरी बनने लगी। 1562 में जब अकबर ने मालवा के शासक बाज़ बहादुर को पराजित किया, तो गढ़ा-कटंगा साम्राज्य अगला लक्ष्य बन गया। 1564 में कारा-मानिकपुर के मुगल सूबेदार असफ़ खान ने अचानक हमला कर दिया। पराजय की आशंका और मंत्रीयों की सलाह, दोनों ने रानी को संयम बरतने को कहा, लेकिन रानी ने यह कहकर सबकुछ स्पष्ट कर दिया कि “सम्मान से मरना, अपमान से जीने से श्रेष्ठ है।”

5000 की सेना लेकर रानी दुर्गावती निकलीं। रास्ते में गाँव-गाँव से पुरुषों को संगठित करते हुए वे नरही पहुँचीं, वह दुर्गम घाटी जो नर्मदा और गौर नदियों के बीच स्थित थी और जिसके प्रवेशद्वार अत्यंत संकरे थे। यहीं उन्होंने मोर्चा लिया। पहली मुठभेड़ में मुगलों को पराजय मिली। 300 सैनिक मारे गए। रानी की रणनीति ने सिद्ध कर दिया कि वीरता मात्र संख्याबल पर नहीं टिकी होती, वह दृढ़ निश्चय और उचित समय पर उचित प्रहार पर आधारित होती है।

अगले दिन असफ़ खान ने तोपें दर्रे में उतार दीं। युद्ध ने विकराल रूप ले लिया। रानी दुर्गावती, अपने प्रिय हाथी ‘सरमन’ पर सवार होकर युद्ध भूमि में उतरीं। उन्होंने लगभग तीन बार मुगलों को पीछे धकेल दिया। किन्तु जब पुत्र बीर नारायण गंभीर रूप से घायल हुए और रानी के शरीर में दो तीर आकर लगे, एक गर्दन में और दूसरा कनपटी में तो वे गिर पड़ीं। जब चेतना लौटी, तो उन्होंने अपने गज चालक से अनुरोध किया कि “मुझे खंजर मार दो।” वह मना कर बैठा। तब रानी ने स्वयं अपना खंजर उठाया और अपने ही हृदय में भोंक लिया।

यह आत्महत्या नहीं थी और न ही कोई पलायन था। यह बलिदान था स्वतंत्रता की रक्षा का, नारी अस्मिता की घोषणा का। यह वह क्षण था जब एक रानी ने उस नैरेटिव को पूरी तरह उखाड़ फेंका जो भारतीय स्त्री को केवल पराधीन, अबला और बलिदान हेतु बाध्य मानता है। रानी दुर्गावती ‘सती’ नहीं बनीं वे 'स्वाभिमानी विरांगना' बनीं।

अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने भी स्वीकार किया कि यह स्त्री ‘मर्दाना साहस’ की मूर्ति थी, जो शिकार पर जाती थी, बंदूक और धनुष चलाती थी, और बाघ को देखे बिना जल तक ग्रहण नहीं करती थी। अगर यह वही भारत होता जिसमें स्त्रियाँ जला दी जाती थीं, तो क्या दुर्गावती जैसा नेतृत्व संभव होता?

रानी की मृत्यु के बाद गढ़ा-कटंगा पर कब्ज़ा हुआ, लेकिन अकबर को दो महीने संघर्ष करने पड़े। बीर नारायण अंत तक लड़े और बलिदान हुए। अंततः चंद्रशाह को गद्दी दी गई, वह भी मुगल अधीनता की शर्त पर। लेकिन रानी दुर्गावती की स्मृति मुगलों की विजय से कहीं अधिक स्थायी सिद्ध हुई। उनके बलिदान स्थल नरिया नाला में स्मारक बना, बलिदान दिवस मनाया गया, और जबलपुर विश्वविद्यालय तथा संग्रहालय उनके नाम पर हुए।

1988 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी हुआ, और 2018 में भारतीय तटरक्षक बल ने उनके नाम पर पोत चालू किया। लेकिन यह सब उस सम्मान के आगे छोटा है जो रानी दुर्गावती को जनमानस की स्मृति में मिला है। लोकगीतों में वे जीवित हैं। गोंड समाज की चेतना में वे रची-बसी हैं। हर बार जब कोई स्त्री स्वाभिमान के लिए खड़ी होती है, दुर्गावती फिर से जन्म लेती हैं।
 
वे भारत की आत्मा का वह पक्ष हैं जिसे झूठे विमर्शों ने दबाने की कोशिश की पर जिसे मिटाया नहीं जा सकता।