रमेश शर्मा
दिसम्बर माह की 21 से लेकर 27 के बीच गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाओं और बलिदान की तिथियाँ हैं। ऐसा उदाहरण विश्व के किसी इतिहास में नहीं मिलता। इनमें 26 दिसम्बर के दिन दो अबोध बालकों ने स्वत्व और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के बलिदान दिया। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस दिन को "वीर बाल दिवस" के रूप में मनाने का आह्वान किया है।
सनातन संस्कृति, राष्ट्र और परंपराओं की रक्षा के लिये भारत में असंख्य बलिदान हुए हैं। इनमें कुछ परिवारों की तो पीढ़ियों का बलिदान हुआ। इसमें गुरु गोविन्द सिंह जी की वंश परंपरा भी है। दिसम्बर के अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों और माता को दी गई क्रूरतम यातनाओं और उनके बलिदान का विवरण आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। इस बलिदान का स्मरण सामाजिक स्तर पर पूरा देश 21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर के बीच करता है। फिर भी 26 दिसम्बर वह तिथि है जब दो अबोध बालकों को क्रूरतम यातनाएँ दी गई थीं। वर्ष 2023 में भारत सरकार ने शासकीय स्तर पर आयोजन की घोषणा की और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसम्बर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का आह्वान भी किया।
सिक्ख परंपरा में गुरु गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु थे। उनके पुत्रों के बलिदान ईस्वी सन् 1705 में हुए। इनमें दो सबसे छोटे पुत्रों साहबज़ादा जोरावर सिंह व साहबज़ादा फतेह सिंह का बलिदान 26 दिसम्बर को बहुत छोटी सी आयु में हुआ था। यह सिख पंथ के गरिमामय गौरव परंपरा और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के लिए दी गई प्राणों क आहूति थी। उनके दो पुत्रों ने युद्ध भूमि में वीरता और अनोखे साहस का परिचय दिया वहीं दो छोटे साहबज़ादों ने जिन्दा दीवार में दफ़न होना पसंद किया पर धर्मांतरण न किया। उनके सबसे बड़े पुत्र की आयु सत्रह वर्ष और सबसे छोटे पुत्र की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। इनके साथ इनकी दादी माता गुजरी का बलिदान भी क्रूरतम यातनाओं के साथ हुआ।
वह समय भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन का अंतिम समय था। उसने सिख पंथ को जड़ से समाप्त करने का संकल्प कर लिया था। मुगल फौज पंजाब में फौज सिखों की तलाश में लगी थी। सिखों को ढूंढ-ढूंढ कर यातनाएँ दी जाने लगी। मतान्तरण का दबाव बना जो न मानें उनका बलिदान। उन दिनों सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह आनंदपुर किले में थे। मुगलों की फौज ने इस किले का घेरा डाला हुआ था। यह घेरा करीब छह माह तक पड़ा रहा। एक समय ऐसा आया जब किले का राशन पानी सब खत्म हो गया था। गुरु गोविंद सिंह के सामने दो ही रास्ते थे एक अंतिम युद्ध लड़कर बलिदान हो जाए दूसरा सुरक्षित निकलकर युद्ध जारी रखा जाए। गुरु गोविंद सिंह ने दूसरा मार्ग चुना। वे आनंदपुर से निकलकर चमकौर की ओर पहुँचे। यहां एक पुराना किला था वहां के निवासी सिख गुरु के प्रति श्रद्धा रखते थे। गुरु गोविंद सिंह ने अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ यहीं आए।
वे 21 दिसम्बर 1705 की रात थी जब वे चमकौर पहुँचे। गुरु गोविंद सिंह जी आनंदपुर से निकलने की खबर मुगल सेना को लग गयी थी। मुगल फौज की एक टुकड़ी भी इस काफिले के पीछे चलने लगी। मुगलों की फौज का नेतृत्व सरहिन्द के नवाब वजीर खां के हाथ में था। जब गुरु गोविंद सिंह चमकौर पहुँचे तो मुगल फौज ने चमकौर किले पर घेरा डाल लिया। चमकौर किले की यह इमारत पुरानी थी। वह इस स्थिति में नहीं थी कि लंबे समय तक सुरक्षित रह सके। कुछ दीवारें तो केवल मिट्टी की थीं। इतिहास की पुस्तकों में मुगल फौज की संख्या तीन लाख अंकित है। जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या मात्र दो हजार थी जिसमें सामान्य नागरिक और स्त्री बच्चे अधिक थे, सैनिक कम थे। सैनिकों की संख्या तो मात्र कुछ सैकड़ा ही थी। लेकिन सिख सेनानियों ने संख्या बल कम होने की चिंता नहीं की। सभी सिख सैनिकों ने साहस से मुकाबला किया। यहीं से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि "सवा लाख से एक लड़ांऊ"।
