डॉ. सुदीप शुक्ल -
मुर्शिदाबाद में तृणमूल कांग्रेस के विधायक हुमायूं कबीर के ‘बाबरी मस्जिद’ निर्माण की चर्चा ने भारतीय समाज के विमर्श को एक बार फिर उस ऐतिहासिक अध्याय की ओर धकेल दिया है, जिसे देश लंबे संघर्षों, सामाजिक तनावों और न्यायिक प्रक्रियाओं के बाद पीछे छोड़ने की कोशिश कर रहा था। भारत जैसे लोकतांत्रिक समाज में धार्मिक स्थलों का निर्माण सामान्य बात है। भारतीय संविधान भी सभी समुदायों को अपने उपासना-स्थलों के निर्माण का पूर्ण अधिकार देता है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे या किसी अन्य उपासना स्थल का निर्माण किसी को आहत नहीं करता क्योंकि आस्था का सम्मान और धार्मिक स्वाधीनता हमारी संस्कृति की आत्मा का मूल है। इस सबके बावजूद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब किसी धार्मिक स्थल का नाम स्वयं अपने भीतर ऐतिहासिक तनावों, सदियों के विवादों और कटु स्मृतियों को संजोए हो तब क्या वह निर्माण केवल ‘उपासना’ का प्रश्न रह जाता है या फिर सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदनशीलता को चुनौती देने वाले हथियार की तरह उपयोग किया जाता प्रतीत होता है? क्या वह मध्ययुगीन बर्बर सोच का प्रतीक नहीं है जिसमें एक आक्रमणकारी ने देश के बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने के लिए उनके सबसे पवित्र धार्मिक स्थल का स्वरूप बदलकर उस पर मस्जिद का निर्माण कराया था। प्रश्न यह भी है कि भारत में बाबरी मस्जिद ही क्यों चाहिए और किसे चाहिए?
‘बाबरी मस्जिद’ निर्माण का विचार साधारण धार्मिक निर्माण की श्रेणी में नहीं आता। बाबरी मस्जिद भारतीय बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए सदियों पुरानी पीड़ा और ऐतिहासिक कटुता की प्रतीक रही है। ऐतिहासिक स्रोत और अभिलेख बताते हैं कि मुगल शासक बाबर के सेनापति मीर बाकी ने उस पवित्र स्थल को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया था जो हिंदू समाज के आराध्य भगवान श्रीराम का जन्मस्थान है। अपने धार्मिक स्वाभिमान के साथ की गई बर्बरता की यह स्मृति भारतीय समाज की सांस्कृतिक चेतना में सदैव जीवित रही और 1992 की घटना ने इसे और अधिक भावनात्मक रूप दे दिया। 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद का समाधान कर देश को आगे बढ़ने का अवसर दिया है। राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ और मुस्लिम समुदाय को मस्जिद के लिए पाँच एकड़ भूमि प्रदान की गई। यह समाधान देश की संवैधानिक परिपक्वता और सामुदायिक सहअस्तित्व की परंपरा का प्रतीक था।
ऐसे में जब कोई राजनीतिक नेता किसी अन्य राज्य में बाबर के नाम पर वही ‘बाबरी मस्जिद’ बनाने की तैयारी में है तो यह स्वाभाविक रूप से एक गंभीर चिंता उत्पन्न करता है कि क्या हम फिर एक नए विवाद की ओर धकेले जा रहे हैं? यह चिंता तब और गहरी हो जाती है जब निर्माण हेतु प्रतीकात्मक रूप से 6 दिसंबर की ही तिथि चुनी गई। वह दिन, जिसे भारतीय इतिहास में अत्यंत संवेदनशील घटनाओं का चिह्न माना जाता है। 6 दिसंबर कोई सामान्य तारीख नहीं है। यह वह स्मृति-दिवस है जब विवादित ढांचा ढहाया गया था और जिसके बाद देश ने सांप्रदायिक तनावों के एक कठिन दौर का सामना किया। ऐसे में यह मानना कठिन है कि यह तिथि मात्र संयोगवश चुनी गई होगी। यह अनायास उठाया गया कदम नहीं बल्कि विशेष संदेश देने का प्रयास प्रतीत होता है। एक ऐसा संदेश जो सामाजिक शांति को सुदृढ़ करने के बजाय पुरानी पीड़ाओं को फिर उकसाने जैसा लगता है।
