अंग्रेजों से पहले भारत के गांव स्वशासी और समृद्ध थे : पद्यश्री डॉ. बजाज

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    02-May-2025
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Dr Bajaj
 
 
भोपाल। अंग्रेजों के शासन से पहले के भारत में प्रत्येक गांव स्वशासी था। गांव सब प्रकार की व्यवस्थाएं और सेवाएं थीं। प्रत्येकगांव समृद्ध था। मद्रास के दो गांवों उल्लावूर एवं कुण्ड्रत्तूर की केस स्टडी को सामने रखकर यह विचार सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडी, चेन्नई के निदेशक पद्मश्री डॉ. जतिंदर कुमार बजाज ने व्यक्त किए।
 
 
दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोधसंस्थान द्वारा आयोजित और आईसीएसएसआर द्वारा प्रायोजित 'युवा सामाजिक विज्ञान संकाय के लिए दो सप्ताह के दक्षता निर्माण कार्यक्रम(Capacity Building Programme)' में डॉ. बजाज ने 'अंग्रेजों से पहले की भारतीय नीति' और 'भारतीय परिवेश में समाज वैज्ञानिक शोध' विषयों पर युवा प्राध्यापकों को संबोधित किया। इस कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप मेंएनआईटीटीटीआर के निदेशक डॉ. चन्द्र चारु त्रिपाठी, दक्षतानिर्माण कार्यक्रम की संयोजक प्रो. अल्पना त्रिवेदी और दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोधसंस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा भी उपस्थित रहे।
 
डॉ. बजाज ने कहा किएक लंबी औपनिवेशिक दासता के कारण हमें अपनी वर्तमान चुनौतियों के समाधान में भारतीय साहित्य पर विश्वास नहीं हो पाता है। हमारे साहित्य में वर्तमान कीचुनौतियों के समाधान के सूत्र भी मिलते हैं। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों से पहले काभारत कैसा था, यह जानना है तो उसका एक प्रमुख स्रोत हमारा सभ्यागत साहित्य है। दूसरा स्रोत धर्मपालजी का साहित्य। उन्होंने 1767-1774के मध्य अंग्रजों द्वारा किए गए मद्रास के आसपास के लगभग 2000 ग्रामों के एक बहुतविस्तृत सर्वेक्षण का गहन अध्ययन किया है। इस सर्वेक्षण में अंग्रेजों ने यह जाननेका प्रयत्न किया कि जिन भारतीयों पर हम शासन करने जा रहे हैं, उनकी व्यवस्थाएं कैसे संचालित होती हैं। सर्वेक्षण में प्राप्त डेटा के आधार पर अंग्रेजों ने जो रिपोर्ट लिखी, वह हमें आश्चर्यचकित करती है। अंग्रेज लिख रहे थे कि भारत की व्यवस्था धर्म (कर्तव्य) आधारित है,जो न्याय और समता के आधार पर संचालित होती है। अंग्रेजों ने माना कि प्रत्येक गांव अपने आप में स्वतंत्र इकाई है। प्रत्येक गांव का इतिहास है। इस संदर्भ में बड़ी संख्या में यहां से शिलालेख मिलते हैं। ये गांव समृद्ध भी हैं। ये सभी गांव स्वशासी हैं। विभिन्न व्यवस्थाओं को चलाने के लिए उत्पादन में से एक निश्चित अंश दिया जाता था। अंग्रेज कलेक्टर यह देखकर हैरान रह गया कि यह काम तो राज्य के हिस्से में हैं, इन्हें लोग क्यों कर रहे हैं। पद्मश्री से सम्मानित समाज विज्ञानी डॉ. बजाज ने बताया कि मद्रास के दो गांवों- उल्लावूर एवं कुंड्रातूर में हमने भी काम किया।
 