यहाँ दो निर्णय हुए, जत्थों के साथ युद्ध किया जाए और गुरुजी यानि गुरु गोविंद सिंह को सुरक्षित निकाला जाए। जत्था तैयार करके युद्ध लड़ने की रणनीति बनी। और प्रत्येक जत्थे में केवल दस ही सैनिक होंगे। पहले जत्थे का नेतृत्व साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया। अन्य सैनिकों ने साहबजादे को रोका पर अजीत सिंह न माने। गुरु गोविंद सिंह ने अपने बेटे को स्वयं हथियार दिये। साहबजादे निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े। वे बहुत अच्छे तीरंदाज थे। उनके पास तीर कमान और तलवार दोनों थी। दूसरी ओर मुगल सैनिकों के पास बंदूकें भी थीं। सभी सिख सैनिक जानते थे कि युद्ध का परिणाम क्या होगा पर फिर भी उन्होंने युद्ध किया और अपने अंतिम तीर तक युद्ध किया। तलवार से भी तब तक युद्ध किया जब तक तलवार टूट न गयी। कोई इस वीरता की कल्पना कर सकता है कि केवल दस सैनिकों को लेकर एक नायक ने युद्ध लड़ा हो फिर भी यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला।
यह 23 दिसम्बर का दिन था जब साहबजादे अजीत सिंह का बलिदान हुआ। अगले दिन का युद्ध दूसरे साहबजादे फतेह सिंह के नेतृत्व में सिख जत्थे ने लड़ा। तब फतेह सिंह की आयु मात्र पन्द्रह साल थी। वे भी वीरता पूर्वक बलिदान हुए। तब पंच प्यारो ने गुरु जी से सुरक्षित निकल जाने का आग्रह किया। उनका आग्रह मानकर गुरु गोविंद सिंह अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलना स्वीकार कर लिया। यह संख्या कुल इक्यावन थी। कहीं-कहीं यह संख्या साठ भी लिखी है। बाकी लोगों ने किले में ही रहकर मुकाबला करने का निर्णय लिया ताकि मुगल सैनिकों को यह संदेह न हो कि गुरु जी निकल गये। चमकौर के पास सरसा नदी बहती थी। यह 24 और 25 दिसम्बर 1705 की दरम्यान रात थी। भयानक ठंड और मावठे का मौसम। पानी बर्फ की तरह ठंडा था। अभी गुरु गोविंद सिंह का काफिला नदी पार भी न कर पाया था कि वजीर खान को खबर लग गयी। उसकी सेना नदी पर टूट पड़ी। इस अफरा तफरी में गुरु गोविंद सिंह का परिवार बिखर गया।
सबसे छोटे दो साहबजादे जोरावर सिंह सात वर्ष और जुझार सिंह पाँच वर्ष दादी माता गुजरी के साथ बिछुड़ गये इनके साथ न कोई सेवक और न कोई सैनिक। अंधेरी रात और भीषण सर्दी के बीच दादी दोनों बच्चों ने नदी पार की। दादी अंधेरे में ही दोनों बच्चों को लेकर जहाँ राह मिली उसी ओर चल दी। कितना चलीं कितनी राह निकली कुछ पता नहीं। सबेरा हुआ, सूरज निकला, एक स्थान पर थकान मिटाने रुकीं, बच्चों को भोजन भी जुटाना था। तभी एक व्यक्ति दिखा। जिसका नाम गंगू था। वह गुरू गोविन्द सिंह का पुराना सेवक था। उसने माता गुजरी को पहचाना और विश्वास दिलाकर अपने घर ले गया। उसके गाँव का नाम खैहैड़ी था। उसने भोजन दिया विश्राम कराया। और घर से निकल लिया। यह 25 दिसम्बर का दिन था। उसने खबर वजीर खान को दी और इनाम में सोने की मुहर प्राप्त की। शाम तक मुगल सैनिक आ धमके। माता गूजरी और दोनों बच्चो को पकड़ ले गये। उन्हें रात भर बिना कपड़ो के बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया। अगले दिन वजीर खान के सामने पेश किया गया।
वह 26 दिसम्बर 1704 का दिन था। वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों बच्चों से इस्लाम कबूल करने को कहा। बच्चों ने इनकार कर दिया। वजीर खान ने आदेश दिया कि यदि बच्चे इस्लाम कबूल न करें तो इन्हें जिन्दा दीवार में चुन दिया जाये। बच्चों को भूखा रखा गया। रात भर फिर बुर्ज पर पटका। पर दोनों साहबजादे अडिग रहे। उन्हें 26 दिसम्बर को जिन्दा दीवार में चुन देने का आदेश दे दिया। फिर माता गुजरी को प्रताड़ना देने का क्रम आरंभ हुआ 27 दिसम्बर को उनके भी बलिदान हुआ। इस तरह दिसम्बर माह का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविंद सिंह के चारों साहबजादों और माता गुजरी के बलिदान की स्मृति के दिन हैं।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसम्बर वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। और पिछले वर्ष से 26 दिसम्बर को वीर बाल दिवस के रुप में मनाया जाता है ।