प्रहलाद सबनानी
आज वैश्विक स्तर पर अनेक देशों में तरह-तरह की आर्थिक समस्याएं दिखाई दे रही हैं, जिनका समाधान वे खोज नहीं पा रहे हैं। विश्व के सबसे विकसित देशों में गिने जाने वाले अमेरिका में भी मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, ऋण का असहनीय स्तर, विदेशी व्यापार में लगातार बढ़ता घाटा, नागरिकों के बीच आय की बढ़ती असमानता (अमीर नागरिक और अधिक अमीर हो रहे हैं, जबकि गरीब नागरिक और अधिक गरीब होते जा रहे हैं), बजट में बढ़ता वित्तीय घाटा और इन आर्थिक समस्याओं के चलते देश के सामाजिक ताने-बाने का छिन्न-भिन्न होना जैसी गंभीर स्थितियां सामने हैं। जेलों की पूरी क्षमता भर चुकी है और उनमें कैदियों के लिए स्थान की कमी है, तलाक की दर में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, मकान न मिलने से बुजुर्ग पार्कों में रहने को मजबूर हैं। ये सभी समस्याएं आर्थिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर गहराती जा रही हैं।
इन परिस्थितियों के कारण अब अमेरिकी अर्थशास्त्री भी खुलकर कहने लगे हैं कि साम्यवाद पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं की विफलता के बाद अब पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं के असफल होने का खतरा मंडरा रहा है, और यह कुछ वर्षों की ही बात रह गई है। इन समस्याओं के समाधान के लिए आज पूरा विश्व भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहा है और एक तीसरे आर्थिक मॉडल की तलाश कर रहा है।
भारतीय आर्थिक दर्शन का वर्णन चारों वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद), अठारह पुराणों, उपनिषदों, विदुरनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, तिरुवल्लुवर, मनुस्मृति, शुक्रनीति, डॉ. एम. जी. बोकारे की हिंदू अर्थशास्त्र तथा श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी की थर्ड वे जैसी रचनाओं में मिलता है। इस प्रकार, भारतीय आर्थिक दर्शन की जड़ें सनातन हिंदू संस्कृति में गहराई से जुड़ी हैं। इसी दर्शन की नीतियों का पालन करते हुए प्राचीन भारत के राजाओं ने अपने-अपने राज्यों की अर्थव्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाया।
भारतीय आर्थिक दर्शन में “विपुलता के सिद्धांत” की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति सदैव मांग से अधिक रहती थी। इस सिद्धांत के कारण उत्पादों की पर्याप्त उपलब्धता बनी रहती थी, जिससे वस्तुओं के मूल्य स्थिर रहते थे और मुद्रा स्फीति जैसी समस्या उत्पन्न नहीं होती थी। यह स्थिति उस समय की अर्थव्यवस्था की बड़ी विशेषता थी। इसके विपरीत आज विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाएं मुद्रा स्फीति की सबसे बड़ी समस्या से जूझ रही हैं, जिसका समाधान उनके पास नहीं है।
“विपुलता के सिद्धांत” के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में ही विविध उत्पादों का उत्पादन किया जाता था और उन्हें स्थानीय हाट-बाजारों में बेचा जाता था, जिससे स्थानीय स्तर पर स्वावलंबन का भाव विकसित होता था। कुछ क्षेत्रों में 40–50 गांवों के बीच साप्ताहिक हाट की व्यवस्था होती थी, जहां लगभग सभी प्रकार की वस्तुओं की बिक्री होती थी। स्थानीय उत्पादों की पर्याप्त उपलब्धता के कारण बाजार भाव स्वतः नियंत्रित रहते थे। इस प्रकार प्राचीन भारत में मुद्रा स्फीति के स्थान पर घटते हुए मूल्य की अर्थव्यवस्था देखने को मिलती थी।
