पुस्तक समीक्षा - श्री गुरुजी : राष्ट्रजीवन के प्रेरणास्रोत

विश्व संवाद केंद्र, भोपाल    06-Nov-2025
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डॉ. भूपेन्द्र कुमार सुल्लेरे
भारत की राष्ट्रीय चेतना के नवजागरण में यदि किसी व्यक्ति ने अपने चिंतन, संगठन और तपश्चर्या के बल पर एक अखंड सांस्कृतिक प्रवाह को दिशा दी, तो वह निश्चय ही डॉ. माधव सदाशिव गोलवलकर ‘श्री गुरुजी’ हैं। ‘श्री गुरुजी (जीवनी)’ पुस्तक में लेखक हा. वे. शेषाद्रि ने इस महान युगपुरुष के जीवन का ऐसा प्रामाणिक, प्रेरणादायक और सूक्ष्म चित्र प्रस्तुत किया है, जो केवल व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक विचार-यात्रा का परिचय भी है। यह पुस्तक संघ, समाज और राष्ट्र के संबंध को समझने का मार्गदर्शन करती है।
जीवन का आरंभ : वैचारिक निर्माण की भूमिका
श्री गुरुजी का जन्म 19 फरवरी 1906 को चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में हुआ। बचपन से ही उनमें अध्ययनशीलता, अनुशासन और आत्मसंयम के गुण स्पष्ट रूप से प्रकट थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राणप्रतिष्ठित ज्ञानयोगी डॉ. मदनमोहन मालवीय के सान्निध्य ने उन्हें राष्ट्र और संस्कृति के गूढ़ तत्वों से परिचित कराया।
शेषाद्रि जी ने उनके बाल्यकाल और विद्यार्थी जीवन का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि पाठक समझ पाता है श्री गुरुजी के व्यक्तित्व में विद्या, विनम्रता और वैदिक विचार का संतुलित संगम कैसे बना।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से समर्पण और दत्तचित्त जीवन
लेखक ने विस्तार से बताया है कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से उनका परिचय केवल एक संगठनात्मक संबंध नहीं था, बल्कि यह गुरु-शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना जैसा पवित्र संबंध था। संघ के कार्य में उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण अर्पित कर दिया। संघ के द्वितीय सरसंघचालक के रूप में उन्होंने विचार, अनुशासन और संगठन को जो एकात्मता प्रदान की, वह इस पुस्तक का केंद्रीय बिंदु है। शेषाद्रि जी ने बताया है कि गुरुजी ने संघ को केवल ‘व्यवस्था’ नहीं, बल्कि ‘संस्कार’ के रूप में स्थापित किया।
राष्ट्रवाद की उनकी संकल्पना : एकात्म मानव दर्शन की आधारभूमि
इस जीवनी का सबसे गूढ़ और सारगर्भित भाग है श्री गुरुजी का राष्ट्रवाद। लेखक ने स्पष्ट किया है कि उनके लिए राष्ट्र केवल भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि संस्कृति का सजीव स्वरूप था।
वे कहते थे — “हम सब इस भूमि के पुत्र हैं, हमारा मूलाधार संस्कृति है, न कि राजनीति।” इस दृष्टिकोण ने ही आगे चलकर पं. दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानव दर्शन’ का वैचारिक आधार निर्मित किया।
स्वतंत्र भारत में श्री गुरुजी की भूमिका : संवाद, समरसता और समन्वय
शेषाद्रि जी ने इस भाग में अत्यंत संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है। उन्होंने विभाजन, गांधीजी की हत्या के पश्चात संघ पर लगे प्रतिबंध, और सरकार से संवाद की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विवरण दिया है।
गुरुजी ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघ के स्वयंसेवकों को संयम और अनुशासन का मार्ग दिखाया। उन्होंने कभी टकराव नहीं, बल्कि संवाद और समरसता को प्राथमिकता दी। उनका यह दृष्टिकोण भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रतीक बन गया।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और विश्व मानवता का दृष्टिकोण
लेखक ने श्री गुरुजी के वैश्विक दृष्टिकोण को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र से जोड़कर समझाया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को केवल एक धर्म या समुदाय की संपत्ति न मानकर सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का माध्यम बताया।
श्री गुरुजी का यह विचार कि “भारत का उत्थान विश्वकल्याण का माध्यम बनेगा” आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था।
भाषा, शिक्षा और संस्कृति पर विचार
शेषाद्रि जी ने गुरुजी के शिक्षा-संबंधी विचारों को विशेष स्थान दिया है। वे मानते थे कि भारतीय शिक्षा में भारतीयता का आत्मबोध होना चाहिए। अंग्रेज़ी माध्यम या पाश्चात्य मूल्य केवल उपकरण हैं, आत्मा नहीं। उनके लिए संस्कृति किसी विशेष वेशभूषा या आचार की परिभाषा नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म में भारत की आत्मा का अनुभव थी।
युगपुरुष की कालातीत प्रासंगिकता
‘श्री गुरुजी (जीवनी)’ केवल घटनाओं का संग्रह नहीं है, यह एक युग की वैचारिक यात्रा है। लेखक हा. वे. शेषाद्रि ने जिस संतुलन, शोधपूर्ण दृष्टि और भावनात्मक गहराई से गुरुजी का जीवन प्रस्तुत किया है, वह इस पुस्तक को कालजयी बनाता है।
श्री गुरुजी का जीवन हमें यह सिखाता है कि विचार का मूल्य तभी है जब वह चरित्र, अनुशासन और सेवा में रूपांतरित हो।
आज जब भारत आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और वैश्विक नेतृत्व की दिशा में अग्रसर है, तब श्री गुरुजी के विचार हमें यह संदेश देते हैं कि “भारत को समझो, भारत को जियो, और भारत को विश्व के लिए प्रेरणा बनाओ।”
यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है, जो भारत को केवल एक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक जीवंत सभ्यता के रूप में देखता है।
यह जीवनी हमें यह अनुभव कराती है कि श्री गुरुजी कोई व्यक्ति नहीं, एक प्रेरणा-प्रवाह हैं जो युगों तक राष्ट्रजीवन को आलोकित करते रहेंगे।
पुस्तक विवरण :
पुस्तक का नाम: श्री गुरुजी (जीवनी)
लेखक: हा. वे. शेषाद्रि
पृष्ठ: लगभग 400
विधा: जीवनी / वैचारिक साहित्य