जनजातीय गौरव: क्रांतिवीर भीमा नायक का संघर्ष

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    29-Dec-2025
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bhima nayak
 
-कुलदीप नागेश्वर पवार, पत्रकार
 
मृत्युंजय भारत का गौरवशाली इतिहास अनेकों वीर धर्म योद्धाओं एवं राष्ट्रनायकों स्वरुप मणियों से सुशोभित है, जिनकी चमक सदियों तक भारतीयता और मनुष्यता का पथ प्रशस्त करती रहेगी. हमारा राष्ट्र स्वतंत्रता का संघर्ष केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं अपितु यह सामाजिक, सांस्कृतिक और आत्म-स्वाभिमान के लिए विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध था. जिसमें जनजातीय समाज के नायक-नायिकाओं ने अंग्रेजों और शोषक ताकतों के विरुद्ध जिस साहस और दृढ़ता के साथ संघर्ष किया, वह भारतीय इतिहास का गौरवशाली एवं स्वर्णिम अध्याय है.
 
जनजातीय क्रांतिवीर भीमा नायक इन महान हुतात्माओं में से एक है. जिन्होंने मातृभूमि, सनातन संस्कृति और जनजाति परंपरा के संरक्षण हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया. एक भील जनजातीय योद्धा व नायक के रुप में उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और आज भी जनजातीय गौरव व अस्मिता का प्रतीक बने हुए हैं. मां नर्मदा की गोद में रहकर 1857 की क्रांति में जनजातीय क्रांतिवीर भीमा नायक अपने सहयोगी खाज्या नायक और मोवासिया नायक के साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत पर काल बनकर टूट पड़े थे. वे सदैव सीमित संसाधनों में भी असीमित और असंभव क्रांति को घटित करने की प्रेरणा बने रहेंगे.
 
मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में स्वाधीनता संग्राम का बिगुल फूंकने वाले जनजातीय योद्धा भीमा नायक का जन्म लगभग 1840 में मध्य भारत के बड़वानी जिले के पंचमोहली गाँव (वर्तमान मध्य प्रदेश) में हुआ था. भील जनजाति में जन्में बालक भीमा को अपनी माटी, जंगल और संस्कृति के प्रति गहरा लगाव रखने के संस्कार अपने परिवार व जनजातीय समुदाय से प्राप्त हुए. बाल्यावस्था में ही भीमा का सामना कठिन परिस्थितियों और दुर्गम परिवेश से हुआ, नतीजन प्रकृति, परिस्थिति और परतंत्रता रुपी दुष्चक्र ने उन्हें पर्वत के समान संयमित, सशक्त और सामर्थ्यवान बना दिया. वे अपने जनजाति समुदाय के संघर्ष, सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युवा अवस्था में ही जागरूक हो गए. जंगलों और पहाड़ों के कठिन भौगोलिक वातावरण ने उन्हें साहस, धैर्य और रणनीति की सीख दी, जिन्होंने आगे चलकर उन्हें ब्रिटिश शासन के विरोध में एक सशक्त एवं बलशाली नायक के रुप में स्थापित किया.
 
1857 की क्रांति की ज्वाला जब पूरे भारत में धधक रही थी, तब अंग्रेजों के विरुद्ध इस महायुद्ध में भीमा नायक निमाड़ क्षेत्र में एक सुदृढ़ चट्ठान के रुप में अड़े हुए थे. उन्होंने अपने स्वजातीय भील बंधुओं को इस स्वाधीनता संग्राम के लिए संगठित और प्रशिक्षित किया. और अंग्रेजों के खिलाफ गैर-रूढ़िवादी युद्ध-रणनीति अपनाई. अपनी स्वतंत्र और सशक्त सैन्य टोली को भीमा नायक ने जंगलों और कठिन इलाकों में लड़ने के लिए गुरिल्ला युद्ध की तकनीक में निपुण किया. अंग्रेजों के वाहनों और संचार मार्गों पर हमले किए. उन्हें लूटकर गरीबों और शोषितों वर्गों के लिए धन और संसाधनों की पुनर्वितरण नीति का प्रसार किया. इसके साथ ही भारतीय जनमानस और जनजातीय समाज को ब्रिटिश शासन की राजस्व प्रणाली और अत्याचार के खिलाफ संगठित होने के लिए प्रेरित किया.
 
परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश शासन में भीमा नायक के नाम का खौफ दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा और भीमा अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के जरिए लगातार ब्रिटिश राजस्व और व्यवस्था को नुकसान पहुंचाते रहे. स्थिति यह बन गई कि अंग्रेजों के लिए मध्य भारत में नियंत्रण बनाए रखना कठिन होने लगा. आए दिन ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियां और अग्रेंज अफसर भीमा और उनके साथियों के निशाने पर आ जाते... जनजातीय समाज और भीमा के बढ़ते प्रभाव से गोरों की नींद हराम हो गई और फिर अंग्रेजी हुकूमत ने भीमा नायक की क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए अपने षड्यंत्र और तेज कर दिए. लेकिन निमाड़ के रॉबिनहुड भीमा नायक की लोकप्रियता और कुशलता से सदैव ब्रिटिश अफसरों को मुहं की खानी पड़ती और वह सुरक्षित बच निकलते.
 
ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष के दौरान कई मौके ऐसे भी आए जब भीमा नायक ने क्रांति को जीवित रखने के लिए गोरों के साथ कई छल किए. जिससे कई बार उन्होंने अपनी व अपने साथियों के प्राणों की रक्षा भी की. अंबापानी का युद्ध हो या तात्या टोपे को सुरक्षित निमाड़ क्षेत्र से नर्मदा पार कराना, भीमा नायक हमेशा सतपुड़ा के सशक्त पर्वत की तरह डटे रहे. 1864 तक क्रांतिवीर भीमा नायक की क्रांतिकारी गतिविधियां इसी प्रकार अनवरत जारी रही. आत्मसमर्पण के कई अवसर मिले लेकिन मातृभूमि और जनजातीय अस्मिता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. वहीं 1866-67 तक निरंतर अंग्रेज अफसर भीमा को पकड़ने के प्रयासों में लगे रहे और फिर 2 अप्रैल, 1867 के दिन गोरे अपने प्रयासों में सफल हुए. भीमा नायक को बालकुआ, बड़वानी के पास से षड्यंत्र पूर्वक बंदी बना लिया गया.
 
ब्रिटिश हुकूमत ने आरोप सिद्ध कराकर भीमा नायक को काले पानी की सजा सुनाकर उन्हें अंडमान की जेल में भेज दिया. जहां उन्होंने कई तरह की यातनाओं को झेला लेकिन आत्म स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं किया. क्रांतिवीर भीमा नायक की मृत्यु को लेकर अब तक स्थिति स्पष्ट नहीं थी. राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से जो दस्तावेज मिला है, उससे प्रमाणित होता है कि मृत्यु प्रमाण-पत्र तत्कालीन पोर्ट ब्लेयर व निकोबार के कनविक्ट रिकॉर्ड डिपार्टमेंट से जारी किया गया था. जिसमें ये जिक्र था कि उनकी मौत 29 दिसंबर 1876 को पोर्ट ब्लेयर में हुई थी. लेकिन इसमें भी मौत का कारण स्पष्ट नहीं लिखा है. हालाकिं जनश्रुतियों में उन्हें फांसी दिए जाने की चर्चाएं होती रहती रही है. वहीं मां भारती के इस वीर सपूत की किसी वास्तविक चित्र का भी अब तक कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है.
 
जनजातीय गौरव क्रांतिवीर भीमा नायक की शौर्यगाथा हमें और आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहेगी - अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए, समाज के शोषितों की आवाज बनने के लिए, और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति के प्रति समर्पित जीवन जीने के लिए.. भगवान भीमा नायक का शौर्य, संघर्ष और समर्पण हमें सदैव समरस, सशक्त, समृद्ध एवं आत्म निर्भर भारत के निर्माण में योगदान के लिए सजग बने रहने के लिए आंदोलित करता रहेगा. आज उनके बलिदान दिवस पर कोटिश: नमन.. विनम्र श्रद्धांजलि.
 
जय हिंद, जय जोहार
भारत माता की जय