वर्तमान वैश्विक स्थिति भारतीय आर्थिक दर्शन के ठीक विपरीत है। मुद्रा स्फीति का सबसे बुरा असर गरीब वर्ग पर पड़ता है। आज उत्पादन इकाइयां वस्तुओं की आपूर्ति को कृत्रिम रूप से नियंत्रित करती हैं ताकि कीमतें बढ़ें और लाभ में वृद्धि हो। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन इकाइयों का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है, चाहे इसका बोझ गरीब और मध्यम वर्ग पर कितना ही क्यों न पड़े।
प्राचीन भारत में मुद्रा स्फीति इसलिए भी नहीं थी क्योंकि उस समय “प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत” का पालन होता था। ग्रामीण हाट-बाजारों में उत्पाद बेचने वाले अनेक स्थानीय विक्रेताओं के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। वे अपने उत्पाद शीघ्र बेचकर सूर्यास्त से पहले गांव लौटना चाहते थे, इसलिए कई बार वस्तुएं सस्ते भाव में बेच देते थे। परिणामस्वरूप बाजार में वस्तुओं के मूल्य कम होते थे।
आज के वैश्विक परिदृश्य में इसके विपरीत, बड़ी कंपनियां आपसी प्रतिस्पर्धा समाप्त कर ‘कार्टेल’ बनाती हैं और कीमतों को अपने पक्ष में नियंत्रित करती हैं ताकि लाभ अधिकतम हो सके। इससे उनकी संपत्ति बढ़ती है लेकिन आम नागरिकों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसलिए भारतीय आर्थिक दर्शन के “लाभ-सीमा सिद्धांत” को अपनाना आज भी प्रासंगिक हो सकता है।
भारतीय आर्थिक दर्शन के “मूल्य सिद्धांत” के अनुसार, विक्रेता को अपनी वस्तु की उत्पादन लागत पर 5 प्रतिशत लाभ जोड़कर उसका विक्रय मूल्य तय करना चाहिए। यदि वस्तु का निर्यात किसी अन्य देश को किया जा रहा है, तो उत्पादन लागत पर 10 प्रतिशत लाभ जोड़ा जा सकता है। इस नीति के कारण प्राचीन भारत में वस्तुओं के मूल्य लंबे समय तक स्थिर रहते थे।
आज पूंजीवादी नीतियों में विक्रय मूल्य पर कोई नियंत्रण नहीं है। उदाहरण के लिए कैंसर और हृदय रोग की दवाइयों की कीमतें लाखों में हैं, क्योंकि “पेटेंट कानून” के अंतर्गत उनका एकाधिकार कुछ कंपनियों के पास है। इनका उद्देश्य केवल लाभ कमाना है, जबकि सनातन भारतीय दृष्टि में अस्वस्थ व्यक्ति को दवा उपलब्ध कराना सेवा का कार्य माना गया है। यदि इन दवाइयों की उपलब्धता बढ़ाई जाए और मूल्य नियंत्रित रखे जाएं तो असंख्य जीवन बचाए जा सकते हैं।
वर्तमान में विश्व के कई देशों में बेरोजगारी विकराल रूप ले चुकी है और उनके पास समाधान नहीं है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में बेरोजगारी का उल्लेख तक नहीं मिलता। “स्व-नियोजन सिद्धांत” के अनुसार, परिवारों के स्थापित व्यवसाय आगे की पीढ़ी संभालती थी। इस कारण युवाओं में नौकरी की प्रवृत्ति नहीं थी और बेरोजगारी जैसी समस्या उत्पन्न ही नहीं होती थी।
आज पूंजीवादी व्यवस्था में कॉरपोरेट जगत के बढ़ने से नौकरी की संस्कृति ने जन्म लिया है। युवा रोजगार की कतार में खड़े हैं, और 30 वर्ष की आयु तक मनचाही नौकरी न मिलने पर समझौता कर लेते हैं। अनेक इंजीनियर और स्नातकोत्तर युवा मजबूरी में डिलीवरी या टैक्सी चलाने जैसे कार्य करते दिखाई देते हैं। यदि ये युवा अपने पारंपरिक व्यवसाय को आगे बढ़ाते, तो उनकी आमदनी अधिक होती और वे इस स्थिति में न आते।
भारतीय ग्रंथों में “शून्य ब्याज दर सिद्धांत” का भी उल्लेख मिलता है। उस समय राज्यों के पास पर्याप्त धन होता था और जो नागरिक व्यवसाय स्थापित करना चाहते थे, उन्हें राजा बिना ब्याज के ऋण प्रदान करता था। इसे राजा का कर्तव्य माना जाता था कि वह नागरिकों को व्यवसाय के लिए पूंजी उपलब्ध कराए। इस नीति से ब्याज दर शून्य रहती थी और लोग अपने स्वयं के व्यवसाय की ओर प्रेरित होते थे।