वीर बाल दिवस : बालक नहीं, भारत की आत्मा थे गुरु गोविंद सिंह के साहबजादे

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    25-Dec-2025
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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
 
सन् 1704 के दिसंबर माह का अंतिम सप्ताह भारतीय इतिहास में धर्म, स्वाभिमान और बलिदान की ऐसी अमिट गाथा के रूप में अंकित है, जो पीढ़ियों को साहस, आस्था और राष्ट्रधर्म का संदेश देती है। यह वही सप्ताह है जब दसवें सिख गुरु, गुरु गोविंद सिंह के चारों साहबजादों ने अत्याचार, भय और प्रलोभन के सामने झुकने के बजाय बलिदान को स्वीकार किया। यह केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के नैतिक चरित्र का उद्घोष है।
 
सन् 1704 का समय मुगल सम्राट औरंगज़ेब के शासन का अंतिम और सबसे क्रूर चरण था। सिख पंथ को जड़ से समाप्त करने का संकल्प लेकर मुगल सत्ता ने पंजाब क्षेत्र में व्यापक दमन अभियान चला रखा था। गुरु गोविंद सिंह उस समय आनंदपुर साहिब में थे, जहाँ मुगल सेना ने लगभग छह महीने तक घेराबंदी कर रखी थी। किले के भीतर भोजन, पानी और संसाधन समाप्त हो चुके थे। ऐसे समय में गुरु गोविंद सिंह के सामने दो विकल्प थे या तो वहीं अंतिम युद्ध कर बलिदान दिया जाए, अथवा सुरक्षित निकलकर संघर्ष को आगे बढ़ाया जाए। गुरुजी ने दूसरा मार्ग चुना, क्योंकि उनके लिए संघर्ष केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि धर्म और आत्मसम्मान की रक्षा का दीर्घकालिक अभियान था।
 
21 दिसंबर 1704 की रात गुरु गोविंद सिंह अपने परिवार और विश्वस्त साथियों के साथ आनंदपुर से निकलकर चमकौर पहुँचे। चमकौर एक पुराना किला था, जिसकी दीवारें भी अधिक मजबूत नहीं थीं। इसी बीच यह सूचना मुगल सेना को मिल गई। सरहिंद के नवाब वज़ीर खान के नेतृत्व में विशाल मुगल सेना ने चमकौर को घेर लिया। इतिहास ग्रंथों में मुगल सेना की संख्या अत्यंत अधिक बताई गई है, जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या सीमित थी, जिनमें बड़ी संख्या स्त्रियों और बच्चों की थी। सैनिक मात्र कुछ सौ थे, फिर भी साहस और संकल्प अडिग था। यहीं से “सवा लाख से एक लड़ाऊँ” का उद्घोष सार्थक हुआ।
 
चमकौर के युद्ध में यह निर्णय लिया गया कि छोटे-छोटे जत्थों के रूप में बाहर निकलकर युद्ध किया जाए, जिससे गुरु गोविंद सिंह को सुरक्षित निकाला जा सके। प्रत्येक जत्थे में केवल दस योद्धा थे। पहले जत्थे का नेतृत्व गुरुजी के ज्येष्ठ पुत्र साहबजादा अजीत सिंह को सौंपा गया। उनकी आयु मात्र सत्रह वर्ष थी। अनेक योद्धाओं ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, किंतु साहबजादा अजीत सिंह अडिग रहे। गुरु गोविंद सिंह ने स्वयं अपने पुत्र को शस्त्र प्रदान किए। 22 दिसंबर 1704 को साहबजादा अजीत सिंह अपने दस साथियों के साथ मुगल सेना पर टूट पड़े। वे कुशल तीरंदाज थे और तलवार युद्ध में भी अद्वितीय। अंतिम तीर और अंतिम श्वास तक उन्होंने युद्ध किया। दिन के तीसरे पहर तक चले इस असमान युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए।
 
अगले दिन दूसरे जत्थे का नेतृत्व साहबजादा जुझार सिंह (कहीं-कहीं फतेह सिंह के नाम से उल्लेखित) ने किया। उनकी आयु लगभग पंद्रह वर्ष थी। इतनी कम आयु में भी उनका साहस और धैर्य अद्भुत था। उन्होंने भी शत्रु सेना से निर्भीक होकर युद्ध किया और बलिदान दिया। चमकौर का युद्ध सिख इतिहास की सबसे उज्ज्वल शौर्यगाथाओं में से एक बन गया।
 
इसके पश्चात पंच प्यारों ने गुरु गोविंद सिंह से आग्रह किया कि वे सुरक्षित निकल जाएँ, क्योंकि गुरु का जीवित रहना पंथ और राष्ट्र दोनों के लिए आवश्यक था। पंच प्यारों के आदेश को स्वीकार करते हुए गुरु गोविंद सिंह गुप्त मार्ग से अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले से निकले। यह संख्या लगभग इक्यावन बताई जाती है। शेष योद्धाओं ने किले में रहकर युद्ध जारी रखा, ताकि मुगल सेना को यह संदेह न हो कि गुरुजी निकल चुके हैं।
 
चमकौर के समीप बहने वाली सरसा नदी को पार करते समय भीषण ठंड, अंधेरी रात और अफरा-तफरी के बीच गुरुजी का परिवार बिखर गया। माता गुजरी के साथ सबसे छोटे दो साहबजादे, साहबजादा ज़ोरावर सिंह (लगभग सात वर्ष) और साहबजादा फतेह सिंह (लगभग पाँच वर्ष) अलग हो गए। न उनके साथ कोई सैनिक था, न कोई सेवक। कठोर शीत और अंधकार में वे नदी पार कर जहाँ मार्ग मिला, उसी ओर बढ़ते चले गए।
 
24 दिसंबर की सुबह एक स्थान पर विश्राम के दौरान गंगू नामक व्यक्ति मिला, जिसने विश्वास दिलाकर उन्हें अपने घर ले गया। परंतु लोभ और भयवश उसने वज़ीर खान को सूचना दे दी और इनाम में स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कीं। सायंकाल तक मुगल सैनिक वहाँ पहुँच गए और माता गुजरी तथा दोनों बाल साहबजादों को पकड़कर सरहिंद ले गए।
 
25 दिसंबर 1704 को उन्हें वज़ीर खान के समक्ष प्रस्तुत किया गया। माता गुजरी और दोनों बालकों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश किया गया, किंतु इतनी कम आयु में भी साहबजादों का उत्तर स्पष्ट और अडिग था, धर्म नहीं बदला जाएगा। उन्हें भूखा रखा गया, ठंड में बिना वस्त्रों के बुर्ज पर बाँधा गया, पर उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः 26 दिसंबर 1704 को दोनों बाल साहबजादों को जीवित दीवार में चुनवा दिया गया। माता गुजरी ने भी असहनीय कष्टों के बीच प्राण त्याग दिए।
 
इस प्रकार दिसंबर 1704 का अंतिम सप्ताह गुरु गोविंद सिंह के चारों साहबजादों के अद्वितीय बलिदान का साक्षी बना। यह सप्ताह केवल सिख इतिहास ही नहीं, बल्कि समूची भारतीय सभ्यता के लिए धर्म, स्वाभिमान और स्वतंत्र चेतना का अमर प्रतीक है। यह गाथा बताती है कि आयु छोटी हो सकती है, पर यदि संकल्प और संस्कार महान हों, तो इतिहास स्वयं नतमस्तक हो जाता है।