बंगाल में बाबरी मस्जिद के निर्माण के समाज विघटन के कुत्सित प्रयासों के बीच यह प्रश्न भी उठता है कि जब भारत में किसी भी समुदाय को उपासना-स्थल निर्माण में कोई बाधा नहीं है तब किसी मस्जिद को ‘बाबरी’ नाम देने की क्या आवश्यकता है? क्या यह धार्मिक आवश्यकता है या बहुसंख्यक हिंदुओं की भावनाओं को चुनौती देने और चिढ़ाने का एक सोचा-समझा मध्ययुगीन बर्बर मानसिकता से भरा प्रयास है? यह सर्वविदित है कि सामान्य परिस्थितियों में किसी भी धार्मिक ढांचे का निर्माण दूसरे समुदाय को आहत नहीं करता परंतु ‘बाबरी’ नाम ऐसा है जो अतीत के अत्यंत संवेदनशील जख्मों को पुनर्जीवित कर सकता है। मस्जिद के लिए इस नाम का चयन आस्था की पूर्ति से अधिक सियासत, तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण का संकेत लगता है। ऐसी सियासत जो विभाजन के षड़यंत्रों को गहरा करती है न कि समाज जोड़ने के लिए सेतु का निर्माण करती है।
देश ने दशकों की सामाजिक उथल-पुथल के बाद बाबरी विवाद का न्यायिक समाधान प्राप्त किया है। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह सीख छोड़ने का अवसर है कि विवादों को इतिहास में सम्मानपूर्वक विराम दिया जा सकता है और आगे बढ़ा जा सकता है। ऐसे में अपेक्षा थी कि राजनीतिक नेतृत्व सामाजिक संवेदनशीलता का सम्मान करेगा और धार्मिक सौहार्द्र को मजबूत करने में भूमिका निभाएगा परंतु यह पहल उलटे उस दिशा में जाती प्रतीत हो रही है जहाँ पुरानी कटुताओं को दोबारा हवा मिल सकती है और समाज को अनावश्यक रूप से दो ध्रुवों में बांटने की राजनीतिक प्रवृत्ति फिर उभर सकती है। इसी सियासी बिसात पर तृणमूल कांग्रेस ने विधायक हुमायूं कबीर को पार्टी से निलंबित भर किया है। इस विवाद को रोकने के वैसे प्रयास बंगाल की ममता सरकार द्वारा होते दिखाई नहीं दे रहे हैं जैसी राज्य सरकार और राजनीतिक दल से अपेक्षा की जाती है।
भारत का भविष्य शांति, विकास और सांस्कृतिक विरासत के विस्तार में है। यदि मस्जिद निर्माण की कोई वास्तविक सामुदायिक आवश्यकता है तो उससे किसी को आपत्ति नहीं होगी परन्तु उसे वही नाम देना जो एक लंबे ऐतिहासिक विवाद का प्रतीक है, न केवल असंवेदनशीलता है, बल्कि संभावित रूप से उकसावे का माध्यम भी बन सकता है। एक जिम्मेदार राजनीति वही होगी जो किसी समुदाय की आस्था का सम्मान करे और साथ ही समाज की सामूहिक शांति को सर्वोपरि रखे। हुमायूं कबीर की पहल यदि वास्तव में धार्मिक उद्देश्य से प्रेरित है तो उसका स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो सद्भाव, संवाद और सहअस्तित्व का संदेश दे न कि एक नया विवाद खड़ा करने का संकेत।
इस समय देश को सामाजिक, सामुदायिक विभाजन की नहीं, विवेक और संयम की राजनीति की आवश्यकता है। भारत इतिहास की कटु घटनाओं को पीछे छोड़ चुका है अब उसे ऐसे कदम चाहिए जो भविष्य को अधिक शांत, संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाएं। कोई भी धार्मिक स्थल तभी पवित्र बनता है जब वह शांति का संदेश दे और बंगाल में ‘बाबरी मस्जिद’ की यह पहल अपने वर्तमान स्वरूप में उस दिशा में नहीं, बल्कि उससे उलट दिशा में जाती दिखाई देती है।
ऐसे में मुस्लिम समुदाय को भी आगे आकर अपनी इस मध्ययुगीन बर्बर सोच के विरुद्ध खड़े होने की जरूरत है जिसके पीछे सामाजिक कटुता उत्पन्न करने वाला एक और लंबा विवाद खड़ा करने की मंशा दिखाई देती है। 6 दिसंबर को मुर्शिदाबाद में जो हुआ वह मुस्लिम समाज के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि यह उस लंबी न्यायिक प्रक्रिया बाद सामाजिक, सामुदायिक सद्भाव को धक्का पहुंचाने वाला है, इसे रोकने के लिए भारतीय समाज मुस्लिम समुदाय से ही उम्मीद करता है।