हमें सभी प्रकार की व्यवस्थाओं का उल्लेख यहां मिलता है। गांव में व्यापारी, वैद्य, संगीतकार,कलाकार, किसान, कारीगर,सुनार, सुरक्षा बल सहित सभी व्यवसाय और सेवाओंको उपलब्ध कराने वाले लोग हैं। उल्लावूर में प्रति व्यक्ति उत्पादन ढाई टन प्रतिवर्ष था। आज के उत्पादन से यह कई गुना अधिक है। उल्लावूर के मुकाबले कुण्ड्रत्तुर में तो कृषि गौण थी। यह गांव प्रमुखतः संस्कृति एवं विद्वत्ता का केन्द्र था। यहाँ के 471 घरों में से 116 घर बुनकरों के थे। इसी प्रकार अन्य व्यवसाय से जुड़े लोग भी यहां थे। हमअपने सभ्यातगत शास्त्रों का अध्ययन करें :'भारतीयपरिवेश में समाज वैज्ञानिक शोध' विषय पर अपने व्याख्यान में डॉ. बजाज ने कहा कि भारतीय परिवेश में समाज विज्ञान के शोध में हम शास्त्र और लोक को देखते हैं। उन्होंने कहा कि शास्त्र और लोक पृथक नहीं होते हैं। लोक में हम वही देखते हैं, जो शास्त्र हमें सिखाते हैं। समाज विज्ञान में हमपाश्चात्य शास्त्र के आधार पर भी भारतीय परिवेश में शोध कर रहे हैं। पाश्चात्य के शास्त्र (अवधारणाएं) वहां की सभ्यतागत धरातल पर बने हैं। इसलिए जब आपका शास्त्र(अवधारणा) ठीक नहीं है, तो आपका शोध परिणाम भी ठीक नहीं आएगा।
 
डॉ. बजाज ने कहा कि पाश्चात्य जगत का समाज विज्ञानी अपने परिवेश, लोक-संस्कृति-समाज को बहुत अच्छे से जानता है। उसका अध्ययन करता है। लेकिन भारत का समाज विज्ञानी सामान्य तौर पर अपनी ज्ञान-परम्परा के बारे में अनजान ही रहता है। औपनिवेशक मानसिकता से बाहर निकलने और भारतीय दृष्टि से शोध करने के लिए हमें अपने वांग्मय/शास्त्र पढ़ने ही चाहिए। जब हम रामचरितमानस को पढ़ेंगे तो हिंदी के प्रति हमारी समझ बनेगी। वाल्मीकि को पढ़ेंगे तो संस्कृत के प्रति समझ बनेगी, भारतीय संस्कृति, समाज, विज्ञान और आपसी संबंधों के प्रति एक दृष्टि बनेगी। उन्होंने कहा कि भारतमें बाहर के लोग आते रहे और हम बिना किसी प्रतिकार के हारते रहे। यह कहना ठीक नहीं है। संभल में कुतबुद्दीन ऐबक के समय में आक्रांता आ गए थे लेकिन औरंगजेब तक संभल में प्रतिकार किया जाता रहा। उन्होंने कहा कि हम इसलिए बचे क्योंकि भारत लगातार प्रतिकार कर रहा था। स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी लड़ाईयां भी लड़ी जा रही थी। हमने अपने इतिहास को समग्रता से देखा नहीं, जो लिख दिया गया, उसे ही हमने मान लिया। माइक्रो-स्टडी कर इतिहास लिखने की आवश्यकता है। पश्चिम में एक-एक गांव का इतिहास लिखा जाता है।
 
उन्होंने कहा कि हमारे यहां स्थानीय स्तर पर जो इतिहास है, उसको जोड़ने, संकलन करने और लिखने का काम शोधार्थियों को करना चाहिए। उन्होंने यहभी कहा कि धर्म के आधार पर जब भारत का विभाजन हुआ तो हिंदुओं को अपना सब कुछ पाकिस्तान में छोड़कर आना पड़ा। इस विस्थापित समाज ने भारत में शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ की। उनके विकास की कहानी भारत के निर्माण की कहानियां हैं। लेकिन हमने इस दिशा में पर्याप्त शोध नहीं किया है। डॉ. बजाज ने बताया कि हमारे यहां तीर्थ यात्राएं होती थीं, उनके आधार पर लेखन भी किया जाता था। अंग्रेजों ने इन यात्राओं को जान बूझकर रोका था। इतिहास,समाज विज्ञान, मनोविज्ञान इत्यादि क्षेत्रों में काम करने वाले शोधार्थियों को विभिन्न पहलुओं पर इन यात्राओं को लेकर शोध करना चाहिए। एनआईटीटीटीआर के निदेशक डॉ त्रिपाठी ने भी सत्र को सम्बोधित किया। संस्थानके निदेशक डॉ मुकेश कुमार मिश्रा ने अतिथि परिचय दिया और कार्यक्रम के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।
 
 

shoidh sansthan  
 
 
